पुष्पाञ्जलिस्तु भाद्रपदशुक्लां पञ्चमीमारभ्य
शुक्लानवमीपर्यन्तं यथाशक्ति पञ्चोपवासा: भवन्ति।।

अर्थ-पुष्पांजलिव्रत भाद्रपद शुक्ला पंचमी से नवमी पर्यन्त किया जाता है। इसमें पाँच उपवास अपनी शक्ति के अनुसार किये जाते हैं।

विवेचन

भादों सुदी पंचमी से नवमी तक पाँच दिन पंचमेरु की स्थापना करके चौबीस तीर्थंकरों की पूजा करनी चाहिए। अभिषेक भी प्रतिदिन किया जाता है। पाँच अष्टक और पाँच जयमाल पढ़ी जाती हैं। ‘ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्यशीतिजिनालयेभ्यो नम:’ मंत्र का प्रतिदिन तीन बार जाप किया जाता है। यदि शक्ति हो तो पाँचों उपवास, अन्यथा पञ्चमी को उपवास, शेष चार दिन रस त्याग कर एकाशन करना चाहिए। रात्रि जागरण विषय-कषायों को अल्प करने का प्रयत्न एवं आरंभ-परिग्रह का त्याग करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। विकथाओं को कहने और सुनने का त्याग भी इस व्रत के पालने वाले को करना आवश्यक है। इस व्रत का पालन पाँच वर्ष तक करना चाहिए, तत्पश्चात् उद्यापन करके व्रत की समाप्ति कर दी जाती है।

व्रत की विशेष विधि और व्रत का फल

पुष्पांजलिव्रतं पञ्चदिनपर्यंतं करणीयम्। तत्र केतकीकुसुमादिभि:
चतुर्विंशतिविकसितसुगंधित-सुमनोभिश्चतुर्विंशतिजिनान् पूजयेत्।
यथोक्तकुसुमाभावे पूजयेत् पीततन्दुलै:।
पञ्चवर्षानन्तरं उद्यापनं कार्यम्।
केवलज्ञानसम्प्राप्तिरेतस्य परमं फलम्।
तिथिक्षये वा तिथिवृद्धौ पूर्वोक्त एव क्रम: स्मर्तव्य:।
पुष्पाञ्जलिव्रते पंचमीषष्ठ्योरुपवास: सप्तम्यां पारणा अष्टमीनवम्योरुपवास: दशम्यां पारणा,
एकान्तरेण तु तिथिक्षये चादिदिने गृहीते पारणाद्वयंं मध्ये कार्यम्;
पञ्चम्यामष्टम्यां च षष्ठ्यामष्टम्यां वा यथैकान्तरं स्यात्तथा कार्यम्;
एतत् पुष्पांजलिव्रतं कर्मरोगहरं मुक्तिप्रदं च पारम्पर्येण भवति।

पुष्पांजलि व्रत को पाँच दिन तक करना चाहिए। इस व्रत में केतकी, बेला, चम्पा आदि विकसित और सुगंधित पुष्पों से चौबीस भगवान की पूजा करनी चाहिए। यदि वास्तविक पुष्प न हों या वास्तविक पुष्पों से पूजन करना उपयुक्त न समझें तो पीले चावलों से भगवान की पूजा करनी चाहिए। पाँच वर्ष के पश्चात् व्रत का उद्यापन कर देना होता है। इस व्रत का फल केवलज्ञान की प्राप्ति होना बताया गया है अर्थात् विधिपूर्वक पुष्पांजलि व्रत के पालने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। तिथिक्षय या तिथिवृद्धि होने पर पूर्वोक्त क्रम ही अवगत करना चाहिए। तिथिक्षय में एक दिन पहले से और तिथिवृद्धि में एक दिन अधिक व्रत किया जाता है। पुष्पांजलि व्रत में पंचमी और षष्ठी इन दोनों दिनों का उपवास, सप्तमी को पारणा, अष्टमी और नवमी का उपवास तथा दशमी को पारणा की जाती है। एकान्तर उपवास करने वाले को अर्थात् एक दिन उपवास दूसरे दिन पारणा, पुन: उपवास तत्पश्चात् पारणा इस क्रम से उपवास करने वाले को तिथिक्षय होने पर एक दिन पहले से व्रत करने के कारण मध्य में दो पारणाएँ करनी चाहिए। पंचमी और अष्टमी की पारणा अथवा षष्ठी और अष्टमी की पारणा की जाती है। एकान्तर उपवास और पारणा का क्रम चल सके, ऐसा करना चाहिए। यह पुष्पांजलि व्रत कर्र्मरूपी रोग को दूर करने वाला, लौकिक अभ्युदय का प्रदाता एवं परम्परा से मोक्षलक्ष्मी को प्रदान करने वाला है।
पुष्पांजलि व्रत की विधि पहले लिखी जा चुकी है। आचार्य ने यहाँ पर कुछ विशेष बातें इस व्रत के संबंध में बतलायी हैं। पुष्पांजलि शब्द का अर्थ है कि पुष्पों का समुदाय अर्थात् सुगंधित, विकसित और कीटाणु रहित पुष्पों से जिनेन्द्र भगवान की पूजा इस व्रत वाले को करनी चाहिए। पहले व्रत विधि में लिखे गये जाप को भी पुष्पों से ही करना चाहिए। यदि पुष्प चढ़ाने से एतराज हो तो पीले चावलों से पूजन तथा लवंगों से जाप करना चाहिए। पाँचों दिन पूजन और जाप करना आवश्यक है। इस व्रत का बड़ा भारी माहात्म्य बताया गया है विधिपूर्वक इसके पालने से केवलज्ञान की प्राप्ति परम्परा से होती है, कर्मरोग दूर होता है तथा नाना प्रकार के लौकिक ऐश्वर्य, धन-धान्यादि विभूतियाँ प्राप्त होती हैं। इसकी गणना काम्य व्रतों में इसीलिए की गई है कि इस व्रत को विधिपूर्वक पालकर कोई भी व्यक्ति अपनी लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की कामनाओं को पूर्ण कर सकता है।