जीवन है पानी की बूँद का उद्भव !!
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बात इसी भिण्ड चातुर्मास की है-
सूरज गुनगुनी धूप लेकर क्षितिज पर चमकने लगा। परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री विरागसागरजी महाराज अपने विशाल संघ के साथ प्रभातकालीन आवश्यक भक्ति क्रिया से निवृत्त हो चुके थे। प्रतिदिन की भाँति परमपूज्य गुरुदेव अपने विशाल संघ के साथ नित्य क्रिया हेतु नसियाँ जी की ओर बढ़ते चले जा रहे थे।
पूज्य गुरुदेव के साथ ऐलक विमर्शसागर जी भी यथाक्रम ईर्यासमिति से चल रहे थे, और काव्य में रुचि होने के कारण अपने चिंतन को आध्यात्मिक अनुभूतियों से स्नान करा रहे थे। तभी अचानक उनके चिंतन की गर्भस्थली से एक पंक्ति ‘जीवन है पानी की बूँद, कब मिट जाए रे’ का प्रसव हुआ, और वो इस प्रसव की परमानंद अनुभूति का बारम्बार अनुभव करते हुए स्मृति के दिव्य द्वार तक पहुँच गए। उन्होंने कभी ‘होनी अनहोनी’ सीरियल देखा था, अतः होनी-अनहोनी शब्द को अपने काव्य में स्थान देने का विचार करते रहते थे तभी अचानक नित्य क्रिया से लौटते समय चिंतन की गर्भस्थली से जुड़वाँ पंक्ति ‘होनी-अनहोनी, हो-हो, कब क्या घट जाये रे’ का प्रसव हुआ।
ऐलक जी दोनों जुड़वाँ पंक्तियों का अनुभव करते हुए अंतरंग में गुरु आशीष की श्रद्धा से भर गये। अतः इस आध्यात्मिक भजन को पूर्ण करने में उपयोग लगाया। भजन की पूर्णता होते ही पुनः पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में पहुँचे और विनयपूर्वक अपना चिंतन मधुर स्वर से गुरु चरणों में समर्पित किया। सच कहूँ, गुरुदेव ने अत्यंत आह्लाद से भरकर उन्हें शुभाशीष दिया। गुरु का वह मंगल आशीष ही है कि इस आध्यात्मिक भजन ने सभी के कंठ को स्पर्शित किया, और इस समय का
बहुचर्चित भजन कहलाया। जैन हों या अजैन सभी ने इसे समभाव से स्वीकारा, और लोग उन्हें अब अत्यंत श्रद्धा और प्यार से ‘जीवन है पानी की बूँद’ चिंतन के प्रणेता, इस नाम से पुकारने लगे।
यद्यपि इस भजन को जब अन्य साधु, विद्वान, गीतकार, गायक, अपनी प्रशंसा के लिए अपनी रचना कहकर बोलने लगे, तब पूज्य गुरुदेव विरागसागर जी को यह कहना पड़ा, कि ‘जीवन है पानी की बूँद’ भजन तो विमर्शसागर की मूल गाथाएँ हैं जिस पर अन्य साधु, विद्वान, गायक तो मात्र टीकाएँ लिख रहे हैं।