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Author name: Amritesh

भोग में आकर्षण

भोग में आकर्षण आकर्षण का परिणाम दुःख है। चित्त में आकर्षित होने की विकृति है। आकर्षण के द्वार हमारी इन्दियाँ हैं। इन्द्रियों की खिड़कियों से मन झाँकता है। जिस वस्तु को भी चित्त देखता है, उसके प्रति आकर्षित हो जाता है। चित्त का वस्तु के प्रति आकर्षित होना राग है। वस्तु किसी को आकर्षित नहीं […]

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नाम परमात्मा का

नाम परमात्मा का परमात्मा का नाम श्रद्धा भक्ति से स्मरण किया जाये, तो पाप कर्मों का समापन सहज ही हो जाता है। परमात्मा के नाम में वह शक्ति विद्यमान है जो हमारी आत्मा को पवित्र बना सकती है। परमात्मा की स्तुति आराधना तो पाप कर्मों की नाशक है ही। परमात्म नाम से भी पापकर्म भयभीत

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प्रशंसा की चाह

प्रशंसा की चाह मनुष्य का मन प्रशंसा की चाह करता है। प्रशंसा मनुष्य के मन की कमजोरी है। प्रशंसा की चाह इंसान को लक्ष्य से भटका देती है। प्रशंसा से मनुष्य प्रमादी हो जाता है। प्रशंसा की चाह रखने वाले लोग कभी मंजिल को उपलब्ध नहीं होते। इसलिये प्रशंसा के जाल में न फंसकर हमें

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सुख खजाने में नहीं

सुख खजाने में नहीं सच्चा सुख बाहर में खोजने से नहीं मिलता। वस्तुओं में सुख नहीं अपितु सुख का भ्रम है। वस्तुओं का आकर्षण आत्मा को पतन के रास्ते पर ले जाता है। आत्मा का पर वस्तुओं में सुख मानकर आकर्षित होना अज्ञान कहलाता है। जब तक इस अज्ञान भाव का नाश नहीं होता, तब

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दुनियाँ का सबसे बड़ा न्यायाधीश

दुनियाँ का सबसे बड़ा न्यायाधीश अच्छे कर्म ही हमारे सौभाग्य का निर्माण करते हैं। हमारा भाग्य कोई दूसरा नहीं लिखता। हम ही अपना भाग्य निर्मापित करते हैं। जब हम अच्छे कर्म करते हैं, तो जीवन में उन्नति होती है। जब हम अच्छे कर्म नहीं करते, तो जीवन में उन्नति रुक जाती है। जब हम बुरे

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मन के मालिक बनें

मन के मालिक बनें मन की चंचलता आत्मा को कर्मों से बाँधती है। मन की गति को मापना किसी भी यंत्र से संभव नहीं है। मन पल-पल में स्थान बदलता है। मन को रोकना मनुष्य के लिये बड़े श्रम का काम है। जिसने अपने मन को रोकना सीख लिया, उसने अपने जीवन को खुशियों का

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धर्म क्या है?

धर्म क्या है? वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। वस्तु स्वभाव की पहिचान के अभाव में धर्म की प्राप्ति नहीं होती। धर्म के नाम पर परंपराओं का निर्वाह अनादि से अज्ञान वश किया जाता रहा, किन्तु परंपराओं का निर्वाह धर्म नहीं-धोखा है। धर्म, परंपराओं को ध्वस्त कर अपनी यथार्थ चमक को बिखेरता है। परम्परा जीवन

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मन का परिवर्तन

मन का परिवर्तन मन कभी फूलों की सेज है, कभी काँटों का बिस्तर । मन कभी परमात्मा की प्रतिमा है, कभी खान का प्रस्तर। मन कभी आनन्द का सागर है कभी दुःख का सरोवर। मन कभी सत्य है, शिव है, सुन्दर है, तो कभी सत्य, शिव, सुन्दर का आलोचक और निन्दक। आदमी का मन सदैव

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सुनना एक कला है

सुनना एक कला है सुनना एक कला है। सुनना मानव जीवन की उपलब्धि है। सुनना मानव की विशिष्ट जीवन शैली है। सुनना ज्ञान विकास की परिचायक है। श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ जीवन के लिये सुनना आत्मज्ञान की अभिव्यक्ति है। सद्गुणों के बाबत् सुनना ही धर्मश्रवण है। सुनना अच्छाई भी है और बुराई भी। जब अपने आत्मकल्याण

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निर्दोष आलोचना से समाधि

निर्दोष आलोचना से समाधि दूसरों को तिरस्कृत करने के लिये आलोचना करना महापाप हैं। यूँ तो मनुष्य कदम-कदम पर पाप के कृत्य करता है। कभी हिंसा, तो कभी झूठ। कभी चोरी तो कभी कुशील सेवन। कभी परिग्रह के लिये बिना विचारे दौड़-धूप। इन सभी पापों को जीव एक-दिन में कहीं न कहीं करता जरूर है।

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