त्याग की अनुमोदना की
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राकेश भैया उस समय 17 वर्ष के थे, एक मुनिराज श्री श्रुतसागर जी का नगर में आगमन हुआ, काफी वृद्ध थे, जतारा में साधु-संत कम ही आते थे अतः समाज में उत्साह बढ़ गया। राकेश उनकी आहारचर्या के समय जाते थे और दर्शन कर लौट आते थे।
एक बार ऐलक दयासागर जी का आगमन हुआ। वे आचार्य शिरोमणि श्री विद्यासागर जी के शिष्य थे। राकेश का मन पढ़ाई में रहता था अतः कम ही जा पाते थे। एक दिन माँ ने कहा- ‘बेटा महाराज के लिए घर पर चौका लगाना है अतः तुम पड़गाहन के लिए खड़े होना।’ दूसरे दिन सनतजी और राजेशजी के साथ-साथ राकेश भैया भी धवल-धोती-दुपट्टा पहनकर हाथों में मांगलिक द्रव्य ले पड़गाहन करने पहुँचे। करीब चार दिन बाद ऐलक जी का पड़गाहन हो सका। ऐलकजी का आहार उसी कक्ष में हुआ जिसमें राकेश अध्ययन करते थे। सभी के साथ राकेश ने भी आहार दिया और निरंतराय आहार की भावना भाते रहे, मगर तभी किसी ने जल दिया और ऐलक जी का अंतराय हो गया। राकेश दुखी हो पड़े, फिर ऐलक जी को पहुँचाने उनका कमंडलु लेकर वसतिका तक गए।
लौटे तो माँ ने भोजन परोसा। राकेश दुखी तो थे ही, अतः भोजन लेने का प्रगाढ़ भाव नहीं हुआ, फिर भी माँ का मन रखने थोड़ा सा भोजन ले लिया। मगर पारिवारिक सदस्य समझे यह आलू की सब्जी के बगैर भोजन नहीं करता, अतः लौकी की सब्जी पसंद नहीं आ रही होगी। राकेश के मन में तो कुछ और ही था तभी तो ऐलक जी वाला बिना नमक का भोजन शांतिपूर्वक ग्रहण कर लिया और उनके त्याग की अनुमोदना की।