जैन तीर्थंकर श्री शीतलनाथ स्वामी- जीवन परिचय|
Jain Tirthankar Shri Shitalanatha Swami- Life Introduction|
श्री शीतलनाथ भगवान
शीतलनाथ भगवान का परिचय | |
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पिछले | भगवान पुष्पदन्तनाथ |
अगले | भगवान श्रेयांसनाथ |
चिन्ह | श्रीवृक्ष (कल्पवृक्ष) |
पिता | महाराजा दृढ़रथ |
माता | महारानी सुनन्दा |
वंश | इक्ष्वाकु |
वर्ण | क्षत्रिय |
अवगाहना | 90 धनुष (तीन सौ साठ हाथ) |
देहवर्ण | तप्त स्वर्ण सदृश |
आयु | 100,000 पूर्व वर्ष (7.056 Quintillion years) |
वृक्ष | सहेतुक वन एवं बेलवृक्ष |
प्रथम आहार | अरिष्ट नगर के राजा पुनर्वसु द्वारा (खीर) |
पंचकल्याणक तिथियां | |
गर्भ | चैत्र कृ. ८ |
जन्म | माघ कृ. १२ भद्रपुरी |
दीक्षा | माघ कृ. १२ |
केवलज्ञान | पौष कृ. १४ |
मोक्ष | आश्विन शु. ८ सम्मेद शिखर |
समवशरण | |
गणधर | श्री अनगार आदि ८१ |
मुनि | एक लाख |
गणिनी | आर्यिका धरणा |
आर्यिका | तीन लाख अस्सी हजार |
श्रावक | दो लाख |
श्राविका | तीन लाख |
यक्ष | ब्रह्मेश्वर देव |
यक्षी | मानवी देवी |
परिचय
पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध भाग में मेरू पर्वत के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर ‘वत्स’ नाम का एक देश है, उसके सुसीमा नगर में पद्मगुल्म नाम का राजा रहता था। किसी समय बसन्त ऋतु की शोभा समाप्त होने के बाद राजा को वैराग्य हो गया और आनन्द नामक मुनिराज के पास दीक्षा लेकर विपाकसूत्र तक अंगों का अध्ययन किया, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके आरण नामक स्वर्ग में इन्द्र हो गया।
गर्भ और जन्म
इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मलयदेश के भद्रपुर नगर का स्वामी दृढ़रथ राज्य करता था, उसकी महारानी का नाम सुनन्दा था। रानी सुनन्दा ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन उस आरणेन्द्र को गर्भ में धारण किया एवं माघ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शीतलनाथ को जन्म दिया।
तप
भगवान ने किसी समय वन विहार करते हुए क्षणभर में पाले के समूह (कुहरा) को नष्ट हुआ देखकर राज्यभार अपने पुत्र को सौंपकर देवों द्वारा लाई गई ‘शुक्रप्रभा’ नाम की पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में पहुँचे और माघ कृष्ण द्वादशी के दिन स्वयं दीक्षित हो गये। अरिष्ट नगर के पुनर्वसु राजा ने उन्हें प्रथम खीर का आहार दिया था।
केवलज्ञान और मोक्ष
अनन्तर छद्मस्थ अवस्था के तीन वर्ष बिताकर पौष कृष्ण चतुर्दशी के दिन बेल वृक्ष के नीचे केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। अन्त में सम्मेदशिखर पहुँचकर एक माह का योग निरोध कर आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन कर्म शत्रुओं को नष्ट कर मुक्तिपद को प्राप्त हो गये।