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Jain doctrine

जैन सिद्धांत !! Jain doctrine !!


 1. अनेकान्त- 

अनेक+अन्त= अनेकान्त। अनेक का अर्थ है-एक से अधिक, अन्त का अर्थ है गुण या धर्म वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक गुणों या धर्मों के विद्यमान रहने को अनेकान्त कहते हैं। इसे ऐसा समझ सकते हैं कि जीव की पर्यायें बदलती रहती हैं इसलिए जीव अनित्य है, लेकिन उन सभी पर्यायों में एक वही जीव जाता हैं इसलिए जीव नित्य है| इस प्रकार एक जीव में ही ये नित्य और अनित्य दोनों धर्म पाये जाते हैं| 

2.स्याद्वाद- 

अनेकान्त धर्म का कथन करने वाली भाषा पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं। स्यात् का अर्थ है कथंचित् किसी अपेक्षा से एवं वाद का अर्थ है कथन करना। जैसे- रामचन्द्र जी राजा दशरथ की अपेक्षा से पुत्र हैं एवं रामचन्द्र जी लव-कुश की अपेक्षा से पिता हैं।

3. अहिंसा– 

जैनधर्म में अहिंसा प्रधान है। मन, वचन और काय से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाना एवं अन्तरङ्ग में राग-द्वेष परिणाम नहीं करना अहिंसा है।

4. अपरिग्रहवाद– 

समस्त प्रकार की मूर्च्छा/आसक्ति का त्याग करना एवं मूर्च्छा का कारण पर पदार्थों का त्याग करना अपरिग्रहवाद है। अपरिग्रहवाद का जीवन्त उदाहरण दिगम्बर साधु है। अपरिग्रहवाद के सिद्धान्त को विश्व मान ले तो विश्व में अपने आप सामंजस्य आ जाएगा।

 5. प्राणी स्वातंत्र्य- 

संसार का प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र है। जैसे- प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री बन सकता है। उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा-परमात्मा बन सकती है। पहले ये जीव संसारी अवस्था में राग-द्वेष से भरा रहता है, जब वह जीव तप-त्याग के द्वारा अपने इन विकारों को पूर्णतः नष्ट कर देता हैं तो वही जीव परमात्मा बन जाता है, किन्तु परमात्मा बनने के लिए जिस उत्कृष्ट तप-त्याग की आवश्यकता होती है वह बिना दिगम्बर मुनि बने नहीं हो सकता है।

6. सृष्टि शाश्वत है- 

इस सृष्टि को न किसी ने बनाया है,  न इसको कोई नाश कर सकता है, न कोई इसकी रक्षा करता है। यदि सृष्टि का निर्माण किसी ईश्वर कृत माना जायेगा तो इसमें सबसे बड़ी बाधा यह आयेगी कि इस सृष्टि के निमार्ण से पूर्व इसकी रचना करने वाला ईश्वर कहाँ रहता था और वो जहाँ भी रहता था उसके उस स्थान की रचना किसने की?

7. ‘अवतारवाद नहीं- 

संसार से मुक्त होने के बाद परमात्मा पुनः संसार में नहीं आता है। जैसे- दूध से घी बन जाने पर पुनः वह घी, दूध के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकता है। उसी प्रकार परमात्मा (भगवान) पृथ्वी पर अवतार नहीं लेते हैं। 

8. पुनर्जन्म- 

जैनधर्म पुनर्जन्म को मानता है। प्राणी मरने के बाद पुनः जन्म लेता है। जन्म लेने के बाद पुनः मरण भी हो सकता है, मरण न हो तो निर्वाण भी प्राप्त कर सकता है, किन्तु निर्वाण के बाद पुनः उसका जन्म नहीं होता है।

9. ईश्वरीय मान्यता- 

जैन धर्म ईश्वर को मनाता है, लेकिन ईश्वर पूर्ण वीतरागी होते हैं क्योंकि यदि ईश्वर भी हमारी तरह राग-द्वेष करने वाला होगा तो उसमें और हम में अंतर ही क्या रह जायेगा| चूकिं ईश्वर पूर्ण वीतरागी होते हैं इसलिये वह किसी को शाप अथवा वरदान नहीं देता क्योंकि यह तभी संभव है जब उसमें किसी के प्रति राग एवं किसी के प्रति द्वेष का भाव हो| भगवान मात्र देखते जानते हैं वे किसी को सुखी-दुःखी नहीं करते हैं। जीव अपने ही कर्मों से सुखी-दुःखी होता है।

10. द्रव्य शाश्वत् है-

द्रव्य का कभी नाश नहीं होता मात्र पर्याय बदलती रहती है। आत्मा भी एक द्रव्य है वह न जन्मती है और न मरती है मात्र पर्याय बदलती है।

11. कर्म की प्रधानता-

जैन धर्म के अनुसार हमारे पूर्व भव के कर्म ही इस बात का निर्णय करते हैं कि हमारा वर्तमान जीवन कैसा होगा, हमारा कुल-वंश, शरीर का रंग-रूप, अमीरी-निर्धनता, सुख-दुःख आदि| प्रत्येक जीव को अपने किए हुए कर्मों के अनुसार फल मिलता है। उसके लिए न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे- शराब पीने से नशा होता है और दूध पीने से ताकत आती है। शराब या दूध पीने के बाद उसके फल देने के लिए किसी दूसरे निर्णायक की आवश्यकता नहीं है।

12.जैन धर्म में मुख्य पाप-

जैन धर्म में ५ पाप मुख्य हैं- १. हिंसा, २. झूठ, ३. चोरी, ४. कुशील (अब्रह्म), ५. परिग्रह|

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