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विकलांग सम्यग्दर्शन

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प्रसंग पटनाबुजुर्ग का है, 

गुरुवर जब दोपहर में छहढाला ग्रंथ पढ़ाते और समझाते थे जिसे भक्तगण तो सुनते ही थे, समीप ही स्थित स्कूल में बैठे लोग भी सुनते थे। उस स्कूल में एक शिक्षक जैन था, जो मुनि विरोधी था, पर आगम का किंचित अध्ययन भी था, अतः वह गुरुवर के प्रवचन विशेष ध्यान से सुनता था।
एक दिन गुरुवर सम्यग्दर्शन पर बोलते हुए उसका गुणगान कर रहे थे, उस क्रम में उन्होंने कहा “ध्यान रखना मैं सम्यग्दर्शन की बात कर रहा हूँ, विकलांग सम्यग्दर्शन की नहीं, क्योंकि विकलांग सम्यग्दर्शन मुक्ति का दिलानेवाला और संसार का नाशक नहीं होता।”
शिक्षक ने वाक्य सुना तो पशोपेश में पड़ गया। जब वह शाम को कुछ युवकों के साथ घूमने गया तो उनसे गुरुवर की चर्चा करते हुए बोला- ‘मैं आजकल के महाराजों के पास इसलिए नहीं जाता हूँ, आजकल तो जिसे जो बोलना होता है, बोल देता है, देखो, आज तुम्हारे महाराज ने अमुक वाक्य गलत बोला है। मैं कई वर्ष से स्वाध्याय कर रहा हूँ, सम्यग्दर्शन के भेद भी पढ़े हैं, मगर विकलांग सम्यग्दर्शन कहीं नहीं पढ़ने मिला।’
युवकों को शास्त्रीय ज्ञान की जानकारी नहीं थी अतः वे शिक्षक से बोले- ‘हम महाराज से पूछेंगे।’
युवक रात में ही गुरुवर के पास जा पहुँचे और शिक्षक के वाक्य दुहराए। तब उन्होंने संकेत किया कि अभी मौन हैं कल बतलाऊँगा।
दूसरे दिन सभी युवक सुबह-सुबह मुनिवर के समक्ष जा पहुँचे। तब गुरुवर ने उनसे पूछा- “जिस व्यक्ति का अंगभंग हो जाता है, उसे क्या कहते हैं?”
युवकों ने कहा- “विकलांग”
गुरुदेव- “सम्यग्दर्शन के आठ अंग होते हैं यदि उनमें से एक अंग कम हो जावे तो वह ‘विकलांग सम्यग्दर्शन नहीं कहलाएगा ?”
‘जी कहलाएगा’।
“तो फिर मैंने क्या गलत कहा था ?”
‘महाराज हम लोग समझ गए, वह शिक्षक ही गलत बोल रहा था, कभी मौका पड़ा तो उसे भी समझा देंगे।’
तब गुरुवर ने कहा- “समझाना क्या, उन महोदय को तो रत्नकण्डक श्रावकाचार की यह गाथा पढ़ने के लिए देना-

नांगहीन मलं छेत्तु दर्शनं जन्म संतितम् ।
न हि मन्त्रक्षरन्यूनो निहंति विष वेदनाम् ।।

इसका अर्थ हुआ अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्म-मरण की परम्परा को छेदने में समर्थ नहीं है, जिस प्रकार अक्षरहीन मंत्र विष की वेदना को नष्ट करने में समर्थ नहीं होता।”
युवकों ने प्रमाणित उत्तर प्राप्तकर अपने पास रख लिया और जब वह जैन शिक्षक मिला तो उसे पढ़ने के लिए दे दिया। प्रमाणित उत्तर पढ़कर शिक्षक के नेत्र खुल गए।

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