सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥ १४ ॥
“रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं।” परमात्मप्रकाश २/३६
“स्वरूपे चरणं चारितं वीतरागचारित्रमिति ।” परमात्मप्रकाश २/४०
चतुर्थ गुणस्थान में जहाँ चारित्र का भी अंश नहीं है वहाँ स्वरूपाचरण चारित्र का अंश कैसे संभव हो सकता है ?
समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम् ।
स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थाने चतुर्थके ॥७४/५४३।। उत्तरपुराण
“सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अभ्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम् ।” रा. वा. १/१/७५
यदि यह कहा जाये कि चतुर्थ गुणस्थान में मोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का अभाव है अतः उसके अभाव में जो चारित्र उत्पन्न होता है, वह ही स्वरूपाचरण चारित्र है?
“सरागचारित्रं पु्ण्यबन्ध कारणमिति ज्ञात्वा परिहृत्य निश्चलशुद्धात्मानुभूतिस्वरूपं वीतराग चारित्रमहमाश्रयामि ।” प्रवचनसार गाथा ५ की टीका ।
“निश्चलानुभूतिरूपं वीतरागचारित्रमित्युक्तलक्षणेन निश्चयरत्नत्रयेण परिणतजीवपदार्थ हे शिष्य ! स्व समय जानीहि । पूर्वोक्त निश्वयरत्नत्रयाभावास्तत्र मवास्थितो भवत्यय जीवस्तवा तं कीवं परसमय जामीहीति स्वसमयपरसमयलक्षणं ज्ञातव्य ।” समयसार गाथा २ टीका ।
“शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणासंयमः ।”
जो मिथ्यादृष्टि सम्यग्दर्शन के अभिमुख है, वह सातिशय मिथ्यादृष्टि है। उसके परिणामों में निरंतर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि बढ़ती जाती है। वह गुणश्रेणी निर्जरा करता है। साधारण मिध्यादृष्टि को निरतिशय मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
सुणाति प्राणिनं यच्च तत्त्वज्ञैः शल्यमीरितम् ।
शरीरामुप्रविष्ट हि काण्डादिकमिवाधिकम् ।। ४/४ ॥ सिद्धान्तसार
चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का उदय रहता है जिसके कारण वह विषय-भोग का त्याग नहीं कर सकता, किन्तु विषय-भोग को हेय तथा त्याज्य मानता है। इसलिये वह अप्रत्याख्यानावरण के उदय की बरजोरी से आत्म-निन्दा पूर्वक विषय-भोगों में इन्द्रिय-सुख का अनुभव करता है, जैसे कोतवाल द्वारा पकड़ा हुआ चोर, कोतवाल की बरजोरी से, अपना मुँह भी काला करता है और अन्य क्रिया भी करता है। कहा भी है-
“स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणधारभूतं निजपरमात्मद्रव्यनुपादेयम्, इन्द्रियसुखादि परद्रव्यम् हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञ- प्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधक- भावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृश- क्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीत- तस्करवदात्मनिंदासहितः सन्निद्रीयसुखमनुभवतीत्य- विरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् ।” वृहद द्रव्यसंग्रह गाथा १३ टीका ।
अर्थ – “स्वाभाविक अनन्तज्ञान अनन्तगुणों का आधारभूत निजपरमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य हेय है तथा सर्वज्ञ कथित निश्चय-व्यवहार नय में परस्पर साध्य साधक भाव है” ऐसा मानता है, किन्तु भूमि-रेखा समान क्रोधादि दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय से, मारने के लिये कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति, आत्मनिंदादि सहित इन्द्रियसुख का अनुभव करता है, यह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती का लक्षण है।
श्री १०८ अमृतचन्द्र आचार्य ने कलश ११० में कहा है कि कर्म का उदय अवशपने से होता है और उस मोहनीय कर्मोदय से जो राग-द्वेष भाव होते हैं उनसे बन्ध होता है। वह वाक्य इस प्रकार है-
“किंत्वत्रपि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय ।”
अर्थ- किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि सम्यग्दृष्टि के अवशपने से जो कर्म उदय में आता है वह तो बन्ध का कारण है। (वह कर्मबन्ध अनन्तानन्त संसार का कारण नहीं होता)।
का वि अडब्या दीसहि पुग्गल दव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥ स्वा० का
अर्थ-पुद्गल द्रव्य की कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है जिससे जीव का जो केवलज्ञान स्वभाव है, वह भी विनष्ट हो जाता है।
जैसे एक मनुष्य को रोग हो गया और वह रोगजनित पीड़ा को सहन करने में असमर्थ है। अतः वह रोग को दूर करने के लिये इच्छापूर्वक औषधि का सेवन करता है किन्तु चाहता है कि इस औषधि से कब पिड छूटे अर्थात् हेय बुद्धि से रोग को दूर करने की इच्छा से औषधि का सेवन करता है।
उसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के कर्मोदयजनित रोग है जिसकी पीड़ा को वह सहन करने में असमर्थ है, अतः वह उस रोगजनित पीड़ा को दूर करने की इच्छा से बुद्धिपूर्वक विषय-भोग रूप औषधि का सेवन करता है किन्तु उसमें उसके हेय बुद्धि है अर्थात् निरन्तर इस प्रयत्न में रहता है कि किस प्रकार इन भोगों से छुटकारा पाऊँ (त्याग करू)|
जिसके विषय-त्याग रूपी संयम धारण करने की उत्सुकता नहीं है तथा जो संयमियों का आदर नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि है।
समाधान – निर्विकल्प समाधि में स्थित मुनियों के लिये तो पाप के समान पुण्य को हेय मानना उचित है, किन्तु श्रेणी आारोहण से पूर्व अवस्था वालों के लिए पुण्य हेय नहीं है। कहा भी है-
“तहिं ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवभिरिति ? भगवानाह-यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं त्रिगुप्ति- गुप्तवीतरागनिविकल्पपरमसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव । यदि पुनस्तयाविधामवस्थामलममाना अपि संतो गृहस्थावस्थायां दान-पूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्योभय-भ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् ।”
अर्थ- यहाँ पर शंका की गई कि यदि पुण्य पाप समान हैं, तो जो पुण्य पाप को समान मान कर बैठे हैं, उनको दूषण क्यों दिया जाता है ?आचार्य कहते हैं- शुद्धात्म-अनुभूति स्वरूप तीन गुप्ति से गुप्त वीतराग निविकल्प परम समाधि को पाकर ध्यान में मग्न हुए यदि पुण्य पाप को समान जानते हैं, तो उनका जानना योग्य है। परन्तु जो परम समाधि को न पाकर भी गृहस्थ अवस्था में दान-पूजा आदि को छोड़ देते हैं और मुनि पद में छह आवश्यक कर्मों को छोड़ देते हैं वे उभय अष्ट हैं। उनके पुण्य पाप को समान जान कर पुण्य को हेय मानना दोष ही है।
वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं ।छायातववट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ॥२५॥ श्री कुन्दकुंद कृत मोक्षपाहुड
अर्थ- व्रत और तप करि स्वर्ग होय है सो श्रेष्ठ है, बहुरि इतर जो अव्रत और अतप तिनिकरि प्राणी के नरकगति विषै दुःख होय है सो मति होहु श्रेष्ठ नाहीं (हेय है)। छाया और आतप के विषै तिष्ठने वाले के जे प्रतिपालक का कारण हैं तिनके बड़ा भेद है ( बहुत अंतर है)।यहाँ कहने का यह आशय है जो जेतै निर्वाण न होय तेतै व्रत तप आदिक (शुभ कार्यों में प्रवर्तना श्रेष्ठ है यातै सांसारिक सुख की प्राप्ति हो है और निर्वाण के साधन विषेें भी ये सहकारी हैं। विषय कषायादिक ( अशुभ कार्यों) की प्रवृत्ति का फल तो केवल नरकादिक के दुःख हैं सो तिन दुःखनि के कारणनिक्कू सेवना यह तो बड़ी भूल है, ऐसा जानना । अष्टपाहुड़ पृ० २९३ ।
श्री पूज्यपाद आचार्य ने इष्टोपदेश में भी कहा है-वरं वतेे पदं देेवं नाव्रतैर्वत नारकं।छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान् ॥ ३ ॥
अर्थ- व्रतों के द्वारा (शुभ भावों के द्वारा) देव पद (पुण्य) प्राप्त करना अच्छा है (उपादेय है) किन्तु आव्रतों (अशुभ) के द्वारा नरक पद (पाप) प्राप्त करना अच्छा नहीं (हेय है)। जैसे छाया और धूप में बैठने वाले में महान् अन्तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत (पुण्य) और अव्रत (पाप) के आचरण व पालन करने वालों में अन्तर पाया जाता है ।
श्री अकलंक देव ने अष्टशती में तथा भी विद्यानन्द आचार्य ने अष्टसहस्री में कारिका ८८ की टीका में परम पुण्य से मोक्ष लिखा है-
“मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात् ।”
अर्थ- मोक्ष भी होय है सो परम पुण्य का उदय अर चारित्र का विशेष आचरण रूप पौरुषतै होय है।पंचास्तिकाय गाथा ८५ की टीका में भी इसी बात को कहा गया है-
“यथा रागादिदोषरहितः शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरूपादानकारणं भव्यानां भवति तथा निदानरहितपरिणामोपार्जिततीर्थंकर- प्रकृत्युत्तमसंहननादिविशिष्टपुण्यरूप धर्मोपि सहकारिकारणं भवति ।”
अर्थ- जिस प्रकार रागादि दोष रचित शुद्धात्मानुभूति सहित निश्चयधर्म भव्य जीवों के यद्यपि सिद्ध गति का कारण है, उसी प्रकार निदान रहित परिणामों से बाँधा हुआ तीर्थंकर नाम कर्म-प्रकृति व उत्तम संहनन आदि विशेष पुण्य रूप कर्म अथवा शुभ धर्म भी सिद्धगति का सहकारी कारण है।
वर्तमान पंचमकाल भरत क्षेत्र में वीतरागनिर्विकल्प समाधि (श्रेणी) तो असंभव है। प्रतिदिन पाप रूप प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जिसका नाम सुनने मात्र से भोजन में साधारण गृहस्थ को अंतराय हो जाती थी, आज का जैन नवयुवक होटल तथा पार्टी में वे पदार्थ ही ग्रहण करता है। ऐसी दशा में पुण्य पाप को समान बतला कर पुण्य को हेय कहना कहाँ तक उचित है।
जिस प्रकार वर्तमान काल में अतदाकार स्थापना का उपदेश नहीं दिया जाता है, क्योंकि अतदाकार स्थापना के द्वारा श्रावकों की प्रवृत्ति, बिगड़ने की संभावना है; उसी प्रकार पुण्य और पाप को समान कहकर पुण्य को हेय बतलाना उचित नहीं है।
धर्म का स्वरूप पूछे जाने पर श्री मुनि महाराज ने चतुर्थ काल में भी भील को मांस का त्याग धर्म है, ऐसा उपदेश दिया था। निर्विकल्प समाधि धर्म है, ऐसा उपदेश भील को नहीं दिया गया था ।”हिसादिष्विहानुत्रापायावद्यदर्शनम् ।। दुःखमेव वा ।।”
इन सूत्रों द्वारा पाप को ही हेय बताया गया है। पुण्य को हेय नहीं बतलाया, क्योंकि यहाँ श्रावकों के लिए उपदेश था।
समाधन :- जैन धर्म में व्रत उपवास कर्म क्षय के लिये किये जाते है और यदि वहाँ तीर्थंकरों के कल्याणकों के दिवस पर किये जायें तो काल शुद्धि होने से विशेष फलदायी होते हैं । मोक्ष सप्तमी जो की प्रभु पार्श्वनाथ स्वामी का मोक्ष कल्याणक के दिन किया गया उपवास सभघ भव्य जीवों के लिये कर्म निर्जरा में कारण होता है । इसमें किसी भी प्रकार का स्त्री अथवा पुरुष का भेद नहीं है। जो लोक में इस दिन लड़कियों को विशेष रुप से उपवास करने के लिये प्रेरणा दी जाती है उसके पीछे ऐसी रूढी हैं कि ऐसा करने से लड़कियों को अच्छा पति मिलता है जब की जिनागम में ऐसा कोई उल्लेख नहीं आया है अतः हमें ऐसी रूढीओं को छोड़कर कर्म क्षय के लिये उपवास करना चाहिये ।