हाथी गुम्फा, अभिलेख में निहित सांस्कृतिक तत्व
(सारांश)
उड़ीसा की वर्तमान राजधानी भुवनेश्वर के समीप खण्डगिरि
उदयगिरि तीर्थ से दक्षिण की ओर स्थित एक गुफा में उत्कीर्ण १७ पंक्तियों का यह शिलालेख भारत के प्राचीन शिलालेखों में से एक है। भारतीय इतिहास, काल निर्धारण एवं ईसा पूर्व की घटनाओं के विश्लेषण की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व है। प्रस्तुत आलेख में श्वेताम्बर परम्परा मान्य जैन साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भों के आधार पर इसका विशेष सांस्कृतिक महत्व प्रतिपादित किया गया है।
संस्कृति का स्वरूप
जैन परम्परा के अनुसार मानव का विकास प्राकृतिक संघर्ष से हुआ है। भोग भूमि से संक्रमण कर कर्मभूमि का तात्पर्य यही है कि उसे शीत, ऊष्णता, ताप, वर्षा, क्षुधा, पिपासा आदि से संघर्ष करना पड़ा और फलत: उसने इन प्राकृतिक शक्तियों को अपने अनुकूल बनाकर भौतिक समृद्धि में पर्याप्त वृद्धि की। वर्तमान में तो रेल, यंत्र, तार, वायुयान आदि का और भी विकास हुआ। यह सब विकास सभ्यता की देन है। जिस प्रक्रिया से मानव और प्रकृति के विविध तत्वों में समायोजन होता है वह सभ्यता कहलाती है। इसमें मानव बाह्य प्रकृति से संघर्ष कर अपना जीवन—स्तर ऊँचा करता है और फिर अन्तर्जगत और आनुभूतिक प्रदेश के विविध तत्वों में भी समायोजन कर सुसंस्कृत होने का प्रयत्न करता है। मालिनोबस्की ने तो समस्त सामाजिक देनों को संस्कृति की परिधि में रख दिया है। आर्थिक संगठन, विधि और शिक्षा संस्कृति की उपादानात्मक आवश्यकताएँ है और जादू—टोना, धर्म, ज्ञान और कला संस्कृति की समन्वयात्मक आवश्यकता का सम्मिलित रूप ही संस्कृति है। बाह्य आवश्यकताओं की पूर्ति में बर्बरता का परित्याग कर जब प्रकृति—विजय में उसे प्रयत्न करना पड़ता है तो उसे ‘सभ्य’ होने की आवश्यकता होती है। सामाजिक, आर्थिक, यांत्रिक और राजनीतिक जीवन से अधिक समृद्ध करना ही सभ्यता का महान् उद्देश्य होता है। स्वस्थ नागरिकता ही सभ्यता का मूल है। आवश्यकता की पूर्ति में सभ्यता की आवश्यकता होती है। राज्य का सम्बन्ध इसी प्रकार की सभ्यता का विकास कर समस्त साधनों के विकास के साथ होता है। बाह्य आवश्यकताओं की र्पूित करना और उस पर जन—समुदाय का राजकीय नियंत्रण होना सभ्यता की परिधि है। सभ्यता की यह अपूर्णता संस्कृति पूरा कर देती है। संस्कृति का सम्बन्ध सुसंस्कारों से होता है। अर्थात् अच्छे संस्कारों के परिणाम और भाव को ही हम ‘संस्कृति’ कहते हैं। सम्पूर्ण चरित्र, कर्म और संस्कारों का समुच्चय ही मनुष्य का व्यक्तित्व होता है। इसी को ‘शील’ कहा जाता है। प्रकृति का दुरुपयोग करने से विकृति आती है और उस विकृति को दूर करने के लिए संस्कृति की आवश्यकता होती है। उसी को धर्म कहा जाता है। इन्द्रियग्राह्य सुखों से ऊपर उठकर परमानन्द का अनुसंधान करना संस्कृति का काम है। संस्कृति ही जीवन के ध्येय को सुनिश्चित करती है। धर्म, संस्कृति का प्रथम सोपान है। उसी से व्यक्ति की सुरक्षा होती है|
सभ्यता और संस्कृति
सामान्य व्यवहार में ‘संस्कृति’ और ‘सभ्यता’ शब्दों का बहुधा समान अर्थ में प्रयोग दिखाई देता है। पर स्थिति ऐसी नहीं है। संस्कृति उन गुणों का समुदाय है जो व्यक्तित्व को समृद्ध और परिष्कृत बनाते हैं। चिंतन और कलात्मक सर्जन की वे क्रियाएँ संस्कृति में आती हैं, जो मानव जीवन के लिए प्रत्यक्ष में उपयोगी न दिखाई देने पर भी उसे समृद्ध बनाती है। इसमें शास्त्र और दर्शन का चितन, साहित्य, ललित कलाएँ आदि का समावेश होता है। इसके विपरीत सभ्यता में उन आविष्कारों, उत्पादन के साधनों, सामाजिक, राजनीतिक संस्थानों आदि की गणना होती हैं, जिनके द्वारा मनुष्य की जीवन—यात्रा चलती है। संक्षेप में संस्कृति मनुष्य का व्यवहार है और सभ्यता उसके क्रियाकलाप। व्यष्टि का संरक्षण अकेले से नहीं हो पाता। उसे समाज की आवश्यकता होती है। पारस्परिक आदान—प्रदान द्वारा ही व्यक्ति की आवश्यकताओं की र्पूित होती है। इस र्पूित में समष्टिगत और परमार्थ भाव से कार्य करने की जो प्रवृत्ति होती है उसी को हम संस्कृति कह सकते हैं। शुद्ध परमार्थ भाव से किये गये कार्य ही संस्कृति के अन्तर्गत आते हैं। स्वार्थ की र्पूित में दूसरे की भी हानि नहीं होनी चाहिए। स्वार्थ और परमार्थ में सुन्दर सामंजस्य बनाये रखना संस्कृति का प्रथम उद्देश्य है। संस्कृति में आत्मिक वृत्तियों का उन्नयन होता है। यह आध्यात्मिकता और आत्मनिष्ठता का पोषण करती है। आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग प्रशस्त करती है और नैतिक तथा कलात्मक चेतना को जन्म देती है। संस्कृति का सम्बन्ध मानव के स्वरूप बोध से है, श्रेय से है, सत्य और सृजन से है।
संस्कृति एवं शिलालेख
मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ और विवेकशील प्राणी है। अत: वह नई—नाई चीजों को जानने—समझने के प्रयास में निरन्तर लगा रहता है। वह केवल वर्तमान को जानने का ही प्रयत्न नहीं करता अपितु अपनी प्राचीन संस्कृति को भी जानने के लिए निरन्तर समुत्सुक रहता है। प्राचीन संस्कृति का ज्ञान खंडहरों, स्मारकों तथा मुद्राओं के माध्यम से होता है। वैसे भी सबसे अधिक विश्वसनीय और प्रमाणिक स्रोत है—अभिलेख। इतिहास में अभिलेखों से भरपूर सहायता प्राप्त होती है, तथा किसी साहित्य का व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए अभिलेख सर्वोत्तम साधन है। ताड़पत्र या कागज पर लिखे हुए साहित्य का लोप होने की संभावना रहती है किन्तु पत्थर या धातु पर खुदे हुए लेख सैकड़ों—हजारों वर्षों के पश्चात् भी उसी रूप में मौजूद रहते हैं। शिलालेखी प्राकृत का काल ई. पू. ३०० से ४०० ई. अर्थात् सात सौ वर्षों तक का लम्बा समय है। इस लम्बे कालखण्ड में उपलब्ध समस्त शिलालेखों की संख्या लगभग दो हजार हैं। इनमें कुछ शिलालेख लम्बे और कुछ एक ही पंक्ति के हैं। प्राकृत भाषा का शिलालेखी साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राप्त शिलालेख भाषा और साहित्य की दृष्टि से संस्कृत भाषा के शिलालेखों की अपेक्षा कई बातों में विशिष्ठ हैं। उपलब्ध शिलालेखी साहित्य में प्राकृत भाषा के शिलालेख ही सबसे प्राचीन हैं। प्रारम्भ से ईस्वी सन् की प्रथम शती तक के समस्त शिलोलख प्राय: प्राकृत में ही हैं। शिलालेखों में किसी व्यक्ति विशेष का केवल योगदान ही निबद्ध नहीं है, बल्कि मानवता के पोषक सिद्धान्त भी अंकित हैं। दूसरी बात यह है कि साहित्य एवं संस्कृति के व्यवस्थित अध्ययन की परम्परा सबसे अधिक शिलालेखों में सुरक्षित रहती है। क्योंकि शिलालेखी साहित्य में किसी भी प्रकार का संशोधन व परिवर्तन संभव नहीं है। शिलापट्टों पर उत्कीर्ण साहित्य समय के शाश्वत प्रवाह में तदवस्था रहता है। यही कारण है कि शिलालेखों का अध्ययन किसी भाषा और साहित्य की परम्परा के लिए नितान्त आवश्यक होता है। अशोक के बाद इस युग के शिलालेखों में खारवेल का हाथीगुम्फा शिलालेख, उदयगिरि तथा खण्डगिरि के शिलालेख एवं पश्चिमी भारत के आन्ध्र राजाओं के शिलालेख साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
राजा खारवेल एक परिचय
यह किंलग का एक राजा था जो चेदिवंश का बताया जाता है। २४ वर्ष की उम्र में वह गद्दी पर बैठा और अपने राज्य के विस्तार में लग गया। उसने दक्षिण और पश्चिम के राज्यों पर आक्रमण करके उन्हें अपने अधीन किया। १८५ ई. पू. में मगध के राजा को भी उसके हाथों परास्त होना पड़ा। मथुरा के सातवाहन वंशी राजा पर भी खारवेल ने विजय प्राप्त की। इस जैन धर्मावलम्बी राजा के सम्बन्ध में उड़ीसा के उदयगिरि में प्राप्त शिलालेख से जानकारी प्राप्त हुई है। किंलग उड़ीसा (उत्कल अथवा उड्र) की प्राचीन नगरी रही है। उड़ीसा, ओड्र का अपभ्रंश रूप है जो पहले प्रदेश के एक छोटे से भाग का नाम था। मध्यकाल में वह समूचे उड़िया भाषी प्रदेश की संज्ञा बन गई जो बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, हैदराबाद और मद्रास के भागों में सम्बद्ध रहा है। पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर और छावड़ा जिले तक फैला यह किंलग देश दक्षिण में गोदावरी—कृष्णा के दो आब को अपनी सीमा में समेटे था, उत्तर में गंगा—ब्रह्मपुत्र की घाटियां, पूर्व में हिन्द महासागर से सुरक्षित बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में बस्तर और पृष्ठभाग में पर्वतीय जंगलों से सुशोभित था। उत्तरापथ और दक्षिणापथ के प्रवेश द्वार के रूप में बसे इस प्रदेश ने उत्तर और दक्षिण के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों को प्रस्थापित कने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। किंलग प्रदेश तीन भागों में विभाजित रहा है—ओड्र उत्कल और किंलग। ये नाम यहाँ के निवासियों के आधार पर पड़े हैं। मत्स्य पुराण में ओड्र जाति को विन्ध्यवासी बताया और शिलालेखों में ओड्र को देश के रूप में स्वीकारा गया है। महाभारत के अनुसार ओड्र देश के राजा युधिष्ठिर के यज्ञ में आये थे। उत्कल भी एक जनपद था जिसे कर्ण ने दुर्योधन के लिए जीतकर प्रदान किया था। मत्स्य पुराण के अनुसार इसे सुद्युम्न के पुत्र उत्कल ने बसाया था। किंलग का संबंध अमरकंटक से भी रहा है। महाभारत में किंलग के अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनका संबंध श्री कृष्ण, परशुराम, युधिष्ठिर, भीम आदि से रहा है। यहाँ वर्णाश्रम नष्ट हो गया था और यह भी कहा गया है कि यहाँ किया गया श्राद्ध पितरों को प्राप्त नहीं होता था। इससे पता चलता है, किंलग पर श्रमण संस्कृति का जबर्दस्त प्रभाव था। जैन उपांग प्रज्ञापना सूत्र में किंलग के कंचनपुर का उल्लेख एक राजधानी के रूप में मिलता है। बाद में इसी को भुवनेश्वर नाम दिया गया है। हाथीगुम्फा शिलालेख में तो किंलग नगर का उल्लेख आता है। अन्य शिलालेखों में भी किंलगाधिपति का उल्लेख हुआ है। तोसल, कोंगोड़ा, त्रिकिंलग आदि नाम भी इस प्रदेश के मिलते हैं। ओड्री मागधी यहाँ की भाषा रही है।
भरतनाट्य शास्त्र के अनुसार तृतीय सदी तक इस प्रदेश में प्राकृत का प्रभाव बहुत रहा है। पौराणिक परम्परा के अनुसार किंलग पर जिन ३२ राजाओं के शासन के बाद महापद्मनन्द ने उस पर अधिकार किया। उनमें सर्वाधिक प्रभावशाली यही राजा था। इसलिए इसे नन्दवंश का प्रथम क्षत्रप कहा जाने लगा। इसी क्रम में खारवेल का तृतीय राजवंश था जिसने किंलग पर शासन किया। बौद्ध परम्परा के अनुसार८ कालाशोक के बाद मगध नवनन्दों का शासन रहा। महाबोधिवंश में उनके नाम दिय हैं उनमें उग्रसेन प्रथम शासक था। जिसकी पहचान महापद्मनन्द से की गई है। वहां उसे शुद्रगर्भोद्भव कहा गया है। परिशिष्ट पर्वन् में उसे नापित कुमार माना गया है। पर आगे की कथा उसे क्षत्रिय सिद्ध करती है। यहीं उसे महापद्मपति ओर उग्रसेन भी कहा गया है। महापद्मनन्द का पूर्ववर्ती शासक महानन्दिन् भद्रबाहु के साथ दिगम्बर जैन मुनि बनकर दक्षिण की यात्रा पर चला गया था और महापद्मनन्द ने उत्तर—दक्षिण में अपना राज्य स्थपित किया। उसके मन्त्री शकडाल और राक्षक थे। शकडाल के दो पुत्र थे—स्थूलभद्र और श्रीयक। शकडाल की मृत्यु के बाद स्थूलभद्र को मन्त्री पद दिया गया पर उसने स्वीकार नहीं किया। वह जैन साधु हो गया। पुराणों में नन्दों को अर्धािमक कहा गया है शायद इसलिए कि वह जैन वंश था। चाणक्य और चन्द्रगुप्त के कौशल से नन्दवंश का पतन हुआ और मौर्यवंश की स्थापना हुई। नवनन्दों के शासन काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना भारत पर सिकन्दर का आक्रमण था। इस समय जैनधर्म बहुत लोकप्रिय हो चुका था। यूनानियों ने जैन साधुओं को जिम्नोसोफिस्ट या जिम्नेटाई नामों से सम्बोधित किया। वैरिटाई और ओरेटाइ नाम भी उसके यात्रावृत्त में मिलते हैं जो क्रमश: व्रात्य और आरातीय हैं और जैन परम्परा से संबंद्ध हैं। कल्याण नामक एक जैन साधु सिकन्दर के साथ बाबुल भी चला गया था। उन जैन साधुओं को वनवासी (हिलोबाई) कहा जाता था। वनवासी दिगम्बर जैन श्रमणों के अतिरिक्त खण्डवस्त्र धारी, त्यागी क्षुल्लक, ऐलक और ब्रह्मचारी भी थे जो बस्तियों में रहकर धर्मोपदेश दिया करते थे। यह तथ्य हाथीगुम्फा शिलालेख से पुष्ट होता है।
खारवेल की तिथि
खारवेल के साथ अधिपति, चक्रवर्ती जैसी उपाधियों का प्रयोग हुआ है किन्तु बाह्य किसी संवत् वगैरह का प्रयोग नहीं हुआ जिससे खारवेल की तिथि निश्चित की जा सके। उसकी तिथि को निश्चित करने के लिए हमें आन्तरिक और बाह्य प्रमाणों की ओर ध्यान देना होगा। इन सन्दर्भ में हाथीगुम्फा शिलालेख में आये ति—वस—सत (पंक्ति ६) पद पर ध्यान देना आवश्यक है। पं. भगवान लाल इन्द्र जी कदाचित् प्रथम विद्वान् रहे हैं जिन्होंने खारवेल की तिथि का सम्यक् निर्धारण करने का प्रयत्न किया। उन्होंने हाथीगुम्फा शिलालेख के उत्कीर्ण होने की तिथि खारवेल के राज्यारोहण के १३वें वर्ष मानी जो मौर्य सं. १६५ हो सकती है। उन्होंने उपर्युक्त शब्द के ‘संत’ को सत्रा का पर्यायवाची मानकर नन्दराज के त्रिवर्षीय सत्रा के उद्घाटन की बात कही। अशोक ने किंलग विजय २५५ ई. पू. में की थी। अत: खारवेल का राज्यारोहण इन्द्र जी की दृष्टि में १०३ ई. पू. में हुआ। फ्लीट, ल्यूडर्स ने ‘ति—वस—सत’ का अर्थ १०३ वर्ष मानकर कहा कि खारवेल नन्दराज का अन्तिम समय ३२३ ई. पू. रहा अत: खारवेल का राज्याभिषेक २२४ ई. पू. होना चाहिए। जायसवाल और बनर्जी ने प्रथमत: उसका अर्थ ३०० वर्ष किया, पर बाद में उन्होंने उसे १०३ वर्ष का द्योतक माना। हाथीगुम्फा की १६वीं पंक्ति में ‘मुखियकाल’ को कतिपय विद्वानों ने ‘मुरियकाल’ पढ़ा है। सरकार, वरूआ, घोष आदि विद्वानों ने इसके आधार पर खारवेल की तिथि प्रथम शती ई. पू. तय की है। खारवेल की तिथि निश्चित करने में शिलालेख में आये सातकर्णी, वृहष्पतिमित्रा और यवनराज डिमित पर भी विचार करना आवश्यक है। डॉ. राय चौधरी और भण्डारकर ने पौराणिक परम्परा में मतैक्य न होने की पृष्ठभूमि में सातकर्णी का समय १२ ई. पू. माना और तदनुसार खारवेल का राज्याभिषेक काल १४ ई. पू. निश्चित किया। उसने अपने राज्यकाल के दूसरे वर्ष में सातकर्णी की चिन्ता किये बिना ही पश्चिम की ओर अपनी सेना भेजी थी। इसके आधार पर खारवेल की तिथि साधारण तौर पर इस प्रकार निर्धारित की जा सकती है— जन्म — ४९ ई. पू. (२४ + १६ + ९ ४९ ई. पू.) युवराज पद — ३३ ई. पू. (२४ + ९ ३३) राज्याभिषेक — २४ ई. पू. यह निश्चित हो जाने पर प्रश्न उठेगा फिर ‘तेरस—वस—सत’ का अर्थ १३०० वर्ष होना चाहिए, ११३ वर्ष नहीं। पर खारवेल के राज्यकाल से १३०० वर्ष पुराने राजाओं के संघ की स्थिति संभव नहीं दिखती। अत: यहां ‘तेरस—वस—सत’ का तात्पर्य ११३ वर्ष होगा।
विद्याओं की अध्ययन
विद्याओं का अध्ययन करना राजकुमार का धर्म है। प्रशस्त गुणसम्पन्न, गौरवर्णी राजकुमार खारवेल ने पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक बाल्यकाल आनन्दपूर्वक बिताया। उसके बाद उसने लेख रूप, गणना, व्यवहार और धर्म में निष्णात होकर सब विद्याओं से परिशुद्ध हो नौ वर्षों तक यौवराज्य से प्रशासित किया (पंक्ति—२)। यहां ‘लेख’ का तात्पर्य मात्र अक्षरज्ञान या लिपि नहीं बल्कि ‘‘लेख विशारद’’ विद्वान होने की ओर संकेत करता है। लेख की गिनती ७२ कलाओं में होती है। पत्र, बल्कल, काष्ठ, दन्त, लोहा, तांबा, रजत आदि पर लिखने की विधि के ज्ञान के साथ ही राजमुद्रा कूटलेख आदि का ज्ञान भी इसके अन्तर्गत आता है। लिपियों के भी १८ प्रकार के भेदों का उल्लेख मिलता है—ब्राह्मी, खरोष्ठी, गंधर्व, दामिली आदि। ‘रूप’ का तात्पर्य अभिनय नहीं बल्कि मुद्रा है। बनर्जी ने उसे रूप्य के साथ समीकृत किया है। जोगेश्वरी गुहा अभिलेख में मुद्रा अधिकार के रूप में ‘लुपदखे’ शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थशास्त्र में भी इसी अर्थ में रूप का प्रयोग हुआ है तथा उपासकदशांग आदि जैन ग्रंथों में भी रूप का प्रयोग इसी सन्दर्भ में मिलता है। इसका अर्थ विस्तार करने पर हम इसे मुद्राशास्त्रज्ञ होने की कला भी कह सकते हैं। विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का ज्ञान शासक को होना भी चाहिए। ‘गणना’ का अर्थ बनर्जी ने गणित किया है। अशोक के तीसरे लेख और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी गणना का अर्थ किया गया है। उत्तराध्ययन में इसके लिए ‘संख्यान’ शब्द का प्रयोग हुआ है। व्यवहार विधि का अनुवाद ‘प्रशासन पद्धति’ किया गया है पर वस्तुत: उसका अर्थ है मुकदमा (व्यवहार) की प्रक्रिया। जैनग्रंथ व्यवहार भाष्य में इसके लिए ‘कारणिक’ शब्द का प्रयोग मिलता है। अर्थशास्त्र के किंलग लेख में भी यही अर्थ है। ‘‘सव—विजा’’ का तात्पर्य है सभी प्रकार की विद्याएँ। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में १४ प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है—छ: वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण, और धर्मशास्त्र१२। जैन सूत्रों में अनेक प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है। गौरी गांधारी रोहिणी और प्रज्ञप्ति। ऐसी और भी बहुत—सी विद्याओं के नाम मिलते हैं। विद्याधर ऐसी ही विद्याओं को धारण करने वाले होते थे। मंत्र—तंत्र शास्त्र भी इसकी सीमा में आते हैं। उनकी सिद्धि की भी एक प्रक्रिया रही है। शुभाशुभ शकुन वगैरह का ज्ञान होना भी विद्या के अन्तर्गत आता है।
हाथीगुम्फा अभिलेख
एक परिचय
खारवेल के अभिलेख अधिकांशत: क्षतिग्रस्त रहे हैं। उदयगिरि—खण्डगिरि के दक्षिण की ओर एक चौड़ी लाल बलुवे पत्थर की प्राकृतिक गुफा में उत्कीर्ण है। यह शिलालेख ८४ वर्गफुट में उत्कीर्ण है। इसमें २७ पंक्तियाँ है और प्रत्येक पंक्ति में ९० से लेकर १०० अक्षर हैं। ये अक्षर पानी के रिसने से कट गये हैं, बर्रों और मधुमक्खियों के चिन्हों से भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं, शिला को सपाट करने के प्रयत्न ने अनेक अक्षरों की बेढ़ंगी आकृति बना दी है और शिलालेख का काफी भाग समय की स्वाभाविक गति से नष्ट—भ्रष्ट हो गया है। प्रथम पांच पंक्तियाँ अधिक सुरक्षित हैं, सात से तेरह पंक्तियों का दायीं ओर का बहुभाग नष्ट हो गया है, सात से दसवीं पंक्तियों के पहले दो—तीन अक्षर स्पष्ट दिखते हैं, सातवीं पंक्ति लगभग नष्ट हो चुकी है, शेष अन्तिम चार पंक्तियों के पहले दस—बारह शब्द क्षतिग्रस्त हो गये हैं। मात्र सोलहवीं—सत्रहवीं पंक्ति के बारह अक्षर छोड़कर पूरी पंक्तियाँ पठनीय हैं। हाथीगुम्फा शिलालेख की खोज का श्रेय स्टर्लिंग को जाता है जिसने १८२० में उसकी सर्वप्रथम प्रतिलिपि की और १८२५ में उसे प्रकाशित किया। बाद में किट्टो द्वारा तैयार की गई छाप जेम्स प्रिन्सेप ने १८३७ में छपायी जिसे १८७७ और १८८० में क्रमश: किंनघम और राजेन्द्र लाल मित्रा ने अपने—अपने संग्रहों में प्रकाशित किया। १८६६ में भगवान लाल इन्द्रजी ने समूचे लेख का पाठ प्रस्तुत किया। उसके बाद तो उस पर वुल्नर, कीलहार्न, ल्यूडर्स, राखलदास बनर्जी, स्टेनफोनो, जायसवाल आदि विद्वानों ने पाठों का निर्धारण किया। इस बीच शिलालेख और भी नष्ट होता गया। जायसवाल और बनर्जी ने काफी परिश्रम के बाद १९२७ में उसका पुन: अन्तिम प्रारूप तैयार किया जो आज सभी के सामने है। अभी भी उसे अन्तिम नहीं कहा जा सकता है। विवाद होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत शिलालेख जैनधर्म का उल्लेख करने वाला प्राचीनतम शिलालेख है। खारवेल और उसका परिवार स्वयं उसका भक्त था। जैन परम्परा की दृष्टि से किंलग, मगध, पाटलिपुत्र, पिथुण्ड आदि नगरों की महत्ता पर तो प्रकाश पड़ता ही है, साथ ही जैन सम्राट के कल्याण करणीय कृत्य भी उजागर होते हैं। जैन कला और संस्कृति की दृष्टि से भी यह शिलालेख महत्वपूर्ण हैं
खारवेल के शिलालेख की भाषा
खारवेल के शिलालेख की भाषा प्राचीन शौरसेनी या जैन शौरसेनी है। यद्यपि इस शिलालेख में प्राचीन शौरसेनी की समस्त प्रवृत्तियाँ परिलक्षित नहीं होती, तो भी इससे उसका आदिम रूप मानने में किसी भी प्रकार विप्रतिपात्ति नहीं हैं खारवेल का यह शिलालेख भारतीय इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इससे ज्ञात होता है कि नन्द के समय में उत्कल या किंलग देश में जैन धर्म का प्रचार था और आदि जिन की र्मूित पूजी जाती थी। किंलग जिन नामक र्मूित को नन्द उड़ीसा से पटना उठा लाये थे और सम्राट खारवेल ने मगध पर चढ़ाई कर शताब्दियों के बाद बदला चुकाया और अपने पूर्वजों की र्मूित को वापस ले गया। खारवेल ने अपने प्रबल पराक्रम द्वारा उत्तरापथ में पाण्ड्य—देश तक अपनी विजय वैजयन्ति फहराई थी। वह एक वर्ष विजय के लिए निकलता था और दूसरे वर्ष महल बनवाता, दान देता तथा प्रजा के हितार्थ अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करता था। इस शिलालेख का समय ई. पू. १०० है। इसमें शौरसेनी प्राकृत प्राप्त है जो प्राकृत की एक निश्चित प्राचीन परम्परा है।
हाथीगुम्फा शिलालेख में निहित सांस्कृतिक तत्त्व
देशप्रेम : हाथीगुम्फा शिलालेख में किंलग जिन का उल्लेख है। नन्दराज जिस प्रतिमा को किंलग से ले गया था, खारवेल उस प्रतिमा को किंलग वापिस ले आया। नन्दराजनीतं च को किंलग—जिनं सेनिर्वसं यह रतनान पडिहारेहि अंशमागधवसुं च नेयाति। (पंक्ति—१२) यह किंलगजिन की र्मूित किसकी होनी चाहिए। इस पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। खारवेल शिलालेख के अतिरिक्त अन्य कोई साहित्यिक उल्लेख भी देखने नहीं मिलते। डॉ. जायसवाल और बनर्जी ने इस र्मूित को दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ की र्मूित के रूप में पहचाना है। जिनका जन्म भद्दिलपुर में हुआ था। यह भद्दिलपुर किंलग का भद्राचल या भद्रपुर होना चाहिए। यह नगर गोदावरी जिले में विद्यमान है। हजारी बाग के समीप भी भदिय ग्राम है। आवश्यक निर्युक्ति१४ के अनुसार वह मलय जनपद की राजधानी थी। जैनर्मूित परम्परा की दृष्टि से किंलग जिन र्मूित का विशेष स्थान है। इसकी पहचान के बारे में बाद में जायसवाल ने अपना मत बदलकर यह कहा कि उदयगिरि खण्डगिरि स्थित अनन्तगुहा में पाश्र्वनाथ और महावीर के लांछन पाये गये हैं। किन्तु महावीर का लांछन सिंह, जय, विजय और अनन्त गुफाओं में अधिकता से पाया जाता है। अत: किंलग जिन महावीर होना चाहिए।
धार्मिक भावना
खारवेल जैन धर्म का अनन्य भक्त था। उसका समूचा हाथीगुम्फा शिलालेख उसकी भक्ति धारा से प्रवाहित दिखाई देता है। हाथीगुम्फा में णमोकार मंत्र के दो पद मिलते हैं—‘‘णमो अरहंताणं णमो सर्वसिधानं’’। शिला पर उट्टंकित णमोकार का यह प्राचीनतम रूप है। लेख की छायाप्रति देखने से लगता है कि लेख में णमो है, नामे नहीं, जैसा विद्वानों ने पहले इसे पढ़ा है। उड्र मागधी और शौरसेनी प्राकृत की यह विशेषता है। मन्त्र का यह उच्चरित संक्षिप्त रूप है। इसका लिखित रूप लगभग उसी काल के प्राचीन ग्रंथ षट्खण्डागम में मिलता है। णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। इसमें पाँचों पद हैं। वर्तमान में यही रूप सर्वाधिक मान्य है। भगवती सूत्र में यही इस रूप में है नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्जझयाणं, नमो सव्व साहूणं। उसी के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में ‘नमो सुयदेवयाए भगवईए’ भी मिलता है। इनके अतिरिक्त ‘नमोबंभीए लिवीए’, ‘नमो सुयस्स’ जैसे पदों को प्रतिष्ठिापित किया गया है। अभयदेव सूरि ने भगवती सूत्र की वृत्ति के प्रारंभ में इस महामंत्र की व्याख्या भी की है।
राजा एवं राजनीति
जैन धर्म के परिवेश में सुसंस्कृत और संर्विधत राजकुमार खारवेल के यथार्थ रूप को भलीभाँति हृदयंगम किया था। उसने वृहस्पतिमित्र, सातकर्णी, नन्दराज आदि राजाओं को पराजित कर अपने देश की समृद्धि पर भी ध्यान दिया था। उसके शिलालेख में उसके अभिषेक की तुलना वेन के पुत्र के अभिषेक से की गई है। खारवेल के समूचे शिलालेख में प्रजानुरंजन—पद्धति का ही उल्लेख हुआ है। अभिषेक के प्रथम वर्ष में ही खारवेल ने तूफान से क्षतिग्रस्त गोपुर दुर्ग और अटटालिकाओं का जीर्णोद्धार किया, ऋषि खिबीर नामक झील का निर्माण कराया, तालाब बनाये और उद्यानों से नगरों को सुशोभित किया। इसमें पैंतीस लाख मुद्राओं का व्यय कर प्रजा का अनुरंजन किया। तीसरे वर्ष में भी खारवेल ने नाटक, नृत्य, गीत, वादिभ आदि द्वारा उत्सव और समाज का आयोजन किया। ये सारे आयोजन कदाचित् सातकर्णी को पराजित करने के उपलक्ष्य में किये गये होंगे। चौथे वर्ष में राष्ट्र और भोजकों से चरण वन्दना कराई और फिर पांचवें वर्ष में नन्दराज (महापद्मनन्द) द्वारा ३०० वर्ष पूर्व बनवाई गई तृणसूर्यमार्गीया प्रणाली को अपनी राजधानी तक ले आया। छठे वर्ष में राजसूय यज्ञ किया और सभी कर माफ कर दिये। उसने और प्रजा ने एक दूसरे पर अनुग्रह किया। सातवें और आठवें वर्ष में भी कल्याणकारी कार्य हुए। आठवें वर्ष में गोरथामिति पर आक्रमण किया। राजगृह पर आक्रमण और जैनतीर्थ मथुरा को यक्षों से मुक्त कराया तथा वहां से कल्पवृक्ष, अश्व, हाथी, रथ आदि लेकर अपनी राजधानी वापिस आया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि खारवेल के राज्यकाल में ब्राह्मणवर्ग को काफी सम्मान दिया जाता था। इसी तरह यह भी स्मरणीय है कि आहत वस्तुओं को प्रजा में बांट दिया जाता था। नवें वर्ष में महाविजय नामक विशाल राजभवन बनवाया और ११वें वर्ष में पिथुण्ड की पवित्रता को ध्यान में रखकर यहाँ गर्दभों से हल चलवाया जो एक विशेष परम्परा का द्योतक है। संभव है यह ऋषभदेव के प्रति विशेष आदर की अभिव्यक्ति हो या गर्दभिल्ल की परम्परा की ओर संकेत हो। २१वें वर्ष में नन्दराजा से किंलगजिन वीतराग (दि. जैन जिनर्मूित) को वापिस ले आया वह और कदाचित् उसी स्मृति में सुदृढ़ गोपुर और शिखरों का निर्माण कराया। १३वें वर्ष में सर्वाधिक प्रजानुरंजक कार्य किये। खारवेल ने स्वयं को धर्मनिष्ठ और राजनिष्ठ व्रतों का आचरण करने वाला बताया और चातुर्मास में निवास करने वाले अर्हतों का पूजक कहा। ऐसे जैन धर्म पालक खारवेल ने कुमारी पर्वत पर जैन साधुओं के विश्राम के लिए गुफाओं का निर्माण किया। इसी वर्ष वह पहले उपासक बना, सपेâद वस्त्र पहनने वाले ब्रह्मचारी का वेष धारण किया और एक वृहद् जैन साधु सम्मेलन कराया। इस सम्मेलन में आने वाले साधुओं के रुकने के लिए सुन्दर आश्रय स्थल का भी निर्माण किया। निशीथिकायें बनवाई और बाद में स्वयं मुनि बन गया। यह सम्पूर्ण शिलालेख खारवेल की राजनीतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक उपलब्धियों का वर्णन करता नजर आता है।
खारवेल का सर्व—धर्म—समभाव
खारवेल एक अिंहसक साधक सम्राट था जिसने अपनी प्रजा के दु:ख—सुख को अपना दु:ख सुख माना था। उसकी धर्मनीति बड़ी उदार और सहिष्णु थी। ब्राह्मण वर्ग को उसने करमुक्त कर उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। इसी तरह वह सभी धर्मों का आदर करने वाला एवं सभी धर्मों के देवायतनों को संस्कारित करने वाला, दान देने वाला था। सवपासंड पूजको सवदेवायतन संसार कारको—(पंक्ति १७)। यह उसके सर्वधर्म समभाव की अभिव्यक्ति है।
तीर्थरक्षा
खारवेल के धर्म की एक अन्यतम विशेषता है तीर्थरक्षण। उदयगिरि—खण्डगिरि भी एक तीर्थ था, जिसे कुमारी पर्वत कहा जाता था। कहा जाता है—तीर्थंकर महावीर ने, इसी पर्वत पर आन्ध्रवासियों के लिए धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। जैन संस्कृति में मथुरा का विशेष महत्व रहा है। यहाँ महावीर का भी समवसरण हुआ था। अन्तिम केवली जम्बूस्वामी ने यहीं निर्वाण प्राप्त किया था। खारवेल ने मगध पर ध्यान न देकर राष्ट्रीय तीर्थ मथुरा पर ध्यान दिया जहाँ देमिभिसय ने अधिकार कर लिया था। खारवेल तुरन्त मथुरा की ओर बढ़ा और देमिभियस को वहाँ से निकाल बाहर किया। मथुरा के वंâकाली टीला में प्राप्त जैन सामग्री से पता चलता है कि मथुरा का स्थान जैन संस्कृति में क्या था ? जैन सहित्य, कला और संस्कृति की जीवन्तता मथुरा में रही है। खारवेल ने इसलिए मथुरा तीर्थ की रक्षा की थी। माथुरी वाचना का ताजा उदाहरण शायद उसके मन पर रहा है। खारवेल ने इसी तरह कलिंग जिन को वापिस लाने के लिए मगध पर आक्रमण किया। यह भी एक प्रकार से तीर्थरक्षा या र्मूितरक्षा का अप्रतिम उदाहरण है। संभव है, कलिंगजिन की पुन: प्रतिष्ठा पिथुण्ड में की गई हो।
जैन यति (मुनि) सम्मेलन
जैन संस्कृति में पाटलिपुत्र, माथुरी और बलभी वाचनाओं की जानकारी तो सामने आयी है पर खारवेल द्वारा आहूत मुनि सम्मेलन से प्राय: लोग अपरिचित है। खारवेल ने अपने राज्य में अपने तेरहवें वर्ष में एक जैन मुनि सम्मेलन बुलाया था। मुनियों की सुविधा की दृष्टि से खारवेल ने निषीथिकायें तथा सुन्दर आश्रय स्थल बनवाये। हो सकता है, ये आश्रय स्थल उस समय मंदिर के रूप में रहे हो (पंक्ति—१५)। शिलालेख में इस सम्मेलन का वर्णन स्पष्ट रूप में नहीं है पर चारों दिशाओं से समागत मुनि का उद्देश्य यही हो सकता है।
राष्ट्रीय चेतना
इस प्रकार खारवेल ने जैन धर्म के प्रचार—प्रसार में अनूठा योगदान दिया है। उसका धर्म संकीर्ण नहीं था, सभी धर्मों के प्रति उसे अनुराग था, समभाव था। उसके व्यक्तित्व में धर्म का यथार्थ रूप जाग्रत था। वह राष्ट्रीयता का भी अनन्य पुजारी रहा है। भारतवर्ष का सर्वप्रथम उल्लेख उसी ने किया है। पिहुण्ड में किंलग जिन प्रतिमा की पूजा एक ऐतिहासिक धरोहर है। उदयगिरि—खण्डगिरि की गुम्फायें (२८ + २५ ई`प्र ५३) भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें उट्टंकित चित्रावलियां अजन्ता की स्मृति दिला देती हैं। वृक्ष, लता, जीवजन्तु, नर—नारियां सब कुछ इनमें चित्रित हुए हैं। खारवेल ने अपने धर्म की विशेषताएँ चित्रों और प्रतीकों के माध्यम से भी अंकित की हैं इन चित्रों और प्रतीकों का स्वतंत्र अध्ययन अपेक्षित है। नवमुनि गुफा में तो कतिपय तीर्थंकरों की और उनके शासन देवी—देवताओं की मुर्तियाँ भी बनी हुई है। ये गुफायें अर्हतों के निवास के लिए निर्मित हुई थी। लेख के विस्तारभय से यहाँ हम इन सभी तथ्यों और तत्वों पर विचार नहीं कर पा रहे हैं पर यह निश्चित है कि खारवेल जैन धर्म का परिपालन करने वाला सम्राट था।
कला
खारवेल की गुफाओं में कला के माध्यम से भी धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की गई है। वहां अंकित तौर्य, मृदंग, वीणा आदि वाद्ययंत्रों के साथ र्नितकाओं के नृत्य, तीर्थंकरों के प्रति व्यक्त भक्ति भावना के दृश्य हैं। ततोवागुम्फा में अंकित प्रेक्षागृह का उपयोग भी इस निमित्त होता रहा है। पिहुण्ड तीर्थक्षेत्र में किंलगजिन की प्रतिमा इन सभी र्धािमक गतिविधियों का केन्द्र बनी हुई थी। छोटी हाथीगुम्फा के सामने चित्रित हाथी अर्हत् पूजा के लिए पत्र—पुष्प ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसी तरह के अनेक चित्र जिन पूजा के संकेत दे रहे हैं। मंचपुरी गुफा का चित्र जिन प्रतिष्ठा का चित्र हो सकता है। खारवेल लेख के अनुसार खारवेल स्वयं गंधर्ववेद में निपुण था और संगीतादि विद्याओं के साथ समाजोत्सव किया करता था। खण्डगिरि की गुफाओं में मांगलिक चिह्नों का भी अंकन हुआ है। स्वस्तिक, श्री वत्स, कलश, माला आदि दसों मांगलिक चिह्न होने के बावजूद ‘इष्टमांगलिकं’ चिह्न कथन की परिपाटी जैन परम्परा में विशेष रूप से देखी जाती है। तिलोयपण्णत्ती, आचार दिनकर आदि ग्रंथों में ये मांगलिक चिह्न इस प्रकार है—स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमान, भद्रासन, कलश, दर्पण और मत्स्ययुगल। हाथीगुम्फा की मांगलिक चिह्नों की अंकन परम्परा की पूर्ववर्ती परम्परा है। उसमें पूर्णकुम्भ, कमल, तोरण, वृक्ष, लतायें, वृषभ, गज, िंसह, छत्रा, चामर, राजहंस, स्वप्न—चित्रण, कल्पवृक्ष, आदि जैसे मांगलिक प्रतीकों का चित्रांकन है। अनन्त गुफा इस प्रकार के अंकन की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। मथुरा में प्राप्त आयागपट्टों की प्रतीक परम्परा यहीं की प्रतीक परम्परा का विकसित रूप रही होगी। उड़ीसा तीर्थंकर महावीर से भी पहले जैनधर्म का गढ़ रहा है। ऋषभदेव का संबंध उड़ीसा से बताया जाता है। वहाँ आदिनाथ की र्मूितयाँ भी बहुत मिलती हैं मयूरभंज के ओंझर, कटक, पुरी, बलसोटै, और कोरपुत में जैन पुरातत्व के प्रमाण बहुत अधिक मिले हैं। भुवनेश्वर, कटक, चौदुर में जैन मंदिर है। वहाँ तीर्थंकर र्मूितयाँ, यक्ष—यक्षी, चैत्य आदि भी प्राप्त हुए हैं। तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का भी संबंध उड़ीसा से रहा है।
खंडगिरि उदयगिरि
प्राचीन नाम कुमारगिरि है। यहाँ की गुफाओं में वनवासी जैन मुनि तपस्या करते थे। वहाँ अकृत्रिम और कृत्रिम दोनों प्रकार की गुफाएँ हैं। मंदिरों की गुफाओं को छोड़कर सब गुफाओं का फर्श ढालू बनवाया गया है ताकि उन पर शयन करने वालों को तकिये की आवश्यकता न रहे। यहाँ अनेक तपस्वियों का परम्परागत वास यह सिद्ध करता है कि यह स्थान प्राचीन तीर्थभूमि है। श्री हरिषेण आचार्य के वृहत् कथाकोष में यममुनि की कथा से इसकी पुष्टि सम्यक््âतया हो जाती है। इस कथाकोष में पर्वत का नाम कुमारगिरि लिखा है और उसके निकट धर्मपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर बतलाया है— अथोड—विषये चापि पुर धर्मपुर…….। धर्मादिनगरासन्ने कुमारगिरी—मस्तके।। दो एक बड़ी गुफायें भगवान महावीर स्वामी के समय से ही अरहंतों के संसर्ग से अतिपावन हो चुकी थी। इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हाथी गुम्फा है, जिसमें ई. पू. द्वितीय शताब्दी के चेदिवंशज महाराज खारवेल का शिलालेख है।
सारांश
हाथीगुम्फा एक अकृत्रिम वृहद् गुफा है, जिसमें चेदिवंशीय महाराज खारवेल का प्रसिद्ध शिलालेख है। इस लेख में महाराज के राजकीय जीवन—संबंधी वर्ष प्रतिवर्ष की मुख्य—मुख्य घटनाएं उल्लेखित हैं। इसका आरंभ अरहंतों और सिद्धों को जैन पद्धति के अनुरूप नमस्कार करते हुए होता है। इस शिलालेख से यह निषकर्ष निकलता है कि—
१. मगध और किंलग ये प्रतिद्वन्दी राज्य थे।
२. अशोक की विजय से पूर्व कलिंग में जैन धर्म राजधर्म था।
३. किंलग ने मगध के बढ़ते हुए साम्राज्य के प्रति विद्रोह किया और नन्दों ने किंलग पर विजय प्राप्त की और उनमें से कोई किंलग जिन प्रतिमा को पाटलिपुत्र ले गया।
४. किंलग पीछे इतना स्वतंत्र हो गया कि महाराज अशोक को अत्यधिक धन—व्यय तथा नर — संहार करके किंलग को पुन: जय करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
५. खारवेल ने मगध के साथ प्रतिशोध स्वरूप सफल युद्ध किया और किंलग जिन प्रतिमा को पुन: प्राप्त किया और जैन धर्म की राजधर्म के रूप में पुन: प्रतिष्ठा की। शिशुपाल गढ़ में १९४९ से १९५१ तक खुदाई का काम हुआ।
श्री टी. एन. रामचन्द्र, के अनुसार यह शिशुपाल गढ़ संभवत: खारवेल के शिलालेख में उल्लेखित किंलग नगर ही है। संक्षेप में कहा जाये तो हाथी गुम्फा शिलालेख सम्राट खारवेल का एक जीवन्त चित्र है। उसने यहाँ की गुफाओं में अपने धर्म और स्वभाव का सुन्दर अंकन किया है। वस्तुत: जैन परम्परा की दृष्टि से उदयगिरि खण्डगिरी गुफायें बेजोड़ हैं। इनमें चित्रित जैन इतिहास और संस्कृति एक कालजयी धरोहर है। उड़ीसा में जैन धर्म का प्रवेश शिशुनाग वंशीय राजा नन्दवर्धन के समय में ही हो गया था तथा खारवेल के पूर्व भी उदयगिरि पर्वत पर अर्हन्तों के मंदिर थे। सम्राट सम्प्रति के समय में वहाँ चेदिवंश का राज्य था। इसी वंश में जैन सम्राट खारवेल हुआ जो उस समय का चक्रवर्ती राजा था। उसका एक शिलालेख उड़ीसा के भुवनेश्वर तीर्थ के पास उदयगिरि पर्वत की एक गुफा में खुदा मिला है जो हाथीगुम्फा के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें प्रतापी राजा खारवेल के जीवन वृतान्तों का वर्णन है। इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि खारवेल ने मगध पर दो बार चढ़ाई की ओर वहाँ के राजा वहसति मित्र को पराजित किया। श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने पुयमित्र और वसहति मित्र को एक अनुमान किया है। सूर्यवंशी अग्रिमित्र के सिक्के के समान ठीक उसी रूप का सिक्का वहसति मित्र का मिलता है। दक्षिण आंध्रवंशी राजा शातकर्णी खारवेल का समकालीन था। शिलालेख से ज्ञात होता है कि शातकर्णी की परवाह न कर खारवेल ने दक्षिण में एक बड़ी भारी सेना भेजी जिसने दक्षिण के कई राज्यों को परास्त किया। सुदूर दक्षिण के पाण्डय राजा के यहाँ से खारवेल के पास बहुमूल्य उपहार आते थे। उत्तर से लेकर दक्षिण तक समस्त भारत में उसकी विजय पताका फहराई।
खारवेल एक वर्ष विजय के लिए प्रस्थित होता था तो दूसरे वर्ष महल आदि बनवाता, दान देता तथा प्रजा के हित के कार्य करता था। उसने अपनी ३५ लाख प्रजा पर अनुग्रह किया था। विजय यात्रा के पश्चात् राजसूय यज्ञ किया और ब्राह्मणों को बड़े—बड़े दान दिए। उसने एक बड़ा जैन सम्मेलन बुलाया था, जिसमें भारतभर के जैन मुनियों, तपस्वियों, ऋषियों तथा पंडितों को बुलाया था। जैन संघ ने खारवेल को खेमराजा, भिक्षु राजा और धर्म राजा की पदवी प्रदान की। यह शिलालेख ई. पू. १५-१०० के लगभग का है। ऐतिहासिकों का मत है कि मौर्यकाल की वंशपरम्परा तथा काल गणना की दृष्टि से इसका महत्त्व अशोक के शिलालेखों से भी अधिक है। देश में उपलब्ध शिलालेखों में यही एक ऐसा लेख है, जिसमें वंश तथा वर्ष संख्या का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। प्राचीनता की दृष्टि से ये अशोक के बाद का शिलालेख माना जाता है। इसमें तत्कालीन सामाजिक अवस्था और राज्य व्यवस्था का सुन्दर चित्रण है। १७ पंक्तियों के इस शिलालेख को ज्यों के त्यों रूप में उद्धृत किया जाता है। भारत वर्ष का सर्वप्रथम उल्लेख इसी शिलालेख की दसवीं पंक्ति में भरधवत (भारतवर्ष) के रूप में मिलता है। इस देश का भारत वर्ष नाम है, इसका पाषाणेत्कीर्ण प्रमाण यही शिलालेख है। साहित्य की दृष्टि से इसका महत्त्व अधिक है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, वाचना प्रमुख—आचार्य तुलसी, सम्पादक—मुनि नथमल, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ महासभा, कलतत्ता, १९६७ जैन आगम इतिहास एवं संस्कृति, रेखा चतुर्वेदी, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा. लि.) लि. प्रथम संस्करण २०००। जैन संस्कृति कोश (प्रथम, द्वितीय, तृतीय भाग), प्रो. भागचन्द्र जैन ‘भास्कर’, सन्मति प्राच्य शोध संस्थान, नागपुर, प्रथम संस्करण २००२, वि. सं. २०५९। पाश्चात्यकला, डॉ. ममता चतुर्वेदी, राजस्थान ग्रंथ अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २००२। प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. एन. जी. शास्त्री, तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, १९९८, प्रथम संस्करण १९६६। भारतीय इतिहास कोश, ले. सच्चिदानन्द भट्टाचार्य, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, प्रथम संस्करण १९७६। भारतीय संस्कृति कोश, लीलाधर शर्मा ‘पर्वतीय’, राजपाल एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली, सं. २००५। मध्य भारतीय अभिलेख : भाषा तात्विक विश्लेषण, समणी संगीत प्रज्ञा, जैन विश्वभारती, लाडनूँ, १९९६ (अप्रकाशित) संस्कृत अभिलेखों का धार्मिक अध्ययन—डॉ. राजकुमार तिवारी, अभिषेक प्रकाश प्रथम संस्करण—२०१०।
संदर्भ स्थल
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११. उत्तराध्ययन, २५.७.३६
१२. उत्तराध्ययन टीका, पृ. ५६
१३. जैन संस्कृति कोश, पृ. २५०
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अर्हत् वचन अक्टूबर—दिसम्बर—२०१२