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Anadi Anidhan Mahamantra - Namokar Mantra

अनादि अनिधन महामंत्र- णमोकार मंत्र !! Anadi Anidhan Mahamantra - Namokar Mantra !!

णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं,
णमो आाइरियाणं,
णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्वसाहूणं।

अर्थ: णमो अरिहंताणं-अरिहंतों को नमस्कार हो, णमो-सिद्धाणं-सिद्धों को नमस्कार हो.  णमो आयरियाणं-आचार्यों को नमस्कार हो.  णमो उवज्झायाणं- उपाध्यायों को नमस्कार हो, णमो लोए सव्व साहूणं-लोक के सभी साधुओं को नमस्कार हो.

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Namokar Mantra is the most important mantra of Jainism. It is also called ‘Navkar Mantra’, ‘Namaskar Mantra’ or ‘Panch Parmeshthi Namaskar’. Arihantas, Siddhas, Acharyas, Upadhyayas and Sadhus have been saluted in this mantra. Navkar Mantra is the universal prayer of Jainism. Navkar Mantra is the most important mantra in Jainism and can be recited at any time. This mantra is also called  Namaskar (नमस्कार)  or Namokar (णमोकार) Mantra. This is the first prayer recited by Jains while doing samayik (Jain meditation). Reciting this mantra helps to remember that the most important goal of life is to get rid of unreality. It keeps us focused on the path of self-realization. This is the oldest mantra, this mantra was found on the Hathigumpha inscription in 162 BC.

णमोकार मन्त्र जैन धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मन्त्र है। इसे ‘नवकार मन्त्र’, ‘नमस्कार मन्त्र’ या ‘पंच परमेष्ठि नमस्कार’ भी कहा जाता है। इस मन्त्र में अरिहन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं का नमस्कार किया गया है। नवकार मंत्र जैन धर्म की सार्वभौमिक प्रार्थना है। नवकार मंत्र जैन धर्म में सबसे महत्वपूर्ण मंत्र है और इसे किसी भी समय पढ़ा जा सकता है। इस मंत्र को नमस्कार या णमोकार मंत्र भी कहा जाता है। यह सामायिक (जैन ध्यान) करते हुए जैनियों द्वारा पढ़ी जाने वाली पहली प्रार्थना है। इस मंत्र के पाठ से यह याद रखने में मदद मिलती है कि जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य अवास्तविकता से मुक्ति प्राप्त करना है। यह हमें आत्मकल्याण के मार्ग पर केंद्रित रखता है। यह सबसे पुराना मंत्र है, यह मंत्र 162 ईसा पूर्व हाथीगुम्फा शिलालेख पर पाया गया था।

असंख्यात गुणी कर्मो की निर्जरा कराने वाले, सातिशय पुण्य का संचय कराने वाले, रानी सती के अग्निकुंड को नीरकुंड करने वाले, अनादि अनिधन महामंत्र के बारे में  हम कुछ जानने का प्रयास करेंगे- 

 

 

 

णमो अरिहंताणं

 अर्हत् (संस्कृत) और अरिहंत (प्राकृत) पर्यायवाची शब्द हैं। अतिशय पूजा-सत्कार के योग्य होने से इन्हें (अर्ह योग्य होना) कहा गया है। मोहरूपी शत्रु (अरि) का अथवा घातिया कर्मों का नाश करने के कारण ये ‘अरिहंत’ (अरि=शत्रु का नाश करनेवाला) कहे जाते हैं। अर्हत, सिद्ध से एक चरण पूर्व की स्थिति है।

णमोकार मंत्र में पंचपरमेष्ठियों में सर्वप्रथम अरिहंत परमेष्ठी के लिए नमस्कार किया गया है। सिद्ध परमेष्ठी यद्यपि अरिहंत परमेष्ठी से बड़े हैं लेकिन अरिहंत परमेष्ठी लोक के परम उपकारक हैं, इसलिए इन्हें सर्वोत्तम कहा गया है। जैन आगम/ जिनागम को अर्हत् द्वारा भाषित कहा गया है। अरिहन्त परमेष्ठी वीतरागी, सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी होते हैं। 
ज्ञानावरणी कर्म का नाश होने पर केवल ज्ञान द्वारा वे समस्त पदार्थों को जानते हैं इसलिए उन्हें ‘केवली’ कहा है। यह केवली की दशा १३ वे गुणस्थान से प्रारम्भ होती है| १३ वे – १४ वे गुणस्थानवर्ती केवलीयों में – तीर्थंकर केवली, सामान्य केवली, मूक केवली, उपसर्ग केवली, अंतःकृत केवली होते हैं| इनमें पुण्य विशेष के कारण तीर्थंकर केवली प्रमुख माने जाते हैं|
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अरिहन्त निम्नलिखित १८ दोषों  से पूर्ण रहित होते हैं-

१. जन्म २. जरा (वृद्धावस्था) ३. तृषा (प्यास) ४. क्षुधा (भूख) ५. विस्मय (आश्चर्य) ६. आरती ७. खेद ८. रोग ९. शोक
१०. मद (घमण्ड) ११. मोह १२. भय १३. निद्रा १४. चिन्ता १५. स्वेद १६. राग १७. द्वेष १८. मरण

 

 

णमो सिद्धाणं

सिद्ध शब्द का प्रयोग जैन धर्म में भगवान के लिए किया जाता हैं। जिन्होंने अष्ट कर्मों को नाश कर दिया है, जो शरीर से रहित हैं तथा ऊर्ध्वलोक के अंत में शाश्वत विराजमान हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं। या जो द्रव्यकर्म (ज्ञानावरणादि), भावकर्म (रागद्वेषादि) और नोकर्म (शरीरादि) से रहित हैं, उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं।
 
 सिद्ध पद को प्राप्त कर चुकी आत्मा संसार (जीवन मरण के चक्र) से मुक्त होती है। तीनों लोकों में मनुष्य और देवों के जो कुछ भी उत्तम सुख का सार है वह अनन्तगुण होकर के भी एक समय में अनुभव किए गए सिद्धों के सुख के समान नहीं है। अर्थात् समस्त संसार सुख के अनन्तगुणे से भी अधिक सुख को सिद्ध एक समय में भोगते हैं। 
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जैन दर्शन के अनुसार सिद्धों के अनन्त गुण होते हैं जिसमें आठ गुण प्रधान होते हैं-

१. क्षायिक समयक्त्व २. केवलज्ञान ३. केवलदर्शन ४. अनन्तवीर्य ५. अवगाहनत्व ६. सूक्ष्मत्व ७. अगुरुलघुत्व ८. अव्यबाधत्व

 

 

 

णमो आयरियाणं

णमो आयरियाणं यानि सभी आचार्य भगवंतों को नमस्कार हो । अरिहंत ( तीर्थंकर ) तो शासन की स्थापना करते हैं लेकिन उस शासन को आगे बढाने वाले आचार्य ही होते हैं ।
“आचार्याः जिनशासनो-न्नतिकराः ” अर्थात् आचार्य जिनशासन की उन्नति में तत्पर होते है । वे संघ का क्षेम एवं कुशलता का ध्यान रखते हैं| वह स्वयं पंचाचार ( दर्शनाचार, ज्ञानचार, चरित्राचार, तपचार एवं वीर्याचार ) का पालन करते हैं एवं अपने शिष्यों से पालन करवाते हैं|
कहा गया है – तित्थयर समो सूरि । नवपद पूजा की ढाल में भी कहा है – शुद्ध प्ररूपक गुण थकी , अरिहा सम भाख्या ! तीर्थंकर की वाणी का यथोचित आचरण करने वाले एव अन्य साधु साध्वी श्रावक श्राविका रुपी संघ से करवाने वाले नायक आचार्य होते हैं । विशिष्ट गुणों से युक्त साधुओं को ही आचार्य का दायित्व दिया जाता है । आचार्य सूरि मन्त्र की विशेष साधना करते हैं इसलिए शासन के कार्यों के लिए उनमे शक्तियां भी विशेष होती हैं ।
दिगम्बर संघ के कुछ अति प्रसिद्ध आचार्य हैं- आचार्य भद्रबाहु, आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य उमास्वामी, आचार्य आदिसागर |

दिगम्बर परम्परा में आचार्य के ३६ प्राथमिक गुण (मूल गुण) बताए गए हैं:

बारह प्रकार की तप (तपस्या);
दस गुण (दस लक्षण धर्म);
पंचाचार ( पांच प्रकार का आचरण – श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य)
छह आवश्यक ( कर्तव्यों )
गुप्ति ( मन, वचन, काय की किर्या को नियंत्रित करना)| { विशेष जानने के लिये – Click Here}

 

 

 

णमो उवज्झायाणं

उपाध्याय परमेष्ठि के साधु परमेष्ठि के समान ही 28 मूलगुण होते हैं लेकिन इनके 25 मूलगुण अलग से भी होते हैं यह दिक्षादि कार्यों को करने वाले आचार्य परमेष्ठि के संघ में ही रहते हैं |

जिन्हें ग्यारह अंग ( आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृ कथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग और विपाक सूत्रांग ) और चौदह पूर्वों ( उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, कर्मप्रवाद पूर्व, सत्प्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणप्रवादपूर्व, प्राणानुवाद पूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकविन्दुपूर्व ) का या उस समय के सभी प्रमुख शास्त्रों का ज्ञान है मुनि संघ में साधुओं को पढ़ाते हैं इसलिए इनके 25 मूलगुण अलग से कहे गए हैं यह स्वयं के ज्ञान ध्यान तप त्याग के साथ अन्य साधुओं को भी अध्यन अध्यापन कार्य करते हैं|

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णमो लोए सव्व साहूणं

जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से तथा आरम्भ और परिग्रह से रहित होते हैं, ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं ऐसे दिगम्बर मुनि मोक्षमार्ग का साधन करने वाले होने से साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।
इनके २८ मूलगुण होते हैं-
५ महाव्रत (  हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों का मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग कर देना)
५ समिति ( ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापना)
५ इन्द्रियविजय (  स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण-इन पाँचों इन्द्रियों को वश करना )
६ आवश्यक ( समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग )
७ शेषगुण (  स्नाना का त्याग, भूमि पर शयन, वस्त्र त्याग, केशों का लोच, दिन में एक बार लघु भोजन, दातोन का त्याग और खड़े होकर आहारग्रहण)
 
मुनि पाँच प्रकार के होते हैं— पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रंथ और स्तानक। 
एक और प्रकार से मुनि दो प्रकार के होते हैं—१. जिनकल्पी २. स्थविरकल्पी।

1. जितेन्द्रिय, सम्यक्त्व रत्न के विभूषित, एकादश अंग के ज्ञाता, निरंतर मौन रखने वाले, वङ्का वृषभमाराचसंहनन के धारी, वर्षाकाल में षट्मास निराहार रहने वाले व जिनभगवान सदृश विहार करने वाले जिनकल्पी है।

2.  जिनमुद्रा के धारक, संघ के साथ विहार करने वाले, धर्म प्रभावना तथा उत्तम-उत्तम शिष्यों के रक्षण व वृद्ध साधुओं के रक्षण व पोषण में सावधान रहने वाले साधु स्थविरकल्पी मुनि कहलाते हैं।

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