जैन साधू नग्न (दिगम्बर) क्यों रहते हैं?
“मनुष्य मात्र की आदर्श स्थिति दिगम्बर ही है। आदर्श मनुष्य सर्वथा निर्दोष होता है-विकारशून्य होता है।” – महात्मा गाँधी
“प्रकृति की पुकार पर जो लोग ध्यान नहीं देते, उन्हें तरह-तरह के रोग और दुख घेर लेते है, परन्तु पवित्र प्राकृतिक जीवन बिताने वाले जगल के प्राणी रोगमुक्त रहते है और मनुष्य के दुर्गुणो और पापाचारो से बचे रहते हैं।” -रिटर्न टु नेचर
दिगम्बरत्व प्रकृति का रूप है। वह प्रकृति का दिया हुआ मनुष्य का वेष है। आदम और हव्वा इसी रूप में रहे थे। दिशायें ही उनके अम्बर थे वस्त्रविन्यास उनका वही प्रकृतिदत्त नग्नत्व था। वह प्रकृति के अचल में सुख की नींद सोते और आनन्द रेलिया करते थे। इसलिये कहते हैं कि मनुष्य की आदर्श स्थिति दिगम्बर है। वह तो मनुष्य का प्राकृत रूप है।
ईसाई एवं मुसलिम मतानुसार आदम और हव्वा नंगे रहते हुए कभी न लजाये और न वे विकार के चंगुल में फसकर अपने सदाचार से हाथ धो बैठे। किन्तु जब उन्होने बुराई-भलाई, पाप-पुण्य का वर्जित फल खा लिया तो वे अपनी प्राकृत दशा को खो बैठे और उनकी सरलता जाती रही। वे संसार के साधारण प्राणी हो गये।
बच्चे को लीजिये, उसे कभी भी अपने नग्नत्व के कारण लज्जा का अनुभव नही होता और न उसके माता-पिता अथवा अन्य लोग ही उसकी नग्नता पर नाक-भौ सिकोडते हैं। प्रकृति भला कभी किसी जमाने मे बुरी हुई भी है?
तो फिर मनुष्य नंगेपन से क्यों झिझकता हैं?
क्यो आज लोग नंगा रहना सामाजिक मर्यादा के लिये अशिष्ट और घातक समझते हैं? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर है- “आज मनुष्य का नैतिक पतन चरम सीमा को पहुँच चुका है, वह पाप मे इतना सना हुआ है कि उसे मनुष्य की आर्दश स्थिति दिगम्बरत्व पर घृणा आती है। अपनेपन को गंवाकर पाप के पर्दे मे कपड़ो की आड़ लेना ही उसने श्रेष्ठ समझा है।”
किन्तु वह भूलता है, पर्दा पाप की जड़ है, वह गंदगी का ढेर है। जो जरा सी समझ या विवेक से काम लेना जानता है, वह गंदगी को नहीं अपना सकता और न ही अपनी आदर्श स्थिति दिगम्बरत्व से चिढ़ सकता है।
वस्त्रों का परिधान मनुष्य के लिए लाभदायक नहीं है और न वह आवश्यक ही है। प्रकृति ने प्राणीमात्र के शरीर का गठन इस प्रकार किया है कि यदि वह प्राकृत वेश में रहे तो उसका स्वास्थ्य नीरोग और श्रेष्ठ हो तथा उसका सदाचार भी उत्कृष्ट रहे।
जिन विद्वानों ने उन भील आदिको को अध्ययन की दृष्टि से देखा है, जो नंगे रहते हैं, वे इसी परिणाम पर पहुँचे है कि उन प्राकृत वेष में रहने वाले ‘जंगली’ लोगो का स्वास्थ्य शहरो में बसने वाले सभ्यताभिमानी ‘सज्जनों’ से लाख दर्जा अच्छा होता है, और आचार-विचार मे भी वे शहरवालो से बढ़े-चढ़े होते हैं। उनका यह कथन है भी ठीक, क्योकि प्रकृति की होड़ कृत्रिमता नहीं कर सकती।
“HAVING GIVEN SOME STUDY TO THE SUBJECT 1 MAY SAY THAT REV JF WILLAMSON’S REMARKS UPON THE SUPERNOR MORALITY OF THE RACES THAT DO NOT WEAR CLOTHES IS FULLY BORNE OUT BY THE TESTIMONY OF THE TRAVELLERS IT IS TRUE THAT WEARING OF CLOTHES GOES WITH A HIGHER STATE OF THE ARTS AND TO THAT EXTENT WITH CIVILISATION, BUT IT IS ON THE OTHER HAND ATTENDED BY A LOWER STATE OF HEALTH AND MORALITY SO THAT NO CLOTHED CWILISATION CAN EXPECT TO ATTAIN TO HIGH RANK -“DAILY NEWS, LONDON” OF 18TH APRIL, 1913
महात्मा गाँधी के निम्न शब्द भी इस विषय में दृष्टव्य हैं-
“वास्तव में देखा जाय तो कुदरत ने चर्म के रूप में मनुष्य को योग्य पोशाक पहनाई है। नग्न शरीर कुरूप दिखाई पड़ता है, ऐसा मानना हमारा भ्रम मात्र है।
उत्तम उत्तम सौन्दर्य के चित्र तो नग्न दशा में ही दिखाई पड़ते है। पोशाक से साधारण अंगो को ढककर हम मानो कुदरत के दोषों को दिखला रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे पास ज्यादा पैसे होते जाते हैं, वैसे ही वैसे हम सजावट बढ़ाते जाते हैं। कोई किसी भांति और कोई किसी भांति रूपवान बनना चाहते हैं और बन उन कर काँच मे मुँह देख प्रसन्न होते हैं कि ‘वाह। मैं कैसा खूबसूरत हूँ। बहुत दिनो के ऐसे ही अभ्यास से अगर हमारी दृष्टि खराब न हो गई हो तो हम तुरन्त देख सकेगे कि मनुष्य का उत्तम से उत्तम रूप उसकी नग्नावस्था में ही है और उसी में उसका आरोग्य है।” – { आरोग्य पृ. 57 }
नग्नता और सदाचार का अविनाभावी सम्बन्ध है। सदाचार के बिना नग्नता कौड़ी मोल की नहीं है। नंगा मन और नंगा तन ही मनुष्य की आदर्श स्थिति है। इसके विपरीत गन्दा मन और नंगा तन तो निरी पशुता है। उसे कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा?
लोगो का ख्याल है कि कपड़े पहनने से मनुष्य शिष्ट और सदाचारी रहता है। किन्तु बात वास्तव में इसके बरअक्स (विपरीत) है। कपड़े के सहारे तो मनुष्य अपने पाप और विकार को छुपा लेता है। दुर्गुणो और दुराचार का आगार बना रहकर भी वह कपड़े की ओट में पाखण्ड रूप बना सकता है, किन्तु दिगम्बर वेष में यह असम्भव है।
श्री शुक्राचार्य जी के कथानक से यह बिल्कुल स्पष्ट है-
शुक्राचार्य युवा थे, पर दिगम्बर वेष मे रहते थे। एक रोज वह वहाँ से जा निकले जहाँ तालाब में कई देव-कन्यायें नंगी होकर जल-क्रीड़ा कर रही थीं। उनके नंगे तन ने देव रमणियो में कुछ भी क्षोभ उत्पन्न न किया। वे जैसी की तैसी नहाती रहीं और शुक्राचार्य निकले अपनी धुन में चले गये। इस घटना के थोड़ी देर बाद शुक्राचार्य के पिता वहाँ आ निकले। उनको देखते ही देव-कन्यायें नहाना-धोना भूल गई। वे झटपट जल के बाहर निकलीं और उन्होंने अपने वस्त्र पहन लिये।
एक नंगे युवा को देखकर तो उन्हें ग्लानि और लज्जा न आई किन्तु एक वृद्ध शिष्ट से दिखते ‘सज्जन’ को देखकर वे लजा गई। भला इसका क्या कारण? यही न कि नंगा युवा अपने मन मे भी नंगा था। उसे विकार ने नहीं आ घेरा था। इसके विपरीत उसका वृद्ध और शिष्ट पिता विकार से रहित न था। वह अपने शिष्ट वेष में इस विकार को छिपाये रखने में सफल था। किन्तु दिगम्बर युवा के लिए वैसा करना असभव था। इसी कारण वह निर्विकारी और सदाचारी था।
अतः कहना होगा कि सदाचार की मात्रा नंगे रहने मे अधिक है। नंगापन दिगम्बरत्त्व का आभूषण है। विकार-भाव को जीते बिना ही कोई नंगा रहकर प्रशंसा नहीं पा सका। विकारी होना दिगम्बरत्व के लिए कलक है, न वह सुखी हो सकता है और न उसे विवेक-नेत्र मिल सकता है।
इसीलिये भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं-
णग्गो पावह दुक्खं णग्गो संसारसागरे भमई।
णग्गो ण लहई बोहिं, जिणभावणवज्जिओ सुदूर।।
भावार्थ- नंगा दुख पाता है, वह संसार सागर में भ्रमण करता है, उसे बोधि, विज्ञान दृष्टि प्राप्त नहीं होती, क्योंकि नंगा होते हुए भी वह जिन-भावना से दूर है। इसका मतलब यही है कि जिन भावना से युक्त नग्नता ही पूज्य है, उपयोगी है। और जिन-भावना से मतलब रागद्वेषादि विकार भावों को जीत लेना है।
इस प्रकार नंगा रहना उन्हीं के लिए उपादेय है जो रागद्वेषादि विकार-भावों को जीतने में लग गये हैं और प्रकृति के होकर प्राकृत वेष में रह रहे हैं।
संसार के पाप-पुण्य, बुराई-भलाई का जिन्हें भान तक नहीं है, वही दिगंबरत्व धारण करने का अधिकारी है और चूंकि सर्वसाधारण गृहस्थों के लिये इस परमोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेना सुगम नहीं है, इसलिये भारतीय ऋषियों ने इसका विधान गृहत्यागी साधुओं के लिये किया है। दिगम्बर मुनि ही दिगम्बरत्व को धारण करने के अधिकारी हैं।
जिन्हें विज्ञान दृष्टि नसीब हो जाती है, वही अभ्यास करके एक दिन निर्विकारी दिगम्बर मुनि के वेष में विचरते हुए दिखाई पडते हैं। उनको देखकर लोगों के मस्तक स्वयं झुक जाते हैं। वे प्रज्ञा-पुञ्ज और तपोधन लोक-कल्याण में निरत रहते हैं। स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, ऊंच-नीच, पशु-पक्षी सब ही प्राणी उनके दिव्य रूप में सुख-शान्ति का अनुभव करते हैं। भला प्रकृति प्यारी क्यों न हो? दिगम्बरत्व साधु प्रकृति के अनुरूप हैं। उनकर किसी से द्वेष नहीं, वे तो सबके हैं, और सब उनके हैं, वे सर्वप्रिय और सदाचार की मूर्ति होते हैं।