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जैन धर्म का संस्थापक कौन...... ? !!  Who is the founder of Jainism......? - Jain Article !!

जैन धर्म का संस्थापक कौन…… ?


भारत एक ऐसा देश है जहाँ की माटी को मात्र जल और हल से ही नहीं सींचा जाता बल्कि धार्मिक संस्कारों की संस्कृति से इसका अभिषेक किया जाता है | भारत के इतिहास  पर यदि दृस्टि डालें तो यहाँ की संस्कृति में धर्म का प्रारंभ से ही एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत विश्व की चार प्रमुख धार्मिक परम्पराओं का जन्मस्थान है – जैन धर्म, हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म तथा सिख धर्म। भारतीयों का एक विशाल बहुमत स्वयं को किसी न किसी धर्म से सम्बन्धित अवश्य बताता है।

भारत की जनसंख्या के 79.8% लोग हिन्दू धर्म का अनुसरण करते हैं। इस्लाम (15.23%), बौद्ध धर्म (0.70%), ईसाई पन्थ (2.3%) और सिख धर्म (1.72%), भारतीयों द्वारा अनुसरण किये जाने वाले अन्य प्रमुख धर्म हैं। भारत में जैन धर्म छटा सबसे बड़ा धर्म है और पूरे देश भर में प्रचलित है।

भारत की 1.028 अरब जनसंख्या में 42,00,000 लोग जैन धर्म के अनुयायी हैं, यद्यपि जैन धर्म का प्रसार बहुत दूर तक है जो जनसंख्या से कहीं अधिक है। भारत के केन्द्र शासित प्रदेशों एवं सभी राज्यों में से ३५ में से ३४ में जैन लोग हैं, केवल लक्षद्वीप एक मात्र केन्द्र शासित प्रदेश है जिसमें जैन धर्म नहीं है। झारखण्ड जैसे छोटे राज्य में भी 16,301 जैन धर्मावलम्बी हैं और वहाँ पर शिखरजी का पवित्र तीर्थस्थल है। 

जैन धर्म में  24 तीर्थंकर हुए हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यों में प्रचुर मात्रा में हैं। 
हम जैन हैं और हमें अपने जैन होने पर गर्व है, हमें अपनी संस्कृति और अपने तीर्थंकर भगवंतों के द्वारा दिखलाये गये सिद्धांतों पर गर्व है| हमनें विश्व में अहिंसा  का शंखनाद कर स्वयं को अहिंसा के पर्यायवाची स्तंभ के रूप में स्थापित किया इसका हमें गर्व है| यह गर्व हमारा अभिमान न होकर हमारा स्वाभिमान है|

आज-कल एक प्रश्न उठा करता है कि,

अहिंसा का दूसरा नाम कहे जाने वाले इस जैन धर्म की स्थापना किसने की? 
कौन था संस्थापक इस जैन धर्म का?
तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी या तीर्थंकर महावीर स्वामी?

अभी कुछ समय पूर्व मैं एक 8th क्लास के बच्चे की पुस्तक में विविध धर्मों का इतिहास देख रहा था उसमें जैन धर्म के इतिहास का भी एक स्वतंत्र chapter दिया हुआ था उसे देखकर अच्छा लगा देखा और साथ ही उसके प्रकाशक पर मुझे कुछ हँसी-सी भी आयी उसमें लिखा हुआ था कि भगवान महावीर स्वामी जैन धर्म के संस्थापक थे और उसी chapter में आगे लिखा हुआ था कि भगवान महावीर स्वामी जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर थे| 

अब मैं विचार करने लगा कि यदि भगवान महावीर स्वामी जैन धर्म के संस्थापक  थे तो इसका अर्थ हुआ कि जैन धर्म भगवान महावीर के जन्म के  पूर्व नहीं था और वह जैन धर्म भगवान महावीर स्वामी के द्वारा चलाया गया फिर उन्हें २४वां तीर्थंकर कैसे स्वीकार किया जा सकता है फिर तो उन्हें प्रथम तीर्थंकर स्वीकार किया जाना चाहिए और यदि आप उन्हें २४वां तीर्थंकर स्वीकार कर रहे हो तो इसका अर्थ हुआ उनके जन्म के पूर्व ही इस वसुंधरा पर जैन धर्म था| 

अब प्रश्न उठता है कि तो,

क्या जैन धर्म की स्थापन भगवान आदिनाथ स्वामी ने की? 
क्या भगवान आदिनाथ स्वामी जैन धर्म के संस्थापक थे क्योंकि निर्विवाद रूप से उन्हें  प्रथम तीर्थंकर स्वीकार किया गया है?
तो मैं आपको बता दूँ भगवान आदिनाथ स्वामी, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर, वे भी इस जैन धर्म के संस्थापक नहीं थेा 
क्या वे भी नहीं थे तो इस जैन धर्म की स्थापना किसने की? कौन था इस जैन धर्म का संस्थापक? जैन धर्म का प्रारंभ कब हुआ? 
जैन धर्म का प्रारंभ समझने से पूर्व आप २ शब्दों के अर्थ को समझलें| आपने २ शब्द सुने होंगे – १. संस्थापक २. प्रवर्तक| 
क्या अंतर होता है संस्थापक और प्रवर्तक में? 

संस्थापक का अर्थ होता है ” स्थापित करने वाला “ और प्रवर्तक का अर्थ होता है ” प्रवर्तन करने वाला/ पूर्व से चले आ रहे किसी कार्य या विचारधारा को आगे बढ़ाने वाला “| 

जैन धर्म में कोई भी तीर्थंकर संस्थापक नहीं होते प्रवर्तक होते हैं| यदि हम किसी भी तीर्थंकर को जैन धर्म का संस्थापक मानलेंगे तो फिर हम जैन धर्म को अनादि-अनिधन कैसे कह पायेंगे? क्योंकि संस्थापक मानने का अर्थ हुआ कि जैन धर्म उन तीर्थंकर भगवंत से पूर्व इस वसुंधरा पर था ही नहीं उन्हीं तीर्थंकर भगवंत ने आकर इस जैन धर्म को चलाया है, पर ऐसा जैन सिद्धांत नहीं कहता| जैन सिद्धांत यह कहता है जैसे इस धरती का कोई आदि और अंत बिंदु नहीं हैं वैसे ही जैन धर्म का भी कोई आदि और अंत बिंदु नहीं है| 

इस पवित्र जैन धर्म को प्राप्तकर भव्य जीव सर्वप्रथम अपनी आत्मा को श्रावक धर्म के संस्कारों से संस्कारित करते हैं पीछे वही भव्य जीव श्रमण धर्म को स्वीकार करते हुए आत्मध्यान की चरम सीमा को प्राप्त करते हैं. अपने ज्ञानावरणादि कर्मों को नाशकर अरिहंत / तीर्थंकर बनते हैं और फिर वे ही अन्य भव्य जीवों के पुण्य के ज़ोर से सहज भाव से धर्म का उपदेश दिया करते हैं और जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परंपरा अनवरत रूप से चली आ रही है उसी प्रकार जैन धर्म का प्रवर्तन अनवरत रूप से इस वसुंधरा पर होता रहता है| 

तो फिर भगवान आदिनाथ को प्रथम तीर्थंकर क्यों कहा जाता है? 

जैन धर्म में काल भेद का कथन किया गया है, जो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के भेद से २ प्रकार का है| ये दोनों काल इस वसुंधरा पर दिन-रात की तरह ही सतत प्रवर्तमान होते रहते हैं  वर्तमान में अवसर्पिणी काल प्रवर्तमान हो रहा है, इस काल में जिन्होंने सर्वप्रथम श्रमण दीक्षा को स्वीकार कर सर्वप्रथम अरिहंत अवस्था को प्राप्त किया तदुपरांत अनादि से चले आरहे एवं काल के प्रभाव से विस्मृत हुए  जैन धर्म का पुनः प्रवर्तन किया ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवंत हुए ” तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी” और ऐसे ही क्रम-क्रम से २२ तीर्थंकर और हुए उसके बाद आज से लगभग २५४९ वर्ष पूर्व इस वसुंधरा पर जन्म हुआ था ” तीर्थंकर महावीर स्वामी” का| जो इस अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर के रूप में कुण्डलपुर में जन्में थे| अब उनके बाद इस अवसर्पिणी काल में अन्य किसी तीर्थंकर का जन्म नहीं होगा| लेकिन जब पुनः उत्सर्पिणी काल आयेगा तब इस काल की तरह ही उसमें भी ऐसे २४ भव्य जीव जन्म लेंगे जो तीर्थंकर हो पुनः इस वसुंधरा पर जैन धर्म का प्रवर्तन करेंगे| और वे  भी तब  प्रवर्तक कहलायेंगे संस्थापक नहीं|


आचार्य भगवान श्री विमर्श सागर जी का लघु शिष्य 
– श्रमण विव्रत सागर 
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