जैन तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी- जीवन परिचय|
Jain Tirthankar Shri Mahaveer Swami- Life Introduction|
महावीर भगवान का परिचय | |
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अन्य नाम | वीर, अतिवीर, वर्धमान, सन्मति, |
चिन्ह | सिंह |
पिता | महाराजा सिद्दार्थ |
माता | महारानी त्रिशला |
वंश | नाथवंश |
वर्ण | क्षत्रिय |
अवगाहना | 7 हाथ |
देहवर्ण | तपे हुए स्वर्ण के समान |
आयु | 72 वर्ष |
वृक्ष | ऋजुकूला नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे |
प्रथम आहार | कूल ग्राम के राजा वकुल द्वारा (खीर) |
पंचकल्याणक तिथियां | |
गर्भ | आषाढ़ शुक्ला ६ कुण्डलपुर, नालंदा, बिहार |
जन्म | चैत्र शुक्ला त्रयोदशी कुण्डलपुर, नालंदा, बिहार |
दीक्षा | मगसिर कृष्णा १० |
केवलज्ञान | वैशाख शुक्ला १० |
मोक्ष | कार्तिक कृष्णा अमावस्या` पद्म सरोवर, पावापुर |
समवशरण | |
गणधर | श्री इन्द्रभूति आदि 11 गणधर |
मुनि | 14000_place = |
गणिनी | चंदना |
आर्यिका | 36000 |
श्रावक | 100000 |
श्राविका | 300000 |
यक्ष | मातंग देव |
यक्षी | सिद्धायिनी देवी |
प्रस्तावना-
जैन धर्म अनादिनिधन धर्म है, जिसमें अनादिकाल से तीर्थंकरों की उत्पत्ति होना और उनके द्वारा धर्मोपदेश के माध्यम से भावी जीवों का कल्याण होता रहा है। हर काल के चौथे काल में 24 तीर्थंकरों की उत्पत्ति होती आ रही हैं इसी श्रृंखला में वर्तमान हंडाअवसर्पिणी काल के कर्म युग चतुर्थ काल में 24 तीर्थंकर हुए । प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती हुए जिनकी अनंतमति नामक रानी से मरीचि नामक पुत्र हुआ।
जब भगवान ऋषभदेव को वैराग्य हुआ और उन्होंने दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर ली तब देखा देखी में चार हजार राजाओं के साथ मरीचि ने भी दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर ली।
प्रथम भाग:-
पतन का प्रारम्भ भूख प्यास की बाधा न सहन करने के कारण चार हजार राजाओं के साथ मरीचि मुनि भी भ्रष्ट हो गए। और वे सभी तालाबों से पानी पीने लगे, जंगलों में कंद मूल फल आदि खाने लगे। तब वन देवता ने प्रकट होकर कहा यदि तुम लोग मुनि भेष में रहकर यह अनाचार करोगे तो हम तुम्हें दंडित करेंगे । देवता के वचन सुनकर मरीचि ने वृक्षों के बल्कल पहन कर दिगम्बर वेश को छोड़ दिया और मनमानी प्रवृति करने लगा तथा उपदेश देकर एक अन्य झूठा मत खड़ा कर दिया। जब भगवान आदिनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, तब उन्होंने समवसरण के मध्य में विराजमान होकर दिव्य उपदेश दिया जिसे सुनकर चार हजार राजाओं में से प्रायः साधु पुनः जैन धर्म को समझकर सच्चे मुनि बन गए । किन्तु मरीचि ने अपना हट नहीं छोड़ा और कहने लगा की जिस तरह आदिनाथ ने अपना मत चलाकर ईश्वर पदवी प्राप्त की है उसी तरह मैं भी अपना मत चला कर ईश्वर पद प्राप्त करूंगा।
इस तरह वह कंद मूल का भक्षण करता हुआ, नदी तालाबों में स्नान करता हुआ, वृक्षों के बल्कल को पहनता हुआ और मनगढंत अपने मत का प्रचार-प्रसार करता हुआ घूमता रहा और आयु के अंत में शांत परिणामों से मरकर पांचवे स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से मरकर साकेत नगर के कपिल ब्राह्मण की काली नामक स्त्री से जटिल नामका पुत्र हुआ। जब वह बड़ा हुआ तब वह साधू का भेष धारण करके मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से मरकर भरत क्षेत्र के स्थूणागार नगर में भारद्वाज के घर में पुष्पदत्ता से पुष्पमित्र नाम का पुत्र हुआ और मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
आयु पूर्ण कर वहाँ से मरण प्राप्त करके जंबूद्वीप भरत क्षेत्र के सूतिका नगर में अग्निभूति की गौतमी स्त्री से अग्निसह नाम का पुत्र हुआ । पुनः मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। आयु पूर्ण करके भरतक्षेत्र के मंदिर नामक नगर में गौतम नामक व्यक्ति की कौशांबी नामक स्त्री से अग्निमित्र नामक पुत्र हुआ और जीवन भर मनगढंत मत का प्रचार-प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर माहेंद्र स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया तथा वहाँ से मरण करके उसी मंदिर नगर में सालंकायन के घर में मंदिरा नामक भार्या से भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ। वहाँ पर उसने त्रिदण्ड लेकर मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ।
वहाँ से मरण कर मनुष्य तथा त्रस, स्थावर आदि अनेक योनियों में घूम-घूम कर दुख भोगता रहा। तत्पश्चात मगध (बिहार) देश के राजगृह नगर में स्थावर नाम से प्रसिद्ध हुआ और अन्य मतों का जानकार होता हुआ सम्यकदर्शन के बिना वह मिथ्या मत का प्रचार करता रहा तथा शांत भाव से मर कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ । आयु पूर्ण कर राजगृह नगर में विश्वभूति राजा की जैनी नामक महारानी से विश्वनंदी नाम का पुत्र हुआ । जो बहुत सूरवीर था । राजा विश्वभूति के छोटे भाई का नाम विशाखभूति था उसकी स्त्री लक्ष्मणा से विशाखनन्द नाम का पुत्र हुआ था । जो बुद्धिमान नहीं था । यह परिवार जैन धर्म में बहुत रुचि रखता था । मरीचि का जीव विश्वनंदी भी जैन धर्म में आस्था रखता था ।
एक दिन राजा विश्वभूति शरद ऋतु के भंगुर (नाशशील) बादल देखकर दिगंबर मुनि हो गये। और अपना राज्य छोटे भाई विशाखभूति को दे गए तथा अपने पुत्र विश्वनंदी को युवराज बना गए । एक दिन युवराज विश्वनंदी अपने मित्रों के साथ राज उद्यान में क्रीडा कर रहा था इतने में वहाँ से चचेरा भाई विशाखनंद गुजरा । राज उद्यान की शोभा देख कर उसका मन ललचा गया । उसने झट से अपने पिता से कहा की आपने जो उद्यान विश्वनंदी को दे रखा है, वो मुझे दीजिये नही तो मैं घर छोड़ कर परदेश को भाग जाऊंगा । तब राजा विशाखभूति पुत्र मोह में पडकर बोला “बेटा यह कौनसी बड़ी बात है, मैं अभी तुम्हारे लिए वह उझ्यान दिये देता हूँ।” ऐसा कह कर उसने युवराज विश्वनंदी को अपने पास बुला कर कहा “मुझे कुछ आतताईयों को रोकने के लिए पर्वतीय प्रदेशों में जाना है सो जब तक मैं लोट कर वापस ना आऊँ तब तक राज कार्यों की देखभाल करना ।” काका के वचन सुन कर भोले विश्वनंदी ने कहा “नहीं आप यहीं पर सुख से रहिए, मैं पर्वतीय प्रदेशों मे जाकर उपद्रवियों को नष्ट किए आता हूँ” राजा ने विश्वनंदी को कुछ सेना के साथ पर्वतीय प्रदेशों में भेज दिया और उसके अभाव में उसका बगीचा अपने पुत्र को दे दिया।
जब विश्वनंदी को राजा के इस कपट का पता चला तब वह बीच से ही लौट कर वापस चला आया और विशाखनंद को मारने के लिए उद्योग करने लगा । विशाखनंद भी उसके भय से भाग कर एक कैंथ के पेड़ पर चढ़ गया परंतु कुमार विश्वनंदी ने उसे मारने के लिए वह कैंथ का पेड़ ही उखाड़ डाला। तदनंतर वह भाग कर एक पत्थर के खंभे में जा छिपा । परंतु विश्वनंदी ने अपनी कलाई की चोट से उस खंभे को भी तोड़ डाला जिस से वह वहाँ से भागा। उसे भागता हुआ देख कर युवराज विश्वनंदी को दया आ गयी । उसने कहा “भाई मत भागो, तुम खुशी से मेरे बगीचे में क्रीडा करो, अब मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है, अब मुझे जंगल के सूखे कंटीले झाड-झंखाड़ ही अच्छे लगेंगे ऐसा कह कर उसने संसार की कपट भारी अवस्था का विचार करके संभूत नामक मुनिराज के पास जिन दीक्षा ले ली।
इस घटना से राजा विशाखभूति को भी बहुत पश्चाताप हुआ उसने मन में सोचा मैंने व्यर्थ ही पुत्र मोह में आकर साधु स्वभावी विश्वनंदी के साथ कपट किया है। सच पूछो तो यह राज्य भी उसी का है। ऐसा विचार कर उसे वैराग्य हो गया और विशाखभूति ने अपना राज्य विशाखनंदी को देकर जिन दिक्षा ले ली। राज्य पाकर विशाखनंदी मदोन्मत्त होगया दुराचार करने लगा । प्रजा ने दुखी होकर उसे राजगद्दी से च्युत कर देश से बाहर निकाल दिया । विशाखनंदी वह से भटकता हुआ एक राजा के यहाँ नौकरी करने लगा।
एक बार वह राजा के कार्य से मथुरा नगरी गया वहाँ पर एक वेश्या के घर की छत पर बेठा हुआ था तब मुनिराज विश्वनंदी कठोर तपस्या करते हुए कृशकाय हो गए थे और उसी समय मथुरा नगरी में पहुंचे और आहार की इच्छा से मथुरा नगरी की गलियों में घूमते हुए वेश्या के मकान के नीचे से निकले तभी असाता कर्म के उदय से मुनिराज विश्वनंदी को एक नवप्रसूता गाय ने धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। उन्हें गिरा हुआ देख छत पर से विशाखनंदी ने हंसते हुए कहा “कलाई की चोट से पत्थर के खंभे को गिरा देने वाला तुम्हारा वह बल आज कहाँ गया ?” उसके वचन सुनकर विश्वनंदी मुनिराज को कुछ क्रोध आगया, उन्होने लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा “ तुझे इस हंसी का फल अवश्य मिलेगा” और वन की ओर चले गए। आयु के अंत में मुनिराज ने निदान बंध कर सन्यासपूर्वक शरीर छोड़ा और महाशुक्र नामक स्वर्ग में देव हुए। और मुनिराज विशाखभूति आयु के अंत में समता भावों से मरकर उसी स्वर्ग में देव हुए। दोनों देवों में बहुत अधिक स्नेह था । वहाँ से आयु पूर्ण कर विशाखभूति का जीव जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में सुरम्य देश के पोदानपुर नगर के राजा प्रजापति की जयावती रानी का विजय नामक पुत्र हुआ। और विश्वनंदी का जीव उसी राजा की दूसरी रानी मृगावती का त्रिपृष्ठ नामका पुत्र हुआ । पूर्व भव के संस्कार से इन दोनों में बड़ा भारी स्नेह था । विजय बलभद्र पदवी का धारक हुआ और त्रिपृष्ठ नारायण पदवी का धारक हुआ।
मुनि निंदा के कारण विशाखनंदी का जीव अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलका नगरी के राजा मयूरग्रीव की नीलांजना रानी से अश्वग्रीव नाम का पुत्र हुआ। वह बचपन से ही उदंड प्रकृति का था बड़ा होने पर उसकी उइंडता का पार नहीं रहा । पूर्व पुण्य के प्रभाव से उसको चक्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसके बल पर वह तीन खंड का अधिपति बन गया । किसी कारणवश त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीव में युद्ध हुआ और अश्वग्रीव ने क्रोधित होकर त्रिपृष्ठ पर चक्र चला दिया किन्तु चक्ररत्न तीन प्रदक्षिणा देकर त्रिपृष्ठ के हाथ में आ गया तब उसी चक्र रत्न के प्रहार से अश्वग्रीव को मार गिराया और त्रिपृष्ठ तीन खंडो का अधिपति बन गया । अत्यधिक विषयभोग और निदानबंध से त्रिपृष्ठ ने आर्तध्यान के करण सातवें नरक का नारकी हुआ । वहाँ के भयंकर दुख 33 सागर तक भोगता रहा । वहाँ से निकाल कर जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में गंगा नदी के किनारे सिंहगिरी पर्वत पर सिंह हुआ । पाप के कारण पुनः नरक गया ।
द्वितीय भाग :- उद्धार का प्रारम्भ
पुनः नरक से आयु पूर्ण कर जंबूद्वीप में सिंहकूट के पूर्व की ओर हिमवान पर्वत के शिखर पर पुनः सिंह हुआ और एक दिन वह मृग का शिकार करके खा रहा था तभी करुणाधारी चारणरिद्धीधारी मुनि अजितञ्जय और अमितगुण नाम के मुनिराज निकले। सिंह को देखते ही उन्हें तीर्थंकर वचनों का स्मरण हो आया वे समवसरण में सुनकर आए थे की हिमकूट पर्वत पर सिंह दसवें भव में महावीर नाम का तीर्थंकर होगा। अजितञ्जय मुनिराज ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा उसे झटसे पहचान लिया। उक्त दोनों मुनिराज आकाशसे उतर कर सिंहके सामने एक शिलापर ! बैठ गये। सिंह भी चुपचाप वहीं पर बैठा रहा। कुछ देर बाद अजितञ्जय मुनिराजने उस सिंहको सारगर्भित शब्दोंमें समझाया-‘अय मृगराज ! तुम इस तरह प्रतिदिन निर्बल प्राणियोंको क्यों मारा करते हो ? इस पापके फलसे ही तुमने अनेक बार कुयोनियोंमें दुःख उठाये हैं’–इत्यादि कहते हुए उन्होंने उसके पहलेके समस्त भव कह सुनाये। मुनिराजके वचन सुन कर सिंहको भी जातिस्मरण हो गया जिससे उसकी आंखोंके सामने पहलेके समस्त भव प्रत्यक्ष झलकने लगे। उसे अपने दुष्कार्यों पर इतना अधिक पश्चाताप हुआ कि उसकी आंखोंसे आंसुओंकी धारा बह निकली। मुनिराजने फिर उसे शान्त करते हुए कहा-तुम आजसे अहिंसा व्रतका पालन करो। तुम इस भवसे दशवें भवमें जगत्पूज्य वर्द्धमान तीर्थंकर होगे। मुनिराजके उपदेशसे वनराज सिंहने सन्यास धारण किया और विशुद्ध-चित्त होकर आत्म-ध्यान किया। जिससे वह मर कर सौधर्म स्वर्गमें सिंहकेतु नामका देव हुआ। मुनि-युगल भा अपना कर्तव्य पूरा कर आकाश मार्गसे विहार कर गये। सिंहकेतु दो सागर तक स्वर्गके सख भोगनेके बाद धातकी खण्ड द्वीपके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेहक्षेत्रमें मंगलावती देशके विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें कनकप्रभ नगरके राजा कनकपुंख्य और उनकी महारानी कनकमालाके कनकोज्वल नामका पुत्र हुआ। बड़े होने पर उसका राजकुमारी कनकवतीके साथ विवाह हुआ। एक दिन वह अपनी स्वीके साथ मंदराचल पर्वत पर क्रीड़ा करनेके लिये गया था। वहां पर उसे प्रियमित्र नामके अवधिज्ञानी मनिराज मिले। कनकोज्वलने प्रदक्षिणा देकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और फिर धर्मका स्वरूप पूछा। उत्तरमें प्रियमित्र महाराजने कहा कि
धर्मो दयामयो धर्मे श्रयधर्मेण नायसे, मुक्तिधर्मण कर्माणि हन्ता धर्माय सन्मतिम् ।
देहि भापेहिधर्मात्त्वं याहिधर्मस्यभृत्यताम्,धर्मतिष्ठ चिरंधर्मपाहिमामिति चिंतय॥
-आचार्य गुणभद्र
अर्थात्-धर्म दयामय है, तुम धर्मका आश्रय करो, धर्मसे ही मुक्ति प्राप्त होती है, धर्मके लिये उत्तम बुद्धि लगाओ, धर्मसे विमुख मत होवो, धर्मके भृत्य ( दास) बन जाओ, धममें लीन रहो और हे धर्म ! हमेशा मेरी रक्षा करो इस तरह चिन्तवन करो।
मुनिराजके वचन सुन कर उसके हृदयमें वैराग्य-रस समा गया। जिससे उसने कुछ समय बाद हा जिन-दीक्षा लेकर सब पग्ग्रिहोंका परित्याग कर दिया। अन्तमें वह सन्यासपूर्वक शरीर छोड़ कर सातव कल्पस्वर्गमें देव हुआ। लगातार तेरह सागर तक स्वर्गके सुख भोग कर वह वहांसे च्युत हुआ और जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रके कौशण देशमें साकेत नगरके स्वामी राजा वज्रसेनकी रानी शीलवतीके हरिषेण नामका पुत्र हुआ। हरिषेणने अपने बाहबलसे विशाल राज-लक्ष्मीका उपभोग किया था और अन्त समय में उस विशाल राज्यको जीर्ण तृणके समान छाड़ कर श्रुतसागर मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ले ली तथा उग्र तपस्याएं की। उनके प्रभावसे वह महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ। वहां उसकी आयु सोलह सागर प्रमाण थी। आयुके अन्तमें स्वर्ग वसुन्धरासे सम्बन्ध तोड़ कर वह धातकीखण्डके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेहक्षेत्रके पुष्कलावली देशकी पुण्डरीकिणी नगरीमें वहांके राजा सुमित्र और उनकी सुत्रता रानीसे प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ। सुमित्र चक्रवर्ती था—उसने अपने पुरुषार्थसे छः खण्डोंको वशमें कर लिया था। किसी समय उसने क्षेमंकर जिनेन्द्रके मुखसे संसारका स्वरूप सुना और विषय-वासनाओंसे विरक्त होकर जिन-दीक्षा धारण कर ली। अन्तमें समाधिपूर्वक मर कर बारहवें सहस्रार स्वर्गमें सूर्यप्रभ देव हआ। वहां वह अठारह सागर तक यथेष्ठ सुख भागता रहा। फिर आयुके अन्तमें वहांसे च्युत होकर जम्बूद्वीपके क्षेत्रपुर नगरमें राजा नन्दवर्धनकी रानी वीरवतीसे नन्द नामका पुत्र हआ। वह बचपन से ही धर्मात्मा और न्यायप्रिय था। कुछ समय तक राज्य भोगनेके बाद उसने किन्हीं प्रोष्टिल नामक मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ले ली। मुनिराज नन्दने गुरु-चरणोंकी सेवा कर ग्यारह अंगोंका ज्ञान प्राप्त किया और दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृतिका बन्ध किया। फिर आयुके अन्तमें आराधना पूर्वक शरीर त्यागकर सोलहवें अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें इन्द्र हुआ। वहां पर उसकी बाईस सागर प्रमाण आयु थी। तीन हाथका शरीर था, शुक्ल लेश्या थी। वह बाईस हजार वर्षमें एक बार मानसिक आहार ग्रहण करता और बाईस पक्षके बाद एक बार श्वासोच्छ्वास लेता था। पाठकोंको यह जानकर हर्ष होगा कि यही इन्द्र आगे चलकर वर्द्धमान तीर्थंकर होगा-भगवान महावीर होगा। कहां और कब ? सो सुनिये
वर्तमान परिचय-
भगवान् पार्श्वनाथके मोक्ष चले जानेके कुछ समय बाद यहां भारतवर्षमें अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हो गये थे। उस समय कितने ही मनुष्य स्वर्ग प्राप्तिके लोभसे जीवित पशुओंको यज्ञकी बलि-वेदियों में होम देते थे। कितने ही बौद्धधर्मकी क्षणिक वादिताको अपनाकर दुःखी हो रहे थे। और कितने ही लोग सांख्य नैयायिक तथा वेदान्तियोंके प्रपंचमें पड़कर आत्महितसे कोसों दूर भाग रहे थे। उस समय लोगोंके दिलोंपर धर्मका भूत बुरी तरहसे चढ़ा हुआ था। जिसे भी देखो वही हरएक व्यक्तिको अपनी ओर-अपने धर्मकी ओर खींचने की कोशिश करता हुआ नजर आता था। उद्दण्ड धर्माचार्य धर्मकी ओटमें अपना स्वार्थ गांठते थे। मिथ्यात्व यामिनीका घना तिमिर सब ओर फैला हुआ था। उसमें दुष्ट उल्लक भयंकर घूत्कार करते हुए इधर-उधर घूमते थे। आततायिओंके घोर आतंकसे यह धरा अकुला उठी थी। रात्रिके उस सघन तिमिरसे व्याकुल होकर प्रायः सभी सुन्दर प्रभातका दर्शन करना चाहते थे। उस समय सभीकी दृष्टि प्राचीकी ओर लग रही थी। वे सतृष्ण लोचनोंसे पर्वको ओर देखते थे कि प्रातःकालकी ललित-लालिमा आकाशमें कब फैलती है।
किसी ने ठीक हीकहा है-सष्टिका क्रम जनताकी आवश्यकतानुसार हुआ करता है। जब मनुष्य पीसकी तप्त लसे व्याकुल हो उठते हैं तब सुन्दर श्यामल बादलोंसे आकाशको आवृत कर पावस तु आती है । वह शीतल और स्वादु सलिलकी वर्षाकर जनताका सन्ताप दूर कर देती है। पर जब सही घनघोर वर्षा, निरन्तरके दुर्दिन, बिजलीकी कड़क, मेघोंकी गड़गड़ाहट और मलिन पंकसे मन म्लान हो जाता है तब स्वगीय अप्सराका रूप धारण कर शरद ऋतु आती है। वह प्रतिदिन सबेरेके समय बालदिनशका सुनहली किरणोंसे लोगोंके अन्तस्तलको अनुरंजित बना देती है। रजनीमें चन्द्रमाकी रजतमयी शातल किरणसि अमृत वर्षाती है। पर जब उसमें भी लोगोंका मन नहीं लगता तव हेमन्त, शिशिर. आर वसन्त वगरह आ-आकर लोगोंको आनन्दित करनेकी चेष्टायें करती हैं। रातके बाद दिन और दिन बाद रातका आगमन भी लोगोंके सुभीतेके लिये है। दुष्टोंका दमन करनेके लिये महात्माओंकी उत्पत्ति अनादिसे सिद्ध है। इसलिये भगवान् पार्श्वनाथके बाद जब भारी आतंक फैल गया था तब किसी महात्माको आवश्यकता थी। बस, उसी आवश्यकताको पूर्ण करनेके लिये हमारे कथानायक भगवान महावीरने भारत बसुधा पर अवतार लिया था।
जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्रके मगध (बिहार) देशमें एक कुण्डलपुर नामक नगर था जो उस समय वाणिज्य व्यवसायके द्वारा खूब तरक्की पर था। उसमें अच्छे-अच्छे सेठ लोग रहा करते थे. कुण्डलपुरका शासन-सूत्र महाराज सिद्धार्थके हाथमें था। सिद्धार्थ शूर-वीर होनेके साथ-साथ बहुत ही गम्भीर प्रकृतिके पुरुष थे। लोग उनकी दयालुता देख कर कहते थे कि ये एक चलते-फिरते दयाके समुद्र हैं। उनकी मुख्य स्त्रीका नाम प्रियकारिणी (त्रिशला) था। यह त्रिशला सिन्धु देशकी वैशालीपुरीके राजा चेटककी पुत्री थी, बड़ो ही रूपवती और बुद्धिमती थी। वह हमेशा परोपकारमें ही अपना समय बिताती थी। रानी होनेपर भी उसे अभिमान तो छू भी नहीं गया था। वह सच्ची पतिव्रता थी। सेवासे वह महाराज सिद्धार्थको हमेशा सन्तुष्ट रखती थी। वह घरके नौकर चाकरों से प्रेमका व्यवहार करती थी। और विघ्न-व्याधि उपस्थित होने पर उनकी सतत रक्षा भी करती थी।
राजा सिद्धार्थ नागवंशके शिरोमणि थे । वे भी अपनेको त्रिशलाकी संगतिसे पवित्र मानते थे। राजा चेटकके त्रिशलाके सिवाय मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलिनी, ज्येष्ठा और चन्दना ये छह पुत्रियां और थीं। मृगावतीका विवाह उत्सदेश को कौशाम्बी नगरीके चन्द्रवंशीय राजा शतानीकके साथ हुआ था। सुप्रभा, दशर्ण देशके हरकच्छ नगरके स्वामी सूर्यवंशी राजा दशरथकी पटरानी हुई था। अनावताका विवाह-सम्बन्ध कच्छ देशके रोरुक नगरके स्वामी राजा उदयनके साथ हुआ था।
प्रभावतीका दूसरा नाम शीलवतो भी प्रचलित था। चेलिनी मगध देशके राजगृह नगरके राजा श्राणकको प्रिय पत्नी हुई थी। ज्येष्ठा और चन्दना इन दो पुत्रियोंने संसारसे विरक्त होकर आर्यिकाके व्रत ले लिये थे।
इस तरह महाराज सिद्धार्थका बहतसे प्रतिष्ठित राजवंशोंके साथ मैत्री-भाव था। सिद्धार्थने अपनी शासन-प्रणालीमें बहुत कुछ सुधार किया था।
ऊपर जिस इन्द्रका कथन कर आये हैं वहां ( अच्युत स्वर्गमें ) जब उसकी आयु छः माहकी बाकी रह गई तबसे सिद्धार्थ महाराजके घर पर रत्नोंकी वर्षा होनी शुरू हो गई। अनेक देवियां आ-आकर प्रियकारिणीकी सेवा करने लगीं। इन सब कारणोंसे महाराज सिद्धार्थको निश्चय हो गया था कि अब हमारे नाथ वंशमें कोई प्रभावशाली महापुरुष उत्पन्न होगा।
आषाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें रात्रिके पिछले पहरमें त्रिशलाने सोलह स्वप्न देखे और स्वप्न देखनेके बाद मुंहमें प्रवेश करते हुए एक हाथीको देखा। उसी समय उस इन्द्रने अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानसे मोह छोड़ कर उसके गर्भमें प्रवेश किया। प्रातः होते ही रानीने स्नान कर पतिदेव सिद्धार्थ महाराजसे स्वप्नोंका फल पूछा। उन्होंने भी अवधिज्ञानसे विचार कर कहा–तम्हारे गर्भसे नव माह बाद तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न होगा। जो कि सारे संसारका कल्याण करेगा-लोगोंको सच्चे रास्ते पर लगावेगा। पतिके वचन सुन कर त्रिशला मारे हर्षके फूली न समाती थी। उसी समय चारों निकायके देवोंने आकर भावी भगवान् महावीरके गर्भावतरणका उत्सव किया तथा उनके मातापिता त्रिशला और सिद्धार्थका खूब सत्कार किया।
गर्भकालके नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें प्रातः समय त्रिशलाके गर्भसे भगवान् वर्द्धमानका जन्म हुआ। उस समय अनेक शुभ शकुन हुए थे। उनका उत्पत्ति से देव, दानव, मृग और मानव सभीको हर्ष हुआ था। चारों निकायके देवोंने आकर जन्मत्सिव मनाया था। उस समय कुण्डलपर अपनी सजावटसे स्वर्गको भी पराजित कर रहा था। दवराजन इनका वद्धमान नाम रक्खा था। जन्मोत्सव की विधि समाप्त कर देवलोग अपने-अपने स्थानों पर चल गय। राज-परिवारमें बालक वर्द्धमानका बहुत प्यारसे लालन-पालन होने लगा।
वे द्वितीयाके इन्दुकी तरह दिन प्रति दिन बढ़ कर कुमार अवस्थामें प्रविष्ट हुए। कुमार वद्धमानको जो भी देखता था उसीकी आंखें हर्षके आंसुओंसे तर हो जाती थीं, मन अमन्द आनन्दसे गदगद हो उठता था और शरीर रोमांचित हो जाता था इन्हें अल्पकालमें ही समस्त विद्याएं प्राप्त हो गई थीं। बालक वर्द्धमानके अगाध पाण्डित्यको देख कर अच्छे-अच्छे विद्वानोंको दांतों तले अंगुलियां दबानी पड़ती थीं। विद्वान होनेके साथ-साथ वे शूरया, वीरता और साहस आदि गुणोंके अनन्य आश्रय थे।
एक दिन सौधर्म इन्द्रकी सभामें चर्चा चल रही थी इस समय भारतवर्ष में वर्द्धमान कुमार ही सबसे बलवान्, शूर-वीर और साहसी हैं। इस चर्चाको सुन कर एक संगम नामका कौतुकी देव कुण्डलपुर आया उस समय वर्द्धमान कुमार इष्ट-मित्रोंके साथ एक वृक्ष पर चढ़ने-उतरनेका खेल खेल रहे थे। मौका देख कर संगम देवने एक भयंकर सर्पका रूप धारण किया और फंकार करता हुआ वृक्ष की जड़से लेकर स्कन्ध तक लिपट गया। नागराजकी भयावनी सूरत देख कर वर्द्धमान कुमारके सब साथी वृक्षसे कूद-कूद कर घर भाग गये पर उन्होंने अपना धैर्य नहीं छोड़ा। वे उसके विशाल फण पर पांव देकर खड़े हो गये और आनन्दसे उछलने लगे। उनके साहससे प्रसन्न होकर देव, सर्पका रूप छोड़ कर अपने असली रूपमें प्रकट हुआ। उसने उनकी खूब स्तुति की और महावीर नाम रक्खा।
भगवान् महावीर जन्मसे ही परोपकारमें लगे रहते थे। जब वे दीन-दुःखी जीवोंको देखते थे तब !उनका हृदय रो पड़ता था। इतना ही नहीं, जबतक उनके दुःख दूर करनेका शक्तिभर प्रयत्न न कर लेते तबतक चैन नहीं लेते थे। वे अनेक असहाय बालकोंकी रक्षा करते थे। पुत्रकी तरह विधवा स्त्रियों की सुरक्षा करते थे। उनकी दृष्टिके सामने छोटे-बड़ेका भेद-भाव न था। वे अपने हृदयका प्रम आम | बाजारमें लुटाते थे जिसे आवश्यकता हो वह लूट कर ले जावे।
वर्द्धमान कुमारकी कीर्ति-गाथाओंसे समस्त भारतवर्ष मुखरित हो गया था। पहाड़ोंकी चोटियों और नद, नदी, निर्भरोंके किनारों पर सुन्दर लता गृहोंमें बैठ कर किन्नर देव अपनी प्रेसियोंके साथ इनकी कीति गाया करते थे। महलोंकी छतों पर बैठ कर सौभाग्यवती स्त्रियां बड़ी ही भक्तिसे उनका यशोगान करती थीं।
श्री पार्श्वनाथ स्वामीके मोक्ष जानेके ढाई सौ वर्ष बाद भगवान महावीर हुए थे। इनकी आयु भी इसीमें युक्त है। इनकी आयु कुछ कम बहत्तर वर्षकी थी| शरीरकी ऊंचाई सात हाथ की थी और रंग सुवर्णके समान स्निग्ध पीत वर्णका था।
जब धीरे-धीरे उनकी आयुके तीस वर्ष बीत गये और उनके शरीरमें यौवनका पूर्ण विकास हो गया, तब एक दिन महाराज सिद्धार्थने उनसे कहा-‘प्रिय पुत्र ! अब तुम पूर्ण युवा हो, तुम्हारी गम्भीर और विशाल आंखें, उन्नत ललाट, प्रशान्त वदन, मन्द मुसकान, चतुर वचन, विस्तृत वक्षस्थल और घटनों तक लम्बी भुजाएं तुम्हें महापुरुष बतला रही हैं। अब खोजने पर भी तुममें वह चंचलता नहीं पाता है। अब तुम्हारा यह समय राज-कार्य संभालने का है। मैं एक वृद्ध मनुष्य हैं और कितने दिन तक तुम्हारा साथ दंगा ? मैं तुम्हारा विवाह करने के बाद ही तुम्हें राज्य देकर संसारकी झंझटोंसे बचना चाहता हूँ।…. पिताके वचन सुन कर महावीरका प्रफुल्ल मुखमण्डल एकदम गम्भीर हो गया।
आपकी आयूके विषयमें दो मत हैं। एक मतमें आपकी आयु ७२ वर्षकी कही गई है और दूसरे मतमें ७१ वर्ष ३ माह २५ दिनकी कही गई है। दोनों माँका खुलासा जयधवलमें किया गया है। देखिये सागरकी हस्तलिखित प्रतिलिपि पत्र)
मानो वे किसी गहरी समस्याके सुलझानेमें लग गये हों। कुछ देर बाद उन्होंने कहा-पिता जी! यह मुझसे नहीं होगा | भला , जिस जंजालसे आप बचना चाहते हैं उसी जंजालमें आप मझे क्योंकर फंसाना S! आह ! मरी आयु केवल बहत्तर वर्षकी है जिसमें आज तीस वर्ष व्यतीत हो चके। अब इतने से जीवन में मुझे बहुत कुछ कार्य करना बाकी है। देखिये पिताजो! ये लोग धर्मके नाम
आपस में किस तरह झगड़ते हैं। सभी एक दूसरेको अपनी ओर खींचना चाहते हैं। पर खोज करने पर य सब है पोचे । धर्माचार्य प्रपंच फैला कर धर्मकी दूकान सजाते हैं जिनमें भोले प्राणी ठगाये जाते है। में इन पथ-भ्रान्त पुरुषोंको सुखका सच्चा रास्ता बतलाऊंगा । क्या बुरा है मेरा विचार ? सिद्धार्थ ने बीच में ही टोंक कर कहा-पर ये तो घरमें रहते हए भी हो सकते हैं। कुछ आगे बढ़ कर महावीरने उत्तर दिया-नहीं महाराज। यह आपका केवल व्यर्थ मोह है, थोड़ी देरके लिये आप यह भूल जाइये कि महावीर मेरा बेटा है; फिर देखिये आपकी यह विचार-धारा परिवर्तित हो जाती है या नहीं ? बस, पिताजी। मुझे आज्ञा दीजिये जिससे मैं जंगलके प्रशान्त वायु मण्डलमें रह कर आत्म-ज्योतिको प्राप्त करू और जगत्का कल्याण करूं। कुछ प्रारम्भ किया और कुछ हुआ। सोचते हुए सिद्धार्थ महाराज विषण्ण-वदन हो चुप रह गये ।
जब पिता पुत्रका ऊपर लिखा हुआ सम्बाद त्रिशला रानीके कानोंमें पड़ा तब वह पुत्र-मोहसे व्याकुल हो उठी-उसके पांवके नीचेकी जमीन खिसकने-सी लगी। आंखोंके सामने अंधेरा छा गया। वह मूच्छित हुआ ही चाहती थी कि बुद्धिमान् वर्द्धमान कुमारने चतुराई भरे शब्दोंमें उनके सामने अपना समस्त कर्तव्य प्रकट कर दिया-अपने आदर्श और पवित्र विचार उनके सामने रख दिये एवं संसारकी दूषित परिस्थितिसे उसे परिचित करा दिया। तब उसने डबडबाती हुई आंखोंसे भगवान महावीरकी ओर देखा। उस समय उसे चेहरे पर परोपकारकी दिव्य झलक दिखाई दी। उनकी लालसा-शन्य सरल मुखाकृतिने उनके समस्त विमोहको दूर कर दिया। महावीरको देख कर उसने अपने आपको बहुत कुछ धन्यवाद दिया और कुछ देर तक अनिमेष दृष्टिसे उनकी ओर देखती रही। फिर कुछ देर बाद उसने स्पष्ट स्वरमें कहा-“ऐ देव । जाओ, खुशीसे जाओ, अपनी सेवासे संसारका कल्याण करो, अब मैं आपको पहिचान सकी, आप मनुष्य नहीं-देव हैं। मैं आपके जन्मसे धन्य हुई। अब न आप मेरे पुत्र हैं और न मैं आपकी मां। किन्तु आप एक आराध्य देव हैं और मैं हूं आपकी एक क्षुद्र सेविका । मेरा पुत्र-मोह बिलकुल दूर हो गया।
माताके उक्त वचनोंसे महावीर स्वामीके विरक्त हृदयको और भी अधिक आलम्बन मिल गया। उन्होंने स्थिरचित्त होकर संसारकी परिस्थितिका विचार किया और वनमें जाकर दीक्षा लेनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। उसी समय पीताम्बर पहिने हुए लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की और दीक्षा धारण करनेके विचारोंका समर्थन किया। अपना कार्य पूराकर लौकान्तिक देव अपने स्थानोंपर वापिस चले गये। उनके जाते ही असंख्य देव-गण जय-जय घोषणा करते हुए आकाशमार्गसे कुण्डलपुर आये । वहां उन्होंने भववान महावीरका दीक्षाभिषेक किया तथा अनेक सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहिनाये । भगवान् भी देवनिर्मित चन्द्रप्रभा पालकीपर सवार होकर षण्डवनमें गये और वहां अगहन वदी दशमी के दिन हस्त नक्षत्रमें संध्याके समय ॐ नमः सिद्धेभ्यः’ कहकर वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिये । पंच मष्टियोंसे केश उखाड़ डाले। इस तरह वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंका त्यागकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। विशुद्धिके बढ़नेसे उन्हें उसी समय मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया। दीक्षा कल्याणकका उत्सव समाप्त कर देवलोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये।
पारणके दिन भगवान् महावीरने आहारके लिये कुलग्राम नामक नगरीमें प्रवेश किया। वहां उन्हें कल-भपालन भक्तिपूर्वक आहार दिया। पात्रदानसे प्रभावित होकरदेवोंने कल-भपाल पर प्रकट किये । वहांसे लौटकर मुनिराज महावीर वनमें पहुँचे और आत्मध्यानमें लीन हो गया बाद उन्होंने मौनव्रत ले लिया था। इसलिये बिना किसीसे कुछ कहे हुए ही वे आर्य देशों में विहार करते थे |
एक दिन विहार करते हुए भगवान महावीर उज्जयिनोके अतिमुक्तक नामके श्मशानमें पहुंच और रातमे प्रतिमा योग धारणकर वहीं पर विराजमान हो गये। उन्हें देखकर महादेव रुद्रने अपनी दुष्टतास उनके धयकी परीक्षा करनी चाही। उसने बैताल विद्याके प्रभावसे रात्रिके सघन अन्धकारकोऔर भी सघन बना दिया। अनेक भयानक रूप बनाकर नाचने लगा। कठोर शब्द, अट्टहास और विकराल दृष्टिसे डराने लगा। तदनन्तर सर्प, सिंह, हाथी, अग्नि और वायु आदिके साथ भीलोंकी सेना बनाकर आया। इस तरह उसने अपनी विद्याके प्रभावसे खूब उपसर्ग किया। पर भगवान महावीरका चित्त आत्मध्यानसे थोड़ा भी विचलित नहीं हुआ। उनके अनुपम धैर्यको देखकर महादेवने असली रूपमें प्रकट होकर उनकी खूब प्रशंसा की स्तुति की और क्षमा याचना कर अपने स्थानपर चला गया।
वैशालीके राजा चेटककी छोटी पुत्री चन्दना वनमें खेल रही थी। उसे देखकर कोई विद्याधर कामवाणसे पीड़ित हो गया। इसलिये वह उसे उठाकर आकाशमें लेकर उड़ गया पर ज्योंही उस विद्याधरकी दृष्टि अपनी स्त्री पर पड़ी त्योंही वह उससे डरकर चन्दनाको एक महा अटवीमें छोड़ आया। वहां पर किसी भीलने देखकर उसे धन पानेकी इच्छासे कौशाम्बी नगरीके वृषभदत्त सेठके पास भेज दिया। सेठकी स्त्रीका नाम सुभद्रा था । वह बड़ी दुष्टा थी, उसने सोचा कि कभी सेठजी इस चन्दनाकी रूप-राशिपर न्यौछावर होकर मुझे अपमानित न कर दे-ऐसा सोचकर वह चन्दना को खूब कष्ट देने लगी। सेठानीके घरपर प्रतिदिन चन्दनाको मिट्टीके वर्तनमें कांजीसे मिला हुआ पुराने कोदोंका भात ही खानेको मिलता था। इस पर भी वह हमेशा सांकलमें बंधी रहती थी। इन सब अत्यचारोंसे उसका सौन्दर्य प्रायः नष्ट-सा हो गया था।
एक दिन विहार करते हुए भगवान महावीर आहार लेनेके लिये कौशाम्बी नगरीमें पहुंचे। उनका आगमन सुनकर चन्दना की इच्छा हुई कि मैं भगवान महावीरके लिये आहार दू, पर उसके पास रक्खा ही क्या था ? उसे जो मिलता था वह दूसरेकी कृपासे और वहभी सड़ा हुआ। उपरान्त वह सांकलमें बंधी हुई थी। चन्दनाको अपनी परतन्त्रताका विचार आते ही बहत दुःख हुआ। पर भाव भक्ति भाकाइ चान है। ज्याही भगवान महावीर उसके द्वार परसे निकले त्योंही उसकी सांकल अपने आप टूट गई । उस शरीर पहलके समान सन्दर हो गया। पासमें रखा हआ मिट्टीका बर्तन सोनेका हा गया और भात शाल चावलौका भात बन गया। यह देखकर उसने प्रसन्नतासे पड़गाह कर भगवान् महावीरके लिये आहार दिया। देवोंने चन्दनाकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उसके घरपर रत्नोंकी वषो का । तब चन्दना माहात्म्य सब ओर फैल गया। पता लगनेपर चेटक राजा पुत्रीको लिवानेके लिये आया, पर वह संसारकी दुःखमय अवस्थासे खूब परिचित हो गई थी इसलिये उसने पिताके साथ जाना अस्वीकार कर दिया और किसी आर्यिकाके पास दीक्षा ले ली।
अबतक छद्मस्थ अवस्थामें विहार करते हुए भगवान्के बारह वर्ष बीत गये थे। एक दिन वे जम्भिका गांवके समीप ऋजुकूला नदीके किनारे मनोहर नामके वनमें सागोन वृक्षके नीचे पत्थरकी शिलापर विराजमान थे। वहींपर उन्हें शुक्ल ध्यानके प्रपापसे घातिया कर्मोका क्षय होकर वैशाख शुक्ला दशमीके दिन हस्त नक्षत्रमें संध्या समय उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। देवोंने आकर ज्ञान-कल्याणकका उत्सव किया। इन्द्रकी आज्ञासे धनपति कुबेरने समवशरण की रचना की। भगवान् महावीर उसके मध्य भागमें विराजमान हुए। धीरे-धीरे समवशरणकी बारहों सभायें भर गई। समवसरणभूमि का सब प्रबन्ध देवलोग अपने हाथमें लिये हुए थे, इसलिये वहां किसी प्रकारका कोलाहल नहीं होता था। सभी लोग सतृष्ण लोचनोंसे भगवानकी ओर देख रहे थे और कानोंने उनके दिव्य उपदेशकी परीक्षा कर रहे थे। पर भगवान महावीर चुपचाप सिंहासनपर अन्तरीक्ष विराजमान थे। उनके मुखसे एक भी शब्द नहीं निकलता था। केवलज्ञान होनेपर भी छयासठ दिनतक उनकी दिव्य ध्वनि नहीं खिरी ।
जब इन्द्रने अवधिज्ञानसे इसका कारण जानना चाहा तब उसे मालूम हुआ कि अभी सभाभूमिमें कोई गणधर नहीं है और बिना गणधरके तोर्थंकरकी वाणी नहीं खिरती। इन्द्रने अवधिज्ञानसे यह भी जान लिया । कि गौतम ग्राममें जो इन्द्रभूति नामका ब्राह्मण है वही इनका प्रथम गणधर होगा। ऐसा जानकर इंद्र इन्द्रभूतिको लानेके लिये गौतम ग्रामको गया। इन्द्रभूति वेद वेदांगोंको जाननेवाला प्रकाण्ड विद्वान था। उसे अपनी विद्याका भारी अभिमान था। उसके पांचसौ शिष्य थे। जब इन्द्र उसके पास पहुँचा तब वह अपने शिष्योंको वेद वेदांगोंका पाठ पढ़ा रहा था। इन्द्र भी एक शिष्यके रूपमें उसके पास पहुंचा और नमस्कार कर जिज्ञासु भावसे बैठ गया। इन्द्रभूतिने नये शिष्यकी ओर गम्भीर दृष्टि से देख कर कहा कि तुम कहांसे आये हो ? किसके शिष्य हो? उसके वचन सुनकर शिष्य वेषधारी इन्द्रने कहा कि मैं सर्वज्ञ भगवान महावीरका शिष्य हूँ । इन्द्रभूतिने महावीरके साथ ‘सर्वज्ञ’ और ‘भगवान’ विशेषण सुनकर तिणकते हुए कहा-‘ओ सर्वज्ञके शिष्य ! तुम्हारे गुरु यदि सर्वज्ञ हैं तो अभीतक कहां छिपे रहे ? क्या मुझसे शास्त्रार्थ किये बिना ही वे सर्वज्ञ कहलाने लगे हैं ?” इन्द्रने कुछ भौंहे टेढ़ी करते हुए कहा तो क्या आप उनसे शास्त्रार्थ करनेके लिये समर्थ हैं ? इन्द्रभूतिने कहा-हां, अवश्य । तब इन्द्रने कहा-अच्छा, पहले उनके शिष्य मुझसे ही शास्त्रार्थ कर देखिये-फिर उनसे करियेगा। में पूछता हूँ……..
त्रैकाल्यं द्रव्यषटकं नव पद सहितं……..आदि ।
कहिये महाराज । इस श्लोकका अर्थ क्या है ? जब इन्द्रभूतिको ‘द्रव्यषटक’ ‘नवपद सहितं ‘लेश्या’ आदि शब्दोंका अर्थ प्रसिभासित नहीं हुआ तब वह कड़क कर बोला-चल, तुझसे क्या शास्त्रार्थ करू, तेरे गुरुसे ही शास्त्रार्थ करूंगा। ऐसा कहकर मय पांच सौ शिष्योंके भगवान महावीरके पास जानेके लिये खड़ा हो गया । इन्द्र भी हंसता हुआ आगे होकर मार्ग बतलाने लगा। ज्योंही इन्द्रभति समवसरणके पास आया और उसकी दृष्टि मान-स्तम्भपर पड़ी त्योंही उसका समस्त अभिमान चर हो गया । वह विनीत भावसे समवसरणके भीतर गया। वहां भगवान के दिव्य ऐश्वर्यको देखकर उनके सामने उसने अपने आपको बहुत ही क्षुद्र अनुभव किया। जब इन्द्रभूति भगवानको नमस्कार कर मनुष्योंके कोठेमें बैठ गया तब इन्द्रने उससे कहा-अब आप जो पूछना चाहते हों वह पूछिये । जब इन्द्रभूतिने भगवानसे जीवका स्वरूप पूछा तब उन्होंने सप्तभंगीमें जीव-तत्वका विशद व्याख्यान किया। उनके दिव्य उपदेशसे गद्गद् हृदय होकर इन्द्रभूतिने कहा-‘भगवान् ! इस दासको भी अपने चरणों में स्थान दोजिये। ऐसा कह कर उसने वहीं पर जिन-दीक्षा धारण कर ली। उसके पांच सौ शिष्योंने भी जन-धम स्वीकार कर यथाशक्ति व्रत-विधान ग्रहण किये। दीक्षा लेनेके कुछ समय बाद ही इन्द्रभूतिको सात ऋद्धियां और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया। यही भगवान वर्द्धमानका प्रथम गणधर हुआ था। गौतम गांवमें रहनेके कारण इन्द्रभूतिका ही दूसरा नाम गौतम’ था। भगवान् अर्ध-मागधी भाषामें पदार्थों का उपदेश करते थे और गौतम इन्द्रभूति गणधर उसे ग्रन्थ रूपसे-अंग पूर्व रूपसे संकलित करते जाते थे। कालक्रमसे भगवान महावीरके गौतमके सिवाय वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेल और प्रभास ये दश गणधर और थे। इनके सिवाय इनके समवसरणमें तीन सौ ग्यारह द्वादशांगके वेत्ता थे, नौ हजार नौ सौ शिक्षक थे, तेरह सौ अवधिज्ञानी थे, सात सौ केवलज्ञानी थे, नौ सौ विक्रिया-ऋद्धिके धारक थे, पांच सौ मनःपर्यय ज्ञानी थे और चार सौ वादी थे। इस तरह सब मिला कर चौदह हजार मुनिराज थे। चन्दना आदि छत्तीस हजार आर्यिकायें थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकायें थीं, असंख्यात देव-देवियां और संख्यात तिथंच थे। इन सबसे वेष्टित होकर उन्होंने नय प्रमाण और निक्षेपोंसे वस्तुका स्वरूप बतलाया। इसके अनन्तर कई स्थानोंमें विहार कर धर्मामृतको वर्षा की।
इन्हींके समयमें कपिलवस्तुके राजा शुद्धोधनके गौतम बुद्ध नामका पुत्र था जो अपने विशाल ऐश्वर्यको छोड़ कर साधु बन गया था। साधु गौतम बुद्धने अपनी तपस्यासे महात्मा पद प्राप्त किया था। महात्मा बुद्ध जगह-जगह घूम कर बौद्ध-धर्मका प्रचार किया करते थे। बुद्धके अनुयायी बौद्ध’ और महावीर के अनुयायी ‘जैन’ कहलाते थे। यद्यपि उस समय जैन और बौद्ध ये दोनों सम्प्रदाय वैदिक विधान बलि, हिंसा आदिका विरोध करने में पूरी-पूरी शक्ति लगाते थे तथापि उन दोनोंमें बहुत मतभेद था।
बौद्ध और जैनियोंकी दार्शनिक तथा आचार विषयक मान्यताओंमें बहुत अन्तर था। जो कुछ भी हो । पर यह निःसन्देह कहा जा सकता है वे दोनों उस समयके महापुरुष थे, दोनोंका व्यक्तित्व खूब बढ़ा-पुराण चढ़ा था। जबतक महावीरकी छद्मस्थ अवस्था रही तबतक प्रायः बुद्धके उपदेशोंका अधिक प्रचार रहा। पर जब भगवान महावीर केवलज्ञानी होकर दिव्य-ध्वनिके द्वारा उपदेश करने लगे थे तब बुद्धका माहात्म्य बहुत कुछ कम हो गया था। राजा श्रेणिक जैसे कट्टर बौद्ध भी महावीरके अनुयायी बन गये थे अर्थात् जैनी हो गये थे। एक जगह गौतम बुद्धने अपने शिष्योंके सामने भगवान महावीरको सर्वज्ञ स्वीकार किया था और उनके वचनोंमें अपनी आस्था प्रकट की थी।
पूर्णज्ञानी योगी भगवान् महावीरने पहले तो वैदिक वलिदान तथा अन्य कुरीतियोंको बन्द करवाया था। और फिर अपने मार्मिक धार्मिक उपदेशोंसे, बौद्ध, नैयायिक, सांख्य आदि मत मतान्तरों की मान्यताओंका खण्डन कर स्यादवाद रूपसे जैन-धर्मकी मान्यताओंका प्रकाश किया था।
एक दिन भगवान महावीर विहार करते हुए राजगृह नगरमें आये और वहांके विपुलाचल पर्वत पर समवशरण सहित विराजमान हो गये। उस समय राजगृह नगरमें राजा श्रेणिकका राज्य था। पहिले कारणवश श्रेणिक राजाने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था। परन्तु चेलिनी रानीके बहुत कुछ प्रयत्न करने पर उन्होंने बौद्ध-धर्मको छोड़ कर पुनः जैन-धर्म धारण कर लिया था। जब उन्हें विपुलाचल पर महावीर जिनेन्द्र के आगमनका समाचार मिला तब वह समस्त परिवारके साथ उनकी वन्दनाके लिये गया और उन्हें नमस्कार कर मनुष्यों के कोठमें बैठ गया। भगवान् महावीरने सुन्दर सरस शब्दोंमें पटायोंका विवेचन किया जिसे सुन कर राजा श्रेणिकको क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया। क्षायिक सम्यग्दर्शन पाकर उसे बड़ी ही प्रसन्नता हुई। राजा श्रेणिकको उनके प्रति इतनी गाढ़ श्रद्धा हो गई थी कि वह उनके पास प्रायः नित्य प्रति जाकर तत्वोंका उपदेश सुना करता था।श्रेणिकको आसन्न भव्य समझ कर गौतम गणधर वगैरह भी उसे खब उपदेश दिया करते थे।
प्रथमानुयोगका उपदेश तो प्रायः श्रेणिकके प्रश्नोंके अनुसार ही किया गया था। श्रणिकने उन्हींके पासमें दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध भी कर लिया था। जिससे वह आगामी उपसर्पिणीमें पद्मनाभि नामके तीर्थंकर होंगे।
भगवान महावीरका विहार, बिहार प्रान्तमें बहुत अधिक हुआ है। राजगृहके विपुलाचल पर तो उनक कई बार आनेके कथानक मिलते हैं। इस तरह समस्त भारतवर्ष में जैन-धर्मका प्रचार करते-करते जब उनकी आयु बहुत थोड़ी रह गई तब वे पावापुरमें आये और वहां योग निरोध कर आत्म-ध्यानमें लीन हो विराजमान हो गये। वहीं पर उन्होंने सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति और व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक शुक्लध्यानके द्वारा अघातिया कर्मोका नाश कर कार्तिक वदी अमावस्याके दिन प्रातःकालके समय बहत्तर वर्ष की अवस्थामें मोक्ष लाभ किया। देवोंने आकर निर्वाण-क्षेत्रकी पूजा की और उनके गुणों की स्तुति की।
भगवान् महावीर जब मोक्ष गये थे तब चतुर्थकालके ३ वर्ष ८ माह १५ दिन बाकी रह गये थे। उन्हें उत्पन्न हुए आज २५३६ वर्ष और मोक्ष प्राप्त किये २४६४ वर्ष व्यतीत हो गये हैं। ये ब्रह्मचारी हए। न इन्होंने विवाह किया और न राज्य ही। किन्तु कुमार अवस्थामें दीक्षा धारण करली थी। भगवान् महावीर के वर्द्धमान, महावीर, वीर, अतिवीर और सन्मति- ये नाम प्रसिद्ध हैं।
॥ समाप्त॥