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ज्ञानाभ्यास का अंतराय

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सतना में अक्सर सिद्धार्थ जी गुरुवर विमर्शसागर जी की सन्निधि में ग्रंथ ‘पंडित रतनचंद जी मुख्तार व्यक्तित्व-कृतित्व’ का स्वाध्याय करते थे तथा विभिन्न विषयों पर तत्व चर्चा भी।

एक सुबह स्वाध्याय के समय अन्य नगर निवासी एक सज्जन स्फूर्ति से आए, गुरुवर के दर्शन किए और पादप्रच्छालन करने हाथ बढ़ाए, तभी गुरुवर ने वात्सल्यपूर्वक कहा- ‘स्वाध्याय के बाद कर लेना।’

मगर उन्हें कहीं जाना होगा, इसलिए पुनः निवेदन करने लगे, तब सिद्धार्थ जी बोले- भाई साहब स्वाध्याय के बाद भक्तिभाव सहित कर लेना। सज्जन ऐसे बने रहे जैसे उन्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ा, बस लुटेरे की तरह वे पुनः बढ़े, गुरुवर के चरणों के नीचे थाली रखी और कलश से जल ढारकर पादप्रच्छालन कर लिया। शीघ्रता से प्रच्छाल जल मस्तिष्क पर लगाया और थाली, कलश लेकर चल पड़े। गुरुदेव ज्ञाता-दृष्टा की तरह मौन रह गए।

उनके चले जाने के बाद सिद्धार्थ जी ने पूछा, महाराजश्री ! अब तो लोग भक्ति में भी उपसर्ग करने लगे हैं?

पहले तो गुरुवर ने उत्तर के रूप में अपनी मुस्कान बिखेर दी, फिर कुछ मिनट बाद बोले- ‘लोग ज्ञान के अभाव में ज्ञानाभ्यास के अंतराय को नहीं जानते’। पश्चात् पुनः स्वाध्याय में लीन हो गए।

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