भाद्रपद, माघ और चैत्र मास में शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से लेकर तृतीया तक तीन दिन पर्यन्त लब्धि विधान व्रत किया जाता है। तिथि हानि होने पर एक दिन पहले से व्रत करना होता है और तिथि वृद्धि होने पर पहले वाला क्रम अर्थात् वृद्धिंगत तिथि छ: घटी से अधिक हो तो एक दिन व्रत अधिक करना चाहिए।
विवेचन-
भादों, माघ और चैत्र सुदी प्रतिपदा से तृतीया तक लब्धि विधान व्रत करने का नियम है। इस व्रत की धारणा पूर्णिमा को तथा पारणा चतुर्थी को करनी होती है। यदि शक्ति हो तो तीनों दिनों का अष्टमोपवास करने का विधान है। शक्ति के अभाव में प्रतिपदा को उपवास, द्वितीया को ऊनोदर एवं तृतीया को उपवास या कांजी-छाछ या माढ़भात लेना होता है। व्रत के दिनों में महावीर स्वामी की प्रतिमा का पूजन, अभिषेक किया जाता है तथा ‘ॐ ह्रीं महावीरस्वामिने नम:’ मंत्र का जाप प्रतिदिन तीन बार किया जाता है। त्रिकाल सामायिक करने का भी विधान है। रात्रि जागरण तथा स्तोत्र पाठ, भजन-गान आदि भी व्रत के दिनों की रात्रियों में किये जाते हैं। आवश्यकता पड़ने अथवा आकुलता होने पर मध्यरात्रि में अल्प निद्रा ली जा सकती है। कषाय और आरंभ परिग्रह को घटाना, विकथाओं की चर्चा का त्याग करना एवं धर्मध्यान में लीन होना आवश्यक है।
लब्धि विधान व्रत की महिमा
अवन्ती देश में पुष्पपुर नाम का एक नगर था। उस नगर के राजा का नाम महीचन्द्र तथा रानी का नाम सुन्दरी था। एक दिन उस नगर के बाहर चतुर्विध संघ सहित श्री अनंगभूषण आचार्य पधारे। राजा महीचन्द्र सभी नगर निवासियों के साथ मुनिराजों की वन्दना के लिये वहाँ आये और मुनियों की पूजन-वन्दना करके पास में बैठ गये। उसी समय वहाँ अत्यन्त कुरूपा तीन शूद्र कन्याएँ आर्इं। राजा ने धर्मोपदेश सुनने के बाद मुनिराज से प्रश्न किया कि हे भगवन्! इन तीन कन्याओं को देखकर मेरे हृदय में अधिक प्रेमभाव क्यों हो रहा है? मुनिराज अवधिज्ञानी थे, उन्होंने कहा कि इसका कारण पूर्वभव का सम्बन्ध है, सो सुनो! बनारस नगर के राजा विश्वलोचन की विशालाक्षी नाम की रानी थी। किसी दिन रानी अपनी रंगी और चमरी नाम की दो दासियों के साथ एक नाटक देखकर स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने के लिए रात्रि में घर से निकल गई और योगिनी का वेश बनाकर मायाचारी से वेश्यावृत्ति करने लगी। इधर राजा रानी के वियोग में मरकर अनेकों भवों में दु:ख उठाते हुए कदाचित् णमोकार मन्त्र के प्रभाव से तुमने यह उत्तम राज्य पद प्राप्त किया है। उस विशालाक्षी ने मद्य, माँस, मधु आदि का सेवन करते हुए एक दिन रात्रि में मुनिराज पर भयंकर उपसर्ग किया। अनन्तर रौद्र ध्यान से मरकर पाँचवें नरक में गई। वहाँ के दु:ख भोगकर वहाँ से निकलकर ये तीनों बिल्ली हुर्इं पुन: तीनों सूकरी हुर्इं पुन: कुत्ती हुर्इं, अनन्तर मुर्गी की योनियों में आर्इं। इन तीनों ने एक-साथ ही पाप किया और एक साथ ही कुफल का अनुभव करती रहीं। ये तीनों कन्याएँ गर्भ में आर्इं तब उनके कुटुम्बी लोग मर गये। इनमें से एक कानी, दूसरी लंगड़ी और तीसरी अत्यन्त कुरूपा थी। इन्होंने रानी के भव में मुनियों पर घोर उपसर्ग किये थे। मुनिराज के मुख से अपने पूर्वभवों को सुनकर ये तीनों कन्याएँ बहुत ही दु:खी हुर्इं और पाप से भयभीत हो गयीं। वे मुनिराज से प्रार्थना करने लगीं कि हे भगवन्! इन दु:खों से छूटने के लिये अब मुझे कोई उपाय बतलाइये।
मुनिराज ने उन तीनों को धर्म का उपदेश
मुनिराज ने उन तीनों को धर्म का उपदेश देकर कहा कि हे पुत्रियों! तुम लब्धिविधान व्रत करो तो सब दु:खों से छूट जावोगी। गुरूदेव के उपदेश से उन तीनों कन्याओं ने लब्धि विधान व्रत विधिपूर्वक करके उसका उद्यापन किया। श्रावकों के व्रत धारण कर लिये और अन्त में समाधिमरण धारण कर लिया। अरहंत देव के बीजाक्षर मन्त्रों का स्मरण करते हुए उन तीनों ने शरीर का त्याग किया और स्त्रीलिंग से छूटकर स्वर्ग में प्रभावशाली देव हो गये। मगध देश के अन्तर्गत एक ब्राह्मण नामक नगर में शांडिल्य नाम का एक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम स्थंडिला था। इन दोनों के विशालाक्षी का जीव देव पर्याय से गर्भ में आकर नव महीने के बाद पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ जिसका नाम इन्द्रभूति रखा गया। उसी ब्राह्मणी से दूसरे देव ने जन्म लिया, उसका नाम वायुभूति रखा गया। इस ब्राह्मण के एक दूसरी केसरी नाम की पत्नी थी। उससे तीसरे देव ने जन्म लिया जिसका नाम अग्निभूति रखा गया। बड़े होने पर ये तीनों ही भाई वेद-वेदांगों में, सभी विद्याओं में पारंगत थे। इन तीनों के पाँच-पाँच सौ शिष्य थे। भगवान महावीर को केवलज्ञान होने के बाद छ्यासठ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी, तब इन्द्र की कुशलता से ये इन्द्रभूति ब्राह्मण वहाँ गये और मानस्तम्भ का दर्शन करते ही मिथ्यात्व का वमन कर दीक्षित होकर प्रथम गणधर हो गये। ये दोनों भाई भी भगवान के गणधर हो गये। देखो बहनों! रानी ने स्वच्छन्दता में सुख समझा तब राज्य-वैभव के सुख ठुकरा दिये और कितने दु:ख उठाये पुन: लब्धिविधान व्रत और गुरूभक्ति के तथा जिनेन्द्र भगवान के सच्चे धर्म के प्रसाद से यह गणधर पद प्राप्त कर लिया। ये तीनों ही इसी भव से मोक्ष चले गये हैं। गणधर देव नियम से सर्व़द्र्धि-सम्पन्न और मुक्तिगामी होते हैं। पूर्व में भगवान ऋषभदेव के पुत्र अनन्तवीर्य ने भी इसी व्रत१ का अनुष्ठान किया था।