Karma and Reincarnation Explained

संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की इच्छा करता है और दु:ख से डरता है, कर्म का आत्मा के साथ संयुक्त होने से ही आत्मा विभिन्न योनियों, ऊँची-नीची गतियों में भ्रमण करता रहता है। प्राणी जो कुछ भी कर्म करता है, उन कर्मों का फल उसे भोंगना ही पड़ता है। यह उसका स्वाभाविक गुण है।

कर्म सिद्धान्त के अनुसार ही शुभ कर्मों का फल शुभ दायक और अशुभ कर्मों का फल अशुभ दायक होता है। जब यह जीव राग- द्वेष से युक्त होता है तब वह नवीन कर्मों का बंध करता है और इन नवीन कर्मों के कारण ही उसे नरक, मनुष्य, तिर्यंच और देव गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। इस नवीन जन्म को ही पुनर्जन्म, पूनर्भव, जन्मांतर, भावान्तर, परलोक, पुनरुत्पत्ति आदि नामों से जाना जाता है|

कर्म और आत्मा :

प्राणियों के पुनर्जन्म में कर्म का महत्वपूर्ण योगदान है। जैन आचार्यों ने यद्यपि आत्मा और कर्म का अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया है फिर भी इनका परस्पर घनिष्ठ समबन्ध को भी स्वीकारा है।

षटड्खण्डागम ग्रंथराज के अनुसार – ‘यत् क्रियते तत् कर्म’ 

अर्थात् किसी कार्य या व्यापार का करना कर्म कहलाता है। जैसे – पढ़ना, लिखना, सोना आदि क्रियाएँ कर्म है। 

जैन-साहित्य में कर्म को पुद्गल परमाणु पिण्ड माना गया है। तदनुसार यह लोक तेईस वर्गणाओं से व्याप्त है। उनमें से कुछ पुद्गल परमाणु कर्म-रूप से परिणत होते हैं, उन्हें कर्मवर्गणा कहते हैं। 

तत्वार्थवार्तिक के अनुसार – ‘‘निश्चयनय की दृष्टि से वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा आत्म-परिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्गल परिणाम एवं व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के द्वारा पुद्गल परिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्म-परिणाम करना कर्म है।’’

अनादिकालीन कर्मबंध से युक्त जीव जब रागादि कषायों से संतप्त होकर मानसिक, वाचिक या कायिक क्रिया करते हैं तब वह कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। जिस प्रकार लोहा चुम्बक की ओर आकर्षित होता है और रागादि परिणामों से नवीन कर्मों का बन्ध होता है जिससे नरकादि गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। 

कर्म- बंध के कारण

जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में अज्ञान के साथ राग- द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग को बंध का कारण माना है। तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच तत्वों को बंध का कारण बताया है। 

विपरीत श्रद्धा या तत्वज्ञान के अभाव को मिथ्यात्त्व कहते हैं। जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। 

हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरत न होना अविरति है। 

कुशल कार्यों के प्रति अनादर या अनास्था होना प्रमाद है। 

आत्मा के भीतर वे कलुष परिणाम, जो कर्मों के श्लेश के कारण होते हैं या जीव के जिन भावों के द्वारा संसार की प्राप्ति हो वे कषाय भाव हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय के चार भेद हैं। 

मन, वचन एवं काय की क्रिया के कारण आत्म प्रदेशों में होने वाला परिस्पन्दन योग है| 


कर्मबंध से मुक्ति का उपाय

कर्मबंधन से मुक्ति पाने के लिए दो उपायों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। प्रथम उपाय के द्वारा नवीन कर्मबन्ध को रोका जाता है और दूसरी विधि के द्वारा आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों को अपने विपाक के पूर्व ही तपादि के द्वारा अलग किया जाता है। ये क्रमश: संवर और निर्जरा के नाम से जाने जाते हैं। 

आचार्य अकलंकदेव ने तत्वार्थवार्तिक में लिखा है कि जिस प्रकार नगर की अच्छी तरह से घेराबंदी कर देने से शत्रु नगर के अन्दर प्रवेश नहीं पा सकता है ठीक उसी प्रकार गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और चारित्र द्वारा इन्द्रिय कषाय और योग को भली-भाँति संवृत कर देने पर आत्मा में आने वाले नवीन कर्मों का रुक जाना संवर है।

निर्जरा— आत्मप्रदेशों से कर्मों का छूटना निर्जरा कहलाता है। कर्मों की निर्जरा दो प्रकार से होती है – पद्ध सविपाक और पपद्ध अविपाक निर्जरा। यथासमय स्वयं कर्मों का उदय में आकर फल देकर अलग होते रहना सविपाक निर्जरा है।तपश्चरण के द्वारा कर्मों का आत्मा से अलग करना अविपाक निर्जरा है। अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का कारण है। 

आत्मवादी विचारकों के अनुसार पुनर्जन्म की व्याख्या

भारतीय विचारधारा में दो प्रकार के विचारों का वर्णन मिलता है। प्रथम विचारधारा के अनुसार ‘आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धांत’ को मान्यता प्राप्त है लेकिन दूसरी विचारधारा के अनुसार पुनर्जन्म सिद्धांत को मान्यता प्राप्त नहीं है। प्रथम विचारधारा के पोषक- न्याय वैशेषिक, सांख्य, योग, बौद्ध और जैन दर्शन और दूसरी विचारधारा में चार्वाक, यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म को रखा जाता है। इनको एक जन्म वादी कहा जाता है। इनके अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा नष्ट नहीं होती है। वह न्याय के दिन तक प्रतीक्षा में रहती है और न्याय के दिन तत्सम्बन्धी देवता द्वारा उनके कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक भेज देते हैं।

न्याय— दर्शन के मतानुसार शुभ-अशुभ कर्म करने से इसके संस्कार आत्मा में पड़ जाते है। वैशेषिक मतानुसार राग-द्वेष से धर्म और अधर्म की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति सुख-दु:ख को उत्पन्न करती है तथा ये सुख-दुख जीव के राग-द्वेष को उत्पन्न करते हैं। जिससे जन्म-मरण का चक्र चलायमान रहता है। षड्दर्शन रहस्य में पं. रंगनाथ पाठक लिखते है कि ‘‘जब तक धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति जन्य संस्कार बना रहेगा तब तक कर्मफल भोगने के लिए शरीर ग्रहण करना आवश्यक रहता है। शरीर ग्रहण करने पर प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण बाधनात्मक दु:ख का होना अनिवार्य रहता है। मिथ्या ज्ञान से दु:ख जीवन पर्यन्त अविच्छेदन – निरन्तर प्रवर्तमान होता है। यही संसार शब्द का वाच्य है। यह घड़ी की तरह निरन्तर अनुवृत्त होता रहता है। प्रवृत्ति ही पुन: आवृत्ति का कारण होती है।[२२] महर्षि गौतम के अनुसार ‘‘मिथ्या ज्ञान से राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न होता है। इन दोषों से प्रवृत्ति होती है तथा प्रवृत्ति से जन्म और जन्म से दु:ख होता है। न्याय और वैशेषिकों का मत है कि आत्मा व्यापक है। धर्म और अधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार मन में निहित होते हैं। अत: जब तक आत्मा का मन के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक आत्मा का पुनर्जन्म होता रहता है।

सांख्य और योग दर्शन में यह मान्यता है कि ‘‘जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप अनेक योनियों में भ्रमण करता है।सांख्य- योग चिन्तकों का सिद्धांत है कि शुभ और अशुभ कर्म स्थूल शरीर के द्वारा किये जाते हैं लेकिन वह उन कर्मों के संस्कारों का अधिष्ठाता नहीं है। शुभ और अशुभ कर्मों के अधिष्ठाता के लिए स्थूल शरीर से भिन्न सूक्ष्म शरीर की कल्पना की गयी है।[२५] पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच तन्मात्रओं, बुद्धि एवं अंहकार से सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है। मृत्यु होने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है किन्तु सूक्ष्म शरीर वर्तमान रहता है। इस सूक्ष्म शरीर को आत्मा का लिंग भी कहते हैं, जोप्रत्येक संसारी पुरुष के साथ रहता है। यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म का आधार है। आत्मा के मुक्त हो जाने पर वह उससे अलग हो जाता है।

मीमांसा दर्शन में न्याय— 

वैशेषिक की तरह मन को पुनर्जन्म का कारण मानकर पुनर्जन्म सिंद्धान्त की व्याख्या की गयी है। और वेदांत दर्शन में सांख्यों की तरह सूक्ष्म शरीर की कल्पना करके पुनर्जन्म का विश्लेषण किया गया है।

बोद्ध दर्शन के अनुसार ‘‘कुशल (शुभ) कर्म सुगति का और अकुशल- अशुभ कर्म दुर्गति का कारण है। ‘भव चक्र सम्बन्धी प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत के अनुसार ‘‘अविद्या और संस्कार ही हमारे पुनर्जन्म के कारण हैं। अविद्या का अर्थ है – अज्ञान। अवास्तविक को वास्तविक समझना, अनात्म को आत्म मानना अविद्या है। अविद्या- अज्ञान के कारण संस्कार होते हैं। संस्कार को मानसिक वासना भी कहते हैं। संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान वह चित्तधारा है जो पूर्व जन्म में कुशल- अकुशल कर्मों के कारण उत्पन्न होती है और जिसके कारण से मनुष्य को आँख, कान आदि विषयक अनुभूति होती है।[२७] विज्ञान के कारण नामरूप उत्पन्न होता है। रूप को नाम और वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान को रूप कहते हैं। मन और शरीर के समूह के लिए नाम-रूप का प्रयोग किया जाता है। नाम रूप षड़ायतन को उत्पन्न करता है। पांच इन्द्रियां और मन षड़ायतन कहलाता है। षडायतन स्पर्श का कारण है। इन्द्रिय और विषयों का संयोग स्पर्श है। स्पर्श के कारण वेदना उत्पन्न होती है। पूर्व इन्द्रियानुभूति वेदना कहलाती है। वेदना तृष्णा को उत्पन्न करती है। विषयों को भोगने की लालसा तृष्णा कहलाती है। तृष्णा उपादान को उत्पन्न करता है। सांसारिक विषयों के प्रति आसक्त रहने की लालसा उपादान है। उपादान भव का कारण है। भव का अर्थ है- जन्म ग्रहण करने की प्रवृत्ति। भव- जाति (पुनर्जन्म) का कारण है और जाति से ही जरा-मरण होता है। इस प्रकार इस पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है। अविद्या और तृष्णा ही पुनर्जन्म- चक्र के मुख्य चक्के हैं। बौद्ध दर्शन में पुनर्जन्म की यही प्रक्रिया है।

जैन विचारकों का मत है कि ‘‘आत्मा का पर-द्रव्य के साथ संयोग होने पर उसको विभिन्न योनियों में घूमना पड़ता है।’’

 हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रूप अशुभ कर्म करने से जीव नरकादि अशुभ और निम्न योनियों में भ्रमण करता है और अहिंसादि शुभ कर्म करने से जीव मनुष्य, देव आदि शुभ योनियों में जन्म लेता है।[३०] यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि आत्मा और कर्म का अनादिकाल से सम्बन्ध है, जिसके कारण जीव अनादिकाल से आवागमन रूप पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण करता रहता है।

जैनाचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार — 

‘इस संसारी जीव के अनादि कर्मबंध के कारण राग-द्वेष रूप स्निग्ध एवं अशुद्ध भाव होते हैं, उन अशुद्ध राग द्वेष रूप परिणामों के कारण ज्ञानावरणादि रूप आठ द्रव्य कर्मों का बंध होता है। इन द्रव्य कर्मों के उदय से जीव नरक, तिर्यंच मनुष्य और देव गतियों को प्राप्त करता है। इन गतियों में जन्म लेने से शरीर की उपलब्धि होती है और शरीर उपलब्ध होने पर इन्द्रियां होती हैं और इन्द्रियों के होने पर जीव विषय ग्रहण करता है तथा विषयों के ग्रहण करने से राग द्वेष उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार संसारी जीव कुम्भकार के चक्र के समान इस संसार में भ्रमण करता रहता है।[३१] इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि पुनर्जन्म का प्रमुख कारण कर्म और जीव का परिणाम है।

आचार्य अमृतचंद्र स्वामी के अनुसार— 

‘‘ यह जीव शरीर में दूध और पानी की तरह मिलकर रहता है तो भी अपने स्वभाव को छोड़कर शरीर रूप नहीं हो जाता है। रागादि भावों सहित होने के कारण यह जीव द्रव्यकर्म रूपी मल से मलिन हो जाने पर मिथ्यात्व रागादि रूप भाव कर्मों तथा द्रव्य कर्मों से रचित अन्य शरीर में प्रविष्ट होता रहता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि जीव स्वयं शरीरांतर में जाता है।

अन्य दर्शनों में जिसे सूक्ष्म शरीर की मान्यता प्रदान की है, जैन दर्शन में उसे पांच शरीरों में से एक कार्मण शरीर कहा गया है, जो समस्त अन्य शरीरों की अपेक्षा सूक्ष्म होता है। और जो समस्त संसारी जीवों को होता है। संसारी जीवों की मृत्यु के बाद औदारिकादि समस्त शरीर नष्ट हो जाते हैं, केवल कार्मण शरीर जीव के साथ रहता है। यही कार्मण शरीर जीव को विभिन्न योनियों में ले जाता है। जब तक जीव मुक्त नहीं हो जाता है तब तक इस शरीर का विनाश नहीं होता है। कार्मण शरीर ही अन्य समस्त शरीरों का कारण होता है। इस शरीर के नष्ट होने पर ही जीव का पुनर्जन्म नहीं होता है।

कर्मसिद्धांत के अध्ययन से यह बात मालूम होता है कि एक आनुपूर्वी नामक नामकर्म होता है। यही नामकर्म जीव को अपने उत्पत्ति स्थान तक उसी प्रकार पहुँचा देता है, जिस प्रकार रज्जू (रस्सी) से बंधा हुआ बैल अभिमीँट स्थान पर ले जाया जाता है। आनुपूर्वी कर्म वक्रगति करने वाले जीव की सहायता करता है। कार्मण शरीरयुक्त जीव अभीष्ट जन्मस्थान पर पहुँचकर औदारिकादि शरीर का स्वयं निर्माण करता है। जैन दर्शन में पुनर्जन्म की यही विधि है।

पुनर्जन्म सिद्धान्त की सिद्धि

भारतीय मनीषियों ने अनेक युक्तियों एवं प्रमाण द्वारा पुनर्जन्म सिद्धान्त को सिद्ध किया है-

नवजात शिशु में हर्ष, भय, शोक, माँ का स्तनपान आदि क्रियाओं से पुनर्जन्म सिद्धांत की पुष्टि होती है क्योंकि उसने इस जन्म में हर्षादि का अनुभव नहीं किया है, जब कि ये सब क्रियाएं पूर्वाभ्यास से ही सम्भव हैं। अनन्तवीर्य ने सिद्धविनिश्चय टीका में इसी तर्क से पुनर्जन्म सिद्धांत की सिद्धि की है। जिस प्रकार एक युवक का शरीर शिशु की उत्तरवर्ती अवस्था है, इसी प्रकार शिशु का शरीर पूर्व जन्म के पश्चात् होने वाली अवस्था है। यदि ऐसा न माना जाए तो पूर्व जन्म में भोगे हुए तथा अनुभव किये हुए का स्मरण न होने से तत्काल प्राणियों में उपर्युक्त भयादि प्रवृत्तियाँ कभी नहीं होंगीं लेकिन उनमें उपर्युक्त प्रवृत्तियाँ होती हैं। अत: पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार्य योग्य है।