इस शंका के निवारण के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि धर्म के स्वरूप को समझा जायअर्थात् धर्म किसको कहते हैं?
‘वत्थु सहावो धम्मो’ अर्थात् जिस वस्तु का जो स्वभाव है वही उसका धर्म है।
जैसे ज्ञान-दर्शन आत्मा का स्वभाव है, उष्णता अग्नि का स्वभाव है, द्रवण करना जल का स्वभाव है; स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पुद्गल का स्वभाव है, आदि।
प्रत्येक द्रव्य अनादि अनन्त है अतएव उसका स्वभाव अर्थात् धर्म भी अनादि अनन्त है। कोई भी द्रव्य न कभी उत्पन्न हुआा है और न कभी उसका नाश ही हो सकता है। केवल उसकी पर्याय समय समय बदलती (उत्पन्न व नष्ट होती) रहती है।
विज्ञान अर्थात् साइन्स ने भी यही सिद्ध किया है कि Nothing is created, nothing is destroyed, it only changes its phase. इससे यह सिद्ध हो जाता है कि द्रव्य किसी का बनाया हुआ नहीं है क्योंकि जो वस्तु अनादि है यह किसी की बनाई हुई नहीं हो सकती है। यदि बनाई हुई हो तो उसका आदि हो जाएगा क्योंकि जब वह बनाई गई तभी से उसकी आदि हुई। जब द्रव्य अनादि है तो उसका धर्म (स्वभाव) भी अनादि ही है क्योंकि स्वभाव रहित कोई भी वस्तु नहीं हो सकती। अतः धर्म भी अनादि है और किसी का बनाया हुआ नहीं है।
जैनधर्म भी यही कहता है कि प्रत्येक द्रव्य का जैसा स्वभाव है उसको वैसा ही जानो और वैसा ही श्रद्धान करो। इसी का नाम सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान है अर्थात् सच्चा श्रद्धान व सच्चा ज्ञान है। जब वस्तु स्वभाव का सच्चा श्रद्धान व ज्ञान हो जाएगा तो किसी वस्तु को भी इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें रागद्वेष नहीं किया जा सकता है किन्तु आत्मा का उपयोग आत्मा में ही स्थिर हो जाता है और परम वीतरागता हो जाती है उसीका नाम सम्यक्चारित्र है|
अतः सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को भी धर्म कहा गया है। दो द्रव्य अर्थात् जीव व पुद्गल ऐसे भी हैं जो बाह्य निमित्त पाकर विभावरूप भी हो जाते हैं। जीव अनादिकाल से विभावरूप होता चला आ रहा है। यह विभावता उपर्युक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा दूर की जाकर जीव अपने पूर्ण धर्म (स्वभाव) को प्राप्त कर सकता है। इसी कारण उनको भी धर्म कहा गया है।
अतः परमात्मा द्वारा धर्म नहीं बनाया जाता प्रत्युत् धर्म द्वारा परमात्मा बनता है।
धर्म का दूसरा लक्षण यह भी है कि धर्म उसको कहते हैं कि जो जीव को संसार के दुःखों से निकाल कर मोक्ष में पहुँचा दे।
उपर्युक्त कथनानुसार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ही ऐसा धर्म है जो जीव को संसार के दुःखों से निकाल कर मोक्ष में पहुंचा देता है। जब वस्तु अनादि है तो उसका उपर्युक्त श्रद्धान-ज्ञान व चारित्र भी सन्ततिरूप से अनादि ही है।
अब प्रश्न यह होता है कि जब धर्म अनादि है तो उसके साथ जैन विशेषण क्यों लगाया जाता है ?
इसका उत्तर यह है कि अनादि सिद्धान्त का भी जो कोई महानुभाव ज्ञान करके (Discover करके) साधारण जनता को बतलाता है वह सिद्धान्त उसी के नाम से पुकारा जाता है जैसे माल्थस थ्योरी, न्यूटन थ्योरी।
इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि उस सिद्धान्त या स्वभाव को ही उन महानुभाव ने बनाया या उत्पन्न किया है। स्वभाव या सिद्धान्त तो अनन्त ही है जैसे- गुरुत्वाकर्षण या Gravity गुण वस्तु में तो अनादि अनन्त ही है, वह किसी का बनाया हुआ नहीं है।
इसी प्रकार धर्म तो अनादि व अनन्त ही है वह किसी का बनाया हुआ या उत्पन्न किया हुआ नहीं है किन्तु ‘जिन’ ने उसका ज्ञान करके साधारण जनता को बतलाया अतएव वह जैनधर्म कहलाने लगा।
जो सर्वज्ञ हैं अर्थात् जो अपने केवल (पूर्ण) ज्ञान द्वारा तीन लोक व तीन काल की सब चराचर वस्तुओं को उनके अनन्त गुण व अनन्त पर्यायों सहित जानते हैं उनको ‘जिन’ कहते हैं। ‘जिन’ भी सन्तति रूप से अनादि हैं।
युगों (Cycle of Time) का परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक युग में (यहाँ युग से आशय उत्सर्पिणी व अवपिणी काल का है) ऐसी महानात्मायें पैदा होती हैं जो पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर अपनी दिव्यध्वनि द्वारा उस अनादि धर्म का प्रचार करती हैं। उन्हीं को जिन कहते हैं।
वर्तमान युग की आदि में सर्वप्रथम श्री भगवान आदिनाथ (ऋषभनाथ) ने ही केवल (पूर्ण) ज्ञान प्राप्त कर इस अनादि धर्म का प्रवर्तन किया था। इस युग के वह सर्वप्रथम जिन हुए हैं अतः इस अपेक्षा से उनको इस युग में जैनधर्म के प्रवर्तक कहा गया है।
इस युग में २४ तीर्थंकर हुए हैं जिनमें से भगवान श्री महावीरस्वामी अन्तिम तीर्थकर थे। साधारण जनता उन्हीं को जैनधर्म का प्रवर्तक मानती थी और पूर्व के २३ तीर्थङ्करों की सत्ता या उनका ऐतिहासिक पुरुष होना स्वीकार ही नहीं करती थी। डा० श्री राधाकृष्णन् ने Indian Philosophy पुस्तक द्वारा इस मत का खण्डन किया है और जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध की है।
शरीर में आत्मा ठीक उसी प्रकार रहता है जैसे दूध में पानी रहा करता है, आत्मा स्वयं में अनंत सुख स्वभावी है, आत्मा को सुख का अनुभव करने के लिए किसी बाहरी साधन की आवश्यता नहीं है, किंतु इस शरीर रूपी पानी ने इसकी हालत पतली कर रखी है, इसलिए इसका सुख स्वतंत्र न रहकर इंद्रियों के आश्रित हो गया है, इसी प्रकार आत्मा अनंत ज्ञान स्वभावी है किंतु इस शरीर के संयोग से इसका ज्ञान भी इन इन्द्रयों के आधीन हो गया है, इसलिए जितना ज्ञान इन इन्द्रियों के माधयम से हो पा रहा है, संसार अवस्था में आत्मा उतना ही ज्ञानी कहलाता है जबकि आत्मा अनंत ज्ञान स्वभावी है| ऐसा ही आत्मा के दर्शन आदि गुणों के विषय में भी जानना चाहिए| चुकि संसार अवस्था में इस शरीर और आत्मा का सम्बन्ध दूध पानी की तरह है, अर्थात जहाँ-जहाँ आत्मा के प्रदेश हैं वहीँ-वहीँ शरीर के प्रदेश भी हैं इस कारण हमें शरीर तो अनुभव में आ रहा हैं किंतु आत्मा अनुभव में नहीं आ पा रहा हैं, इसके लिये हमें उस हंस की दृष्टि चाहिए जो पानी मिले दूध में से दूध-दूध को तो गृहण कर लेता है और पानी-पानी को छोड़ देता हैं, इस दृष्टि का नाम है भेद-विज्ञान की दृष्टि| जब जीव के पास यह दृष्टि होती है तो सर्वप्रथम जीव अपनी श्रद्धा में शरीर और आत्मा को भिन्न-भिन्न अनुभव करता है पश्चात चारित की पूर्णता को प्राप्त होता हुआ साक्षात् शरीर से भिन्न अपनी शुद्ध आत्मा को पा लेता है अर्थात स्वयं को प्राप्त कर लेता है|
प्रथम तो यह कि पाप करने से मनुष्य गति नहीं प्राप्त होती यह आपने किस शास्त में पढ़ा है? जिनागम में तो कहा गया है कि शातिशय पुण्य से रहित पापी जीव चारों गतियों में पाये जाते हैं| यहाँ तक कि देव गति में भी ऐसे जीव पाये जाते हैं जो वहाँ श्रेष्ठ देवों के वाहन बनते हैं जिन्हें आभियोग जाति के देव कहा जाता है| ऐसे ही मनुष्य गति में भी ऐसे मनुष्य पाये जाते हैं जो कहने मात्र को मनुष्य हैं लेकिन पशुओं से भी अधिक यातनाओं-प्रताणनाओं को प्राप्त कर होते हैं| हाँ पाप का प्रतिशत नरक में – तिर्यंचों में – मनुष्यों में – देवों में क्रम-क्रम से घटता हुआ होता है किंतु ऐसा नहीं है कि मनुष्य गति में एकमात्र पुण्य के उदय से ही जन्म प्राप्त होता है| जिन मनुष्यों का जन्म शातिशय पुण्य के उदय से होता है वे तो उच्च-श्रेष्ठ कुलों को प्राप्त करते हैं, जिनेंद्र देव के कुल को प्राप्त करते हैं, संसार के कार्यों में ज्यादा आसक्त नहीं होते, धर्म भावना से / अपने आत्म हित की भावना से भरे रहते हैं – ऐसे जीव कितने पैदा हो रहे हैं इस पंचम काल में? और म्लेच्छों जैसा मनुष्य जीवन प्राप्त करने वाले जीव तो इस पंचम काल में क्या, छठवें काल में भी होगें जिनके विषय में जिनागम में बताया गया है कि ” वे मात्र नरक और तिर्यंच गति से मरण करके मनुष्य गति में आयेगें और पुनः यहाँ से मरण कर नरक और तिर्यंच गति को ही प्राप्त करेंगे| ” तो यदि वर्तमान में पाप की बहुलता के बीच भी जनसंख्या में वृद्धि देखी जा रही है तो इसमें कोई विशेष बात नहीं है, क्योंकि धर्मात्मा जीवों का, सच्चे जैन धर्म के मानने वाले जीवों का तो निरंतर ह्रास ही देखने को मिल रहा है और यह ह्रास इसी प्रकार से बढ़ता जायेगा एवं इस पंचम काल के अंत तक मात्र ४ ही जैन धर्म के उपासक शेष बचेगें और वे भी उत्तम समाधि मरण कर प्रथम स्वर्ग को प्राप्त करेंगे एवं उन्हीं के साथ ये पंचम काल भी पूर्ण हो जायेगा|
जैन धर्म में कर्म सिद्धांत को स्वीकार किया गया है| जीव इस संसार अवस्था में रहकर जो कुछ भी थोड़ा या अधिक सुख-दुःख का अनुभव करता है उसमे उस जीव का पूर्व कर्म कारण हुआ करता है| कर्मों की स्थिति अन्तरमहुर्त ( लगभग ४८ मिनट ) से लेकर 70 कोड़ाकोड़ी सागर तक की हो सकती है, अर्थात हमारा एक समय के परिणाम से बंधा कर्म हमारे करोड़ों भावों तक साथ जा सकता है| और वही कर्म यह निश्चित करता है कि वर्तमान पर्याय में हमारा मित्र कौन होगा और शत्रु कौन होगा? अब प्रश्न यह है कि यदि मेरे पूर्व कर्मों ने मेरे समक्ष कोई शत्रु खड़ा कर दिया है, किसी विपरीत आचरण करने वाले को उपस्थित कर दिया है तो अब हम क्या करें? हम वही करे जो भगवान पार्श्वनाथ ने किया, 10 भावों तक विपरीत आचरण करने वाले के प्रति भी उन्होंने बैर भाव नहीं रखा हर भव में उन्होंने अपने पूर्व कर्मोदय का चिंतन करते हुए, कमठ के प्रति मध्यस्थ भाव रखा और हर भव में अपने समता परिणाम को- धर्म की भावना को बढ़ाते चले गए अंत में परिणाम क्या हुआ, बैर हार गया और समता जीत गयी| क्योंकि पूर्व कर्मोदय को राग-द्वेष करके कभी नष्ट नहीं किया जा सकता, उन्हें नष्ट करना है तो एकमात्र समता और धर्म परिणाम से ही नष्ट किया जा सकता है| तो अच्छा है हम स्वयं की धर्म भावना को और प्रशस्त करें, जिससे हमारा पूर्व कर्म शांत हो सके, और कदाचित वह कर्म तीव्र भी है तो हम जो धर्म के द्वारा पुण्य का अर्जन कर रहे है उस पुण्य से चाहे लाखों लोग हमारे विपरीत हो जायें हमारा अहित विचारे लेकिन वो मात्र विचार ही सकते हैं लेकिन यदि हमारा पुण्य का उदय है तो अहित कर नहीं सकते| साथ ही उस जीव के प्रति भी यही सद भावना रखे कि वह भी अपना बैर भाव छोड़कर सच्चे धर्म के मार्ग को प्राप्त करे|
माने, वो धर्मध्यान करने के कारण दुखी हैं | ये ही आपकी मिथ्या श्रद्धा है | यदि जीव धर्म करने से दुखी होते हैं तो फिर पाप करने से सुखी हो जायेंगे | लेकिन फिर तो सभी को दिन – रात खूब पाप कार्य करते रहना चाहिये | ध्यान रखो जिनागम में सभी कर्मों का एक आबाधा काल कहा गया है | जैसे यदि आपने आज भूमि में कोई बीज बोया है तो वह आज के आज ही अंकुरित नहीं हो जायेगा उसे कुछ समय लगेगा | बीज बोने और अंकुरण होने के बीच का जो काल है उसे ही जिनागम में आबाधा काल कहा गया है | यदि इसे श्रद्धान-ज्ञान में ले लिया जाये तो कभी फिर ऐसी शंका हृदय में उत्पन्न ही नहीं हो सकती |