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जैन धर्म का इतिहास !!  History of Jainism !!


इतिहास की दृष्टि से देखें तो जैन धर्म का इतिहास वर्तमान में दिखाई देने वाले इस पृथ्वी से भी प्राचीन है क्योंकि वर्तमान में हमें जो पृथ्वी का हिस्सा दिखाई दे रहा है  वह जैन शास्त्रों के अनुसार भरत क्षेत्र के छह हिस्सों में से मात्र एक हिस्सा है जिसे आर्य खण्ड कहा जाता है और यह आर्य खण्ड प्रत्येक अवसर्पिणी काल  के अंत में प्रलय को प्राप्त हो जाता है, जबकि जैन धर्म अनादि-अनिधन है| 

फिर भी जो जैन धर्म इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम भगवान आदिनाथ स्वामी के द्वारा प्रवर्तित किया गया है उसके इतिहास के विषय में अन्य-अन्य मतों एवं इतिहासकारों का क्या मत है ये हम जानने का प्रयास करते हैं 

जैनधर्म की प्राचीनता-

  • पुरातत्त्व विभाग के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार सिद्ध होती है ?

पुरातत्त्व को दृष्टि से जैनधर्म की प्राचीनता इस प्रकार से सिद्ध होती है। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. राखलदास बनर्जी ने सिन्धु घाटी की सभ्यता का अन्वेषण किया है। यहाँ के उत्खनन में उपलब्ध सील (मोहर) नं. 449 में कुछ लिखा हुआ है। इस लेख को प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार ने जिनेश्वर (जिन-इ-इ-इसर) पड़ा है। पुरातत्त्वज्ञ रायबहादुर चन्द्रा का वक्तव्य है कि सिन्धु घाटी की मोहरों में एक मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें मधुरा को तीर्थङ्कर ऋषभदेव की खड्गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव दृष्टिगोचर होते हैं। सोल क्र. द्वितीय एफ.जी.एच. में जो मूर्ति उत्कीर्ण है, उसमें वैराग्य मुद्रा तो स्पष्ट है ही, उसके नीचे के भाग में तीर्थकर ऋषभदेव का चिह्न बैल का सद्भाव भी है। इन्हीं सब आधारों पर अनेक विद्वानों ने जैनधर्म को सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल का माना है। सिन्धु घाटी की सभ्यता आज से 5000 वर्ष पुरानी स्वीकार की गई है।

हड़प्पा से प्राप्त नग्न मानव धड़ भी सिन्धु घाटी सभ्यता में जैन तीर्थङ्करों के अस्तित्व को सूचित करता है। केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक टी. एन. रामचन्द्र ने उस पर गहन अध्ययन करते हुए लिखा है. हड़प्पा की खोज में कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्णित मूर्ति पूर्ण रूप से दिगम्बर जैन मूर्ति है। मथुरा का कंकाली टोला जैन पुरातत्त्व को दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। वहाँ को खुदाई से अत्यन्त प्राचीन देव निर्मित स्तूप (जिसके निर्माण काल का पता नहीं है) के अतिरिक्त एक सौ दस शिलालेख एवं सैकड़ों प्रतिमाएँ मिली हैं जो ईसा पूर्व दूसरी सदी से बारहवीं सदी तक की है।

पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार उक्त स्तूप का ई.पू. आठ सौ वर्ष में पुनर्निर्माण हुआ था। डॉ. विन्सेन्ट ए. स्मिथ के अनुसार मथुरा सम्बन्धी अन्वेषणों से यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म के सोरों का अस्तित्व इंसा सन् से बहुत पूर्व से विद्यमान था तौर ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता प्राचीनकाल से प्रचलित थी। सम्राट खारवेल द्वारा उत्कॉर्णित हाथी गुफा के शिलालेख से यह सिद्ध होता है- ऋषभदेव की प्रतिमा को स्थापना, पूजा का प्रचलन सर्व प्राचीन है।

  • वैष्णव धर्म के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार से सिद्ध होती है ?

वैष्णव धर्म के विभिन्न शास्त्रों एवं पुराणों के अन्वेषण से ज्ञात होता है कि जैनधर्म की प्राचीनता कितनी अधिक है जिसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-

1. शिवपुराण में लिखा है-

अष्टपष्ठिसु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । श्री आदिनाथ देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥

अर्थ- अड़सठ (68) तीर्थों की यात्रा करने का जो फल होता है, उतना फल मात्र तीर्थङ्कर आदिनाथ के स्मरण करने से होता है।

2. महाभारत में कहा है-

युगेयुगे महापुण्यं दृश्यते द्वारिका पुरी,

अवतीणों हरियंत्र प्रभासशशि भूषणः ।

रेवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादि विंमलाचले,

ऋषीणामा श्रमादेव मुक्ति मार्गस्य कारणम् ॥

अर्थ- युग-युग में द्वारिकापुरी महाक्षेत्र है, जिसमें हरि का अवतार हुआ है। जो प्रभास क्षेत्र में चन्द्रमा की तरह शोभित है और गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ और कैलास (अष्टापद) पर्वत पर आदिनाथ हुए हैं। यह क्षेत्र ऋषियों का आश्रय होने से मुक्तिमार्ग का कारण है।

3. महाभारत में कहा है-

आरोहस्व रथं पार्थ गांढीवं करे कुरु।

निर्जिता मेदिनी मन्ये निग्रंथा यदि सन्मुखे ॥

अर्थ-हे अर्जुन ! रथ पर सवार हो और गांडीव धनुष हाथ में ले, मैं जानता हूँ कि जिसके सन्मुख दिगम्बर मुनि आ रहे हैं उसकी जीत निश्चित है।

4. ऋग्वेद में कहा है-

ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितानां चतुर्विंशति तीर्थङ्कराणाम् ।

ऋषभादिवर्द्धमानान्तानां सिद्धानां शरणं प्रपद्ये ।

अर्थ-तीन लोक में प्रतिष्ठित आदि श्री ऋषभदेव से लेकर श्री वर्द्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थङ्कर हैं। उन सिद्धों की शरण को प्राप्त होता हूँ।

5. ऋग्वेद में कहा है-

ॐ नग्नं सुधीर दिग्वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं|

पुरुषमहतमादित्य वर्ण तसमः पुरस्तात् स्वाहा ॥

अर्थ- मैं लग्न और सीर दिगम्बर सनातन अहंत आदित्यवर्ण पुरुष की शरण को प्राप्त होता हूँ।

6. यजुर्वेद में कहा है-

ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो ।

अर्थ-नामपूज्य ऋषभदेव को प्रणाम हो

7. दक्षिणा मूर्ति सहस्रनाम ग्रन्थ में लिखा है-

शिव उवाच। जैन मार्गरतो जैनो जितक्रोधो जितामयः।

अर्थ- शिवो बोले, जैन मार्ग में रति करने वाला जैनी क्रोध को जीतने वाला और रोगों को जीतने वाला है।

8. नगर पुराण में कहा है-

दशभिभोजितैर्विप्रेः यत्फलं जायते कृते ।

मुनेरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कलौ ॥

अर्थ- सतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन देने से जो फल होता है। उतना ही फल कलियुग में अर्हन्त भक्त एक मुनि को भोजन देने से होता है।

9. भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अध्याय 2 से 6 तक ऋषभदेव का कथन है। जिसका भावार्थ यह है कि चौदह मनुओं में से पहले मनु स्वयंभू के पौत्र नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुए, जो दिगम्बर जैनधर्म के आदि प्रचारक थे। ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव का 141 ऋचाओं में स्तुति परक वर्णन किया है। ऐसे अनेक ग्रन्थों में अनेक दृष्टान्त हैं। 

  • बौद्धधर्म के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार से सिद्ध होती है ?

” बौद्ध महावग्ग में लिखा है”- वैशाली में सड़क-सड़क पर बड़ी संख्या में दिगम्बर साधु प्रवचन दे रहे थे।

“अगुत्तर निकाय में लिखा है”- नाथपुत्र (तीर्थङ्कर महावीर) सर्वदृष्टा, अनन्तज्ञानी तथा प्रत्येक क्षण पूर्ण सजग एवं सर्वज्ञ रूप से स्थित थे।

“मंजू श्रीकल्प” में तीर्थङ्कर ऋषभदेव को निर्ग्रन्थ तीर्थङ्कर व आप्त देव कहा है।

“न्यायबिन्दु” में तीर्थङ्कर महावीर को सर्वज्ञ अर्थात् केवलज्ञानी आप्त तीर्थङ्कर कहा है।

“मज्झिमनिकाय” में लिखा है- तीर्थङ्कर महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सम्पूर्ण ज्ञान व दर्शन के ज्ञाता थे।

” दीर्घ निकाय” में लिखा है- भगवान् महावीर तीर्थङ्कर हैं, मनुष्यों द्वारा पूज्य हैं, गणघराचार्य हैं।

  • आगम के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार से सिद्ध होती है ?

मगध के राजा बिंबसार (श्रेणिक) और अजातशत्रु (कूणिक) को जैनधर्म का अनुयायी कहा गया है। राजसिंह श्रेणिक द्वारा महावीर से प्रश्न पूछे जाने का उल्लेख जैन शास्त्रों में आता है।

चंपा नगरी में महावीर भगवान के समवसृत होने पर अजातशत्रु का अपने दलबल सहित उनके दर्शनार्थ गमन करने का वर्णन प्राचीन आगमों में मिलता है।

नंद राजाओं के समय भद्रबाहु और स्थूलभद्र बड़े प्रतिभाशाली जैन आचार्य हुए जिन्होंने जैन धर्म को समुन्नत बनाया। आचार्य महागिरि स्थूलभद्र के प्रधान शिष्यों में से थे। तत्पश्चात् पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य (३२५-३०२ ईo पूर्व) का राज्य हुआ। इस समय मगध में भयंकर दुष्काल पड़ा और जैन साधु मगध छोड़कर चले गए। दुष्काल समाप्त होने पर जब लौटकर आए तब पाटलिपुत्र में जैन आगमों की प्रथम वाचना हुई जो ‘पाटलिपुत्र-वाचना’ के नाम से कही जाती है। दिगंबर जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ग्रहण की और दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला में देह-त्याग किया।

चंद्रगुप्त के बाद अशोक (२७२-२३२ ईo पूo) के पौत्र राजा संप्रति (२२०-२११ ईo पूo) का नाम जैन ग्रंथों में बहुत आदर के साथ लिया जाता है। आचार्य महागिरि के शिष्य सुहस्ति ने संप्रति को जैन धर्म में दीक्षित किया। संप्रति ने महाराष्ट्र, आंध्र. द्रविड़, कुर्ग आदि प्रदेशों में अपने सुभटों को भेजकर जैन श्रमणसंघ की विशेष प्रभावना की।

कलिंग का सम्राट् खारवेल जैन धर्म का परम अनुयायी था। मगध का राजा नंद, जो जिन-प्रतिमा उठाकर ले गया था, उसे वह वापस लाया।

कटक के पास उदयगिरि से प्राप्त, शिलालेखों से पता चलता है कि खारवेल ने ऋषभ की प्रतिमा निर्माण कराई और जैन साधुओं के रहने के लिये गुफाएँ खुदवाईं। तत्पश्चात् ईसवी सन् के पूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल से उत्तेजित किए जाने पर कालकाचार्य का ईरान जाकर शक राजाओं को हिंदुस्तान में लाने का उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलता है। कालकाचार्य को प्रतिष्ठान (पैठन, महाराष्ट्र) के राजा सातवाहन का समकालीन बताया गया है। फिर आचार्य पादलिप्त, वज्रस्वामी और आर्यरक्षित ने संघ का अधिपतित्व किया। इस प्रकार जैन धर्म की उन्नति होती गई और अब वह दूर दूर तक फैल गया।


मथुरा में ईसवी सन् के आरंभ के जो शिलालेख उपलब्ध हुए हैं। उनसे पता लगता है कि किसी समय मथुरा जैन धर्म का बड़ा केंद्र था तथा व्यापारी और निम्नवर्ग के लोग इस धर्म के अनुयायी थे। यहाँ के शिलालेखों में जो जैन आचार्यों के गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है वह भद्रबाहु के कल्पसूत्र की स्थाविरावलि में ज्यों का त्यों मिलता है। ईसवी सन् ३६०-७३ के लगभग आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में जैन आगमों की दूसरी वाचना हुई, इससे भी मथुरा के महत्त्व का पता चलता है। इस काल के प्रमुख जैन आचार्यो में उमास्वाति, कुंदकुंद, सिद्धसेन और समंतभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल से जैन साहित्य को पुष्पित और पल्लवित किया। मथुरा के कंकाली टीला नामक पुरातात्विक स्थल पर चार तीर्थंकरों की मूर्ति शिला में प्राप्त हुई हैं 

गुप्त राजाओं का काल भारतवर्ष का सुवर्णकाल कहा जाता है। इस समय जैन धर्म उत्तरोत्तर उन्नत दशा को प्राप्त होता गया। गुजरात में गिरनार और शत्रुंजय जैनों के परम तीर्थ माने गए हैं। ईसवीं सन् की ७वीं शताब्दी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के अधिपतित्व में वल्लभी में जैन आगमों की अंतिम वाचना स्वीकार कर उन्हें लिपिबद्ध कर दिया गया। आगे चलकर चावड़ा वंश के राजा वनराज ने राजगद्दी पर आसीन होने के पूर्व (७२०-७८०) जैन मुनि शीलगुणसूरि के उपदेश से प्रभावित हो गुजरात का प्रसिद्ध अणहिल्लपुर पाटण नाम का नगर बसाया। आचार्य् हरिभद्र और अकलंक जैसे प्रकांड विद्वानों का इस समय जन्म हुआ; जिन्होंने न्यायसिद्धांत आदि विषयों पर ग्रंथ लिखकर जैन धर्म को समुन्नत किया।

फिर चालुक्य वंश के स्थापक राजा मूलराज (९६१-९९६) ने जैन मंदिर का निर्माण कराया। अणहिल्लपुर पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्र (जन्म १०८८ ईo) के समकालीन थे। सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु हो जाने पर उनका भतीजा कुमारपाल गुजरात की गद्दी पर बैठा। कुमारपाल, हेमचंद को राजगुरु की तरह मानते थे। इस समय आदर्श जैन राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया जिसके फलस्वरूप अनेक सुंदर जैन मंदिरों का निर्माण हुआ; प्राणि हिंसा, शिकार, मांस-भक्षण आदि को रोकने की घोषणा की गई और यज्ञ के अवसर पर पशुहिंसा के बदले ब्राह्मणों को अनाज होम करने का आदेश दिया गया। इसी समय वस्तुपाल और तेजपाल मंत्रियों ने गिरनार, शत्रुंजय तथा आबू पर्वतों पर कलापूर्ण भव्य मंदिरों का निर्माण किया।

दक्षिण भारत में भी जैनधर्म का प्रसार हुआ, खासकर दिगंबर जैनों का वहाँ प्रवेश हुआ। ईसा सन् की प्रारंभिक शताब्दियों से ही तमिल साहित्य पर जैन धर्म का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चोल और चेर इस धर्म के अनुयायी बने। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास राज्य के उत्तरी भाग, कुर्ग, आंध्र और मैसूर राज्य में अनेक जैन धर्मानुयायी लोग बसते थे, इसा पता इन स्थानों के जीर्णशीर्ण देवालयों और शिलालेखों से लगता है। कर्नाटक दिगंबर संप्रदाय का मुख्य धाम था। दिगंबर आचार्य समंतभद्र और पूज्यपाद ने इस प्रदेश में घूम घूमकर जैने धर्म का अभ्युत्थान किया था। गंग और राष्ट्रकूट राजवंशों के आश्रय से जैन धर्म उन्नत हुआ। गंगवंशी राजा राजमल्ल के मंत्री और सेनापति तथा सिद्धांतचक्रवर्ती नेमिचंद्र के गुरु चामुंडराय ने सन् ९८० में अरिष्टनेमि का भव्य देवालय और गोम्मटेश्वर में बाहुवली जी की विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया। चामुंडराय सुप्रद्धि कविरत्न का आश्रयदाता था। राष्ट्रकूट वंश के राजाओं में अमोघवर्ष प्रथम (८१५-८७७ ईo) जैन आचार्य जिनसेन के शिष्य थे। अमोघवर्ष ने जिनसेन के शिष्य गुणभद्र को भी आश्रय दिया। कदंबवंशी भी अधिकतर जैने धर्म के अनुयायी रहे।

मुसलमानों के राज्य में अनेक बादशाहों ने जैन मुनियों को सम्मानित कर उच्च पद पर बैठाया। सुलतान फिरोजशाह तुगलक (१३५१-१३८८) ने रत्नशेखरसूरि को, तुगलक सुल्तान मुहम्मद शाह ने जिरप्रभसूरि के और सम्राट् अकबर (१५५६-१९०५) ने हरिविजयसूरि को सम्मानित किया। इसी प्रकार औरंगजेब (१६५९-१७०७) ने अपने दरबार के जवेरी शांतिदास जैन को शत्रुंजय पर्वत और उसकी दो लाख की आमदनी, तथा अहमदशाह बहादुर (१७४८-१७४५) ने जगत्सेठ महताबराय को पारसनाथ पर्वत देकर पुरस्कृत किया।

  • विद्वानों के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार सिद्ध होती है ?

1. जर्मन विद्वान डॉक्टर जैकोबी इसी मत से सहमत हैं कि ऋषभदेव का समय अब से असंख्यात वर्ष पूर्व का है।

2. श्री हरिसत्य भट्टाचार्य की लिखी- ‘भगवान् अरिष्टनेमि नामक’ अंग्रेजो पुस्तक में तीर्थङ्कर नेमिनाथ को ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार किया गया है।

3. डॉ. विन्सेन्ट ए. स्मिथ के अनुसार मथुरा सम्बन्धी खोज ने जैन परम्पराओं को बहुत बड़ी मात्रा में समर्थन प्रदान किया है। जो जैनधर्म की प्राचीनता और उसकी सार्वभौमिकता के अकाट्य प्रमाण है। मथुरा के जैन स्तूप तथा 24 तीर्थङ्करों को चिह्न सहित मूर्तियों की प्राप्ति ईसवी सन् के प्रारम्भ में भी जैनधर्म था यह सिद्ध करती है। 

4. मद्रास के प्रोफेसर चक्रवर्ती ने ‘वैदिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ पुस्तक में यह प्रमाणित किया है कि ‘जैनधर्म उतना ही प्राचीन है जितना कि हिन्दू धर्म प्राचीन है’।

5. डॉ. राधाकृष्णन ने इंडियन फिलासफी पू. 287 में स्पष्ट लिखा है कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक लोग तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा किया करते थे।

6. 30 नवम्बर 1904 को बड़ौदा में श्री लोकमान्य बालगङ्गाधर तिलक ने व्याख्यान दिया था कि ब्राह्मण धर्म पर जैनधर्म ने अपनी अक्षुण्ण छाप छोड़ी है। अहिंसा का सिद्धान्त जैनधर्म में प्रारम्भ से है। आज ब्राह्मण और सभी हिन्दू लोग माँस भक्षण तथा मंदिरापान में जो प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, वह जैनधर्म की ही देन और जैनधर्म का ही प्रताप है। यह दया, करुणा और अहिंसा का ऐसा प्रचार-प्रसार करने वाला जैनधर्म चिरकाल तक स्थायी रहेगा।

7. डॉ. कालिदास नाग ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ एशिया’ में जो नम्न मूर्ति का चित्र प्रकाशित किया था वह दस हजार वर्ष पुराना है। उसे डॉक्टर साहब ने जैन मूर्ति के अनुरूप माना है।

8.  श्री चित्संग ने ‘उपाय हृदय शास्त्र’ में भगवान् ऋषभदेव के सिद्धान्तों का विवेचन चीनी भाषा में किया है। चीनी भाषा के विद्वानों को भगवान ऋषभदेव के व्यक्तित्व और धर्म ने बहुत प्रभावित किया है।

9.  इटली के प्रो. ज्योसेफ टक्सी को एक तीर्थदूर की मूर्ति तिब्बत में मिली थी, जिसे वह रोम ले गए थे। इस से स्पष्ट होता है कि कभी तिब्बत में भी जैनधर्म प्रचलित था।

10. यूनानी लेखकों के कथन से यह सिद्ध होता है कि पायथागोरस डायजिनेश जैसे यूनानी तत्त्ववेत्ताओं ने भारत में आकर ‘जैन श्रमणों’ से शिक्षा, दीक्षा (नियम) ग्रहण की थी। यूनानी बादशाह सिकन्दर के साथ धर्म प्रचार के लिए कल्याण मुनि उनके देश में गए थे।

11. जापान के प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता प्रो. हाजिमे नाकामुरा लिखते हैं कि बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों के चीनी भाषा में जो रूपांतरित संस्करण उपलब्ध हैं, उनमें यत्र-तत्र जैनों के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव के विषय में उल्लेख मिलते हैं, तीर्थङ्कर ऋषभदेव के व्यक्तित्व से जापानी भी अपरिचित नहीं है। जापानी तीर्थङ्कर ऋषभदेव को “राकूशव” कहकर पहचानते हैं।

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