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जैन धर्म में साधु का स्वरुप !! form of monk in jainism !!


जैन धर्म में साधु का स्वरुप

जैन दिगम्बर साधु कैसे बनते हैं?
जैन धर्म में दीक्षा लेना यानी सभी भौतिक सुख-सुविधाएं त्यागकर एक सन्यासी का जीवन बिताने के लिए खुद को समर्पित कर देना. जैन धर्म में संन्यास धर्म का पालन करने वाले व्यक्तियों को मुनि/ निर्ग्रन्थ एवं श्रमण कहा जाता हैं। जैन मुनि के लिए दिगम्बर शब्द का प्रयोग भी किया जाता हैं। दिगम्बर का अर्थ होता हैं: “दिशाएं ही जिनका अम्बर (वस्त्र) हों। दिगम्बर मुनि केवल कमंडल, पिच्छी और शास्त्र ही रख सकते हैं। मुनि शब्द का प्रयोग पुरुष संन्यासियों के लिए और आर्यिका शब्द का प्रयोग स्त्री संन्यासियों के लिए किया जाता हैं। 
जैन साधु कैसे होते हैं?
जैन धर्म में साधू संत कठिन से कठिन तपस्या को सहजता से सहन कर लेते हैं, नग्न रहते हैं, कैसा भी मौसम हो, पद विहार करते है, चाहे कितनी भी लंबी यात्रा क्यों ना हो। एक बार आहार ग्रहण करते हैं वो भी खड़े होकर। इन्हीं मूलगुणों में एक मूलगुण कठिन तपस्या है केशलोंच।
प्रत्येक दिगम्बर मुनि को २८ मूल-गुणों का पालन करना अनिवार्य हैं, जो निम्न हैं-

व्रतनामअर्थ
महाव्रत
तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है
१. अहिंसाकिसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना।
२. सत्यहित, मित, प्रिय वचन बोलना।
३. अस्तेयजो वस्तु नहीं दी जाई उसे ग्रहण नहीं करना।
४. ब्रह्मचर्यमन, वचन, काय से मैथुन कर्म का पूर्ण त्याग करना।
५. अपरिग्रहपदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का पूर्ण त्याग
समिति
प्रवृत्तिगत सावधानी 
६.ईर्यासमितिसावधानी पूर्वक चार हाथ जमीन देखकर चलना
७.भाषा समितिनिन्दा व दूषित भाषाओं का त्याग
८.एषणासमितिश्रावक के यहाँ छियालीस दोषों से रहित आहार लेना
९.आदाननिक्षेपधार्मिक उपकरण उठाने रखने में सावधानी
१०.प्रतिष्ठापननिर्जन्तुक स्थान पर मल-मूत्र का त्याग
पाँचेंद्रियनिरोध११.१५पाँचों इंद्रियों पर नियंत्रण
छः आवश्यक
आवश्यक करने योग्य क्रियाएँ
१६. सामायिक (समता)समता धारण कर आत्मकेन्द्रित होना
१७. स्तुति२४ तीर्थंकरों का स्तवन
१८. वंदनभगवान की प्रतिमा और आचार्य को प्रणाम
१९.प्रतिक्रमणग़लतियों का शोधन
२०.प्रत्याख्यानत्याग
२१.कायोत्सर्गदेह के ममत्व को त्यागकर आत्म स्वरूप में लीन होना
अन्य-
७ अन्य
२२. अस्नानस्नान नहीं करना
२३. अदंतधावनदातौन नहीं करना
२४. भूशयनचटाई, जमीन पर विश्राम करना
२५. एकभुक्तिदिन में एक बार भोजन
२६. स्थितिभोजनखड़े रहकर दोनो हाथो से आहार लेना
२७. केश लोंचसिर और दाड़ी के बाल हाथों से उखाड़ना
२८. नग्नता
इसके अलावा दिगम्बर जैन मुनि ३४ उत्तर गुणों ( २२ परिषह एवं १२ तप ) का भी पालन किया करते है जो निम्न हैं-

बाईस परिषह- जैन मुनि बाईस परिषह जय करते हैं अर्थात समतापूर्वक इनको सहन करते हैं| –

1.क्षु्धा परिषहक्षुधा (भूख) लगी हो, शुद्ध निर्दोष आहार न मिले तो भूख सहन करना परंतु दोषित आहार न लेना।
2.प्यास परिषहप्यास लगने पर अचित जल न मिले तो सचित जल की इच्छा भी नहीं करना तथा प्यास को सहन करना।
3.शीत परिषहसर्दी को साम्य भाव से सहन करते हुए वस्त्र ग्रहण नहीं करना अथवा मर्यादा से अधिक तथा अकल्पनीय वस्त्र ग्रहण नहीं करना।
4.उष्ण परिषहगर्मी से व्याकुल होने पर भी स्नान आदि न करना।
5.दंश-मशक परिषहमच्छर, खटमल इत्यादि के काटने पर समभाव से सहना।
6.अचेल परिषहवस्त्र आदि की पुनः लज्जा अथवा शीत आदि के कारण भावना नहीं करना| 
7.अरति परिषहअन्न आदि का योग न मिलने पर अथवा अन्य विषम परिस्थितियों के आने पर भी मन में अरति (ग्लानि या चिंता) न करना।
8.स्त्री परिषहस्त्री की मीठी आवाज़, सौंदर्य, चाल आदि का कोई असर नहीं होना; स्त्री विषयभोग इत्यादि के लिए कहे तो भी मन को मज़बूत रखना।
9.चर्या परिषहएक जगह पर स्थायी निवास नहीं करना; मार्ग में कंकड़ आदि से पैरों के कट जाने पर खिन्न न होना| 
10.निषध्या परिषहचलते-चलते विश्राम के लिए बैठने की जगह उबड़-खाबड़ या कंकरीली मिले तो भी समभाव रखना।
11.शय्या परिषहरुचि के अनुसार शय्या-स्थान न मिले, अपितु खंडहर सरीखा सर्दी-गर्मी का उपद्रव पैदा करने वाला मिले तो भी मन में उद्वेग न होना
12.आक्रोश परिषहअशिष्ट, पापाचारी, पागल, घमंडी आदि दुष्टजनों के द्वारा प्रयुक्त कठोर, कर्कश, हृदय-भेदी शब्दों को सहन करना।
13.वध परिषहजान से मारने वालों के प्रति भी क्रोध नहीं करना।
14.याचना परिषहतपस्या के द्वारा शरीर कृश तथा अस्थि-पिंजर होने पर भी किसी से याचना भाव नहीं रखना अर्थात दीनता भाव से निवृत्त होना।
15.अलाभ परिषहभिक्षा के न मिलने पर संक्लेश के परिणाम नहीं होना।
16.रोग परिषहशरीर में किसी भी प्रकार का रोग उत्पन्न होने पर हाय-हाय न करना, साम्य भाव से सहना।
17.तृणस्पर्श परिषहसूखे तिनके, कठोर कंकड़, काँटे, तीखे पत्थर आदि के बिंधने से वेदना होने पर भी चित्त चलायमान नहीं होना।
18.मल परिषहशरीर के मलिन होने पर भी भावों में मलिनता नहीं होना, मैल या पसीने से घबरा कर स्नान करने की इच्छा तक न करना।
19.सत्कार परिषहसम्मान तथा अपमान को समान भाव से सहना। कोई वंदना, नमस्कार न करे तो बुरा नहीं मानना।
20.प्रज्ञा परिषहबुद्धि का विकास होने पर अर्थात ज्ञानी होने पर भी मद न करना।
21.अज्ञान परिषहअज्ञान के कारण होने वाले अपमान एवं ज्ञान की अभिलाषा को सहन करना।
22.अदर्शन परिषहअनेकों वर्षों तक कठिन तपादि करने पर भी यदि कोई ऋद्धियां उत्पन्न न हों तो भी सम्यग्दर्शन चारित्र संयमादि से च्युत न होना।

१२ तप –

जैन मुनि १२ प्रकार के तप को धारण करते हैं, वे इनको कर्म निर्जरा का प्रधान साधन मानकर उत्साहपूर्वक धारण करते हैं  –

1.अनशनअनशन का अर्थ है, चारों प्रकार के आहार का त्याग यह एक दिन को आदि लेकर बहुत दिन तक के लिए किया जाता है।
2.अवमौदर्यभूख से कम खाना अवमौदर्य नामक तप है।
3.वृत्तिपरिसंख्यानजब मुनि आहार के लिए जाते हैं तो मन में संकल्प लेकर जाते हैं, जैसे-एक कलश, दो कलश से पड़गाहन होगा तो जाएंगे नहीं तो नहीं।
4.रसपरित्याग घी, दूध, दही, शकर, नमक, तेल, इन छ: रसों में से एक या सभी रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है। 
5.विवितशय्यासनस्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिए एकान्त स्थान पर शयन करना, आसन लगाना, विवितशय्यासन तप है।
6.कायक्लेशशरीर सुख  की भावना को त्यागना कायक्लेश तप है।अथवा वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे, ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठकर तथा शीत ऋतु में नदी तट पर कायोत्सर्ग करना, ध्यान लगाना कायक्लेश तप है।
7.प्रायश्चितप्रमादजन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित तप है।
8.विनयमोक्ष के साधन भूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदि में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदि करना विनय तप है।
9.वैयावृत्यअपने शरीर व अन्य प्रासुक वस्तुओं से मुनियों व त्यागियों की सेवा करना, उनके ऊपर आई हुई आपत्ति को दूर करना, वैयावृत्य तप है।
10.स्वाध्याय‘ज्ञानभावनालस्यत्याग: स्वाध्याय:’ आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना, स्वाध्याय तप है।
11.व्युत्सर्गअहंकार ममकार रूप संकल्प का त्याग करना ही, व्युत्सर्ग तप है।
12.ध्यानएक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त तक होता है

जैन साधुओं के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ? 
श्रमण, संयत, वीतराग, ऋषि, मुनि, साधु और अनगार। 
श्रमण – तपश्चरण करके अपनी आत्मा को श्रम व परिश्रम पहुँचाते हैं। 
संयत – कषाय तथा इन्द्रियों को शांत करते हैं, इसलिए संयत कहलाते हैं। 
वीतराग – वीत अर्थात् नष्ट हो गया है राग जिनका वे वीतराग कहलाते हैं। 
ऋषि – सप्त ऋद्धि को प्राप्त होते हैं, इसलिए ऋषि कहलाते हैं। 
मुनि – आत्मा अथवा अन्य पदार्थों का मनन करते हैं, इसलिए मुनि कहलाते हैं। 
साधु – रत्नत्रय को सिद्ध करते हैं, इसलिए साधु कहलाते हैं। 
अनगार – नियत स्थान में नहीं रहते हैं, इसलिए अनगार कहलाते हैं। 

जैन साधुओं में कौन-कौन से पद होते हैं?
आचार्य: मुनि संघ के नेता एवं 36 मूलगुणों के धारी, शिक्षा एवं दीक्षा देने में कुशल।
उपाध्याय: संघ के नए मुनियों को ज्ञान-अर्जन में सहयोग करते हैं। 25 मूलगुणों के धारी।
मुनि या साधु: 28 मूल गुण धारी। संसार, भोग एवं शरीर से विरक्त।
आर्यिका : साधु परमेष्ठि समान 28 मूलगुण धारी मात्र 1 साड़ी धारण करने वाली| 
ऐलक: एक वस्त्र धारी(केवल लंगोट) 11 प्रतिमा धारी उत्कृष्ट श्रावक।
क्षुल्लक: 2 वस्त्र धारी(लंगोट एवं दुपट्टा) 11 प्रतिमाधारी मध्यम श्रावक।
क्षुल्लिका: क्षुल्लक समान मध्यम श्रविका एवं 11 प्रतिमा धारी श्राविका।

जैन साधू और साध्वी के लिए कौन से नियम होते हैं, जिन्हें उन्हें जीवनभर पालन करना होता है ?
जैन साधु साध्वी पंच महाव्रत धारी होते है।वे इन पांचों महाव्रतों का सूक्ष्मता से पालन करते है।वे इस प्रकार है
1)प्राणातिपात विरमण व्रत अर्थात मैं किसी भी जीव मात्र की हिंसा नही करूँगा।
2)मृषावाद विरमण व्रत अर्थात मैं कभी झूठ(असत्य)नही बोलूंगा।
3)अदत्तादान वीरमण व्रत अर्थात मैंकिसी भी प्रकार की चोरी नहीं करूंगा।
4)मैथुन विरमण व्रत अर्थात में किसी भी प्रकार का अब्रम्ह यानी स्त्री का स्पर्श या किसी भी प्रकार का काम भोग नही करूँगा।
5)परिग्रह विरमण व्रत अर्थात मैं कोई भी प्रकार का परिग्रह यानी रुपया, पैसा सोना,चांदी, जमीन,मकान या कोई भी सांसारिक वस्तु नही रखूंगा।
इसके अतिरिक्त इन नियमो के अनुरूप कई छोटे नियमों का भी पालन करते हैं-
१. कोई वस्त्र नहीं पहननें यानि नग्न रहना।
२. आजीवन रात्रि भोजन का त्याग| 
३. दिन में एक समय खड़े रहकर अंजुली में नीरस और प्रासुक आहार यानि भोजन व्रती श्रावक के द्वारा नवधा भक्तिपूर्वक दिए जाने पर ही ग्रहण करना।
४. दो से चार माह की अवधि में अपने सर और दाढ़ी के केशों को अपने हाथ से नौच कर उखाड़ना।
५. अपने दांतों को नहीं धोना।
६. कभी भी स्नान नहीं करना।
७. चार हाथ आगे देख कर पद विहार करना।
८. जीव जंतु रहित भूमि पर मल-मूत्र-थूक अदि का उत्सर्ग करना।
९. मयूर पिच्छी और कमंडल के अलावा कोई परिग्रह अपने पास नहीं रखना।
१०. उठाने बैठने और सोने अदि की क्रिया में मयूर पिच्छी से भूमि शोधन कर सूक्ष्म जीवो की विरादना से बचना।
११. भूमि पर शयन करना।
१२- रात्रि के अंतिम पहर में स्वान निद्रा लेना। एक ही करवट ले कर सोना।
१३-प्रतिदिन तीन बार सामायिक करना।
१४- शास्त्रों के पढ़ने, उपदेश देने ध्यान व सामायिक के अलावा अन्य आरम्भ अदि के कार्य नहीं करना।
१५-रात्रि मे मौन रहना।
१६- शीत ग्रीष्म और वर्षा के परिषह सहन करना। डांस्क मच्छर अदि के परिषह को सहन करना।
१७- केवल पद विहार करना। आदि |

दिगंबर जैन साधु कभी स्नान क्यों नहीं करते हैं?
जैन धर्म में प्रत्येक मुनि को 28 मूल गुणो का पालन करना अनिवार्य रहता हें। इसमे एक गुण स्नान का त्याग रहता हें। 
स्नान अनेक प्रकार है-जल से केवल मस्तक धोना, अथवा मस्तक छोड़कर अन्य अवयवों को धोना अथवा समस्त अवयवों को धोना, परन्तु त्रस और स्थावर जीवों को बाधा न होवे इसलिए मुनि जल से स्नान नहीं करते हैं। जैन धर्म में अग्नि, वायु, वनस्पति,जल आदि में भी जीव रहते हें और जैन धर्म अहिंसा प्रधान हें।
मुनियों को जलस्नान की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि, जल स्नान से सप्त धातुमय देह पवित्र नहीं होता। इसलिए शुचिता के लिए स्नान करना भी योग्य नहीं है, रोग परिहार के लिए भी स्नान की आवश्यकता नहीं है, यदि वे स्नान करेंगे तो रोग परीषह सहन करना व्यर्थ होगा। शरीर सौन्दर्य युक्त होने के लिए भी वे स्नान नहीं करते, क्योंकि वे वीतराग हैं। मुनि, घी, तैल इत्यादिकों से अभ्यगस्नान भी कुछ प्रयोजन न होने से करते नहीं हैं। घृतादि क्षार पदार्थों का स्पर्श होने से भूमि वगैरह में रहने वाले जन्तुओं को पीड़ा होती है, भूमि पर चिपके हुए जीव इधर उधर होते हैं, गिरते हैं, तब उनको एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय बाधा पहुँचती है।अधिक जानकारी के लिए लिंक- 
स्नान – जैनकोष

जैन मुनि केशलोच क्यों करते हैं? 
क्या आप खुद अपने हाथों से सिर के या मूंछों के बाल उखाड़ने का साहस करेंगे, शायद नहीं, हीं क्योंकिक्यों इसकी असहनीय पीड़ा के कारण आप यह जोखिम नहीं लेना चाहेंगे। लेकिन इस तस्वीर में देखिए एक जैन मुनि खुद अपने हाथों से मूंछों के बाल उखाड़ रहे हैं। अपने हाथों से केशों को उखाड़कर दिगम्बर जैन संत इस बात का परिचय देते हैं कि जैन धर्म कहने का नही बल्कि सहने वालों का धर्म है| 
दिगंबर मुनि एक केशलोंचलों के बार दूसरी बार केशलोंचलों कम से कम 2 माह और अधिक से अधिक 4 में करते है, यह इनकी तपस्या का अनिवार्य हिस्सा है। केशलोंचलों करते हुए मुनि घास फूस की तरह अपने हाथों से सिर, मूंछ और दाढ़ी के बालों को उखाड़ते हैं।
साधु शरीर की सुन्दरता को नष्ट करने और अहिंसा धर्म पालन के लिए केशलोंचलों करते हैं। 
दिगंबर साधू केशलोंच करते समय यह भाव रखते है कि कर्मो की निर्जरा हो रही है और पाप कर्म निकल रहे हैं जिससे दर्द का अनुभव भी नहीं होता। केशलोंचलों करने के पीछे एक कारण यह भी है कि साधू किसी पर अवलम्बित नहीं रहते हैं, वह स्वावलंबी होते हैं। इससे हिंसा भी नहीं होती।
शरीर की सुंदरता बालों से होती है। हाथों से बालों को निकालने पर शरीर की सुंदरता की इच्छा भी चली जाती है। इससे संयम का भी पालन होता है। 
जैन साधू जब केशलोंचलों करते हैं तो उनकी आत्मा की सुंदरता भी कई गुना बढ़ जाती है। यही वजह है कि जैन
साधू अपने आत्म सौंदसौं र्य को बढ़ाने के लिए कठिन से कठिन साधना करते हैं।
जिस दिन जैन मुनि केशलोंच करते है उस दिन उपवास भी रखते है ताकि केशों के लुंचन से बालों में होने वाले जीवों का जो घात हुआ या जो उन्हें कष्ट हुआ उसका प्रयाश्चित हो सके। 
कई लोग कहते है कि क्या अपने बालों को हाथों से उखाड़ना शरीर को कष्ट देना नहीं है? श्री महावीर भगवान कहते हैं कि “हाथो से बालों को उखाड़ना शरीर को कष्ट देना नहीं, हीं बल्कि शरीर की उत्कृष्ट साधना शक्ति का परिक्षण है”।

जैन मुनि खाना कैसे खाते हैं?
भारत के हर कोने में कई तरह की पंरपरा है। खान-पान के अपने नियम है। हर धर्म में भोजन ग्रहण करने के अलग अलग नियम है। जैन मुनि की आहारचर्या अचंभित करने वाली है। इनके कठोर नियमों के चलते कई दिनों तक भूखा भी रहना पड़ता है। जैन मुनि २4 घंटे में सिर्फ एक बार भोजन और पानी पीते हैं, इसका भी अपना तय समय है। यदि उन्हें निश्चित धारणा नहीं मिलती है, तो वैसे ही वापस लौट जाते हैं। इनकी आहारचर्या इनकी साधना का अहम हिस्सा है। यह स्वाद के लिए भोजन नहीं करते हैं। यह धर्म साधना के लिए भोजन करते हैं। यह साधना आम इंसान के लिए काफी कठिन होती है। 
जैन साधु जब आहार (भोजन) के लिए निकलते है तो विधि (नियम) लेकर निकलते हैं। पडग़ाहन में श्रद्धालुओं द्वारा शब्दों का उच्चारण किया जाता है। उस दौरान श्रद्धालु मतलब श्रावक के पास नारियल, कलश, लौंग होने का नियम लिया जाता है। नियम के अनुसार ये वस्तु नहीं दिखने पर बिना आहार लिए आ जाते हैं। उसके बाद दूसरे दिन फिर वहीं नियम के साथ आहार (भोजन) के लिए वापस निकलते है। यदि नियम नहीं मिलता है, फिर अगले दिन तक के लिए आहार-पानी का त्याग कर देते हैं। साधु की आहारचर्या को सिंहवृत्ति कहते हैं। साधु एक ही स्थान पर खड़े होकर दोनों हाथों को मिलाकर अंजुली बनाते हैं, उसी में भोजन करते हैं। यदि अंजुली में भोजन के साथ चींटी, बाल, कोई अपवित्र पदार्थ या अन्य कोई जीव आ जाए तो उसी समय भोजन लेना बंद कर देते हैं। अपने हाथ छोड़ देते हैं। उसके बाद पानी भी नहीं पीते है। इस विधि से भोजन करने से साधु की भोजन के प्रति आसक्ति दूर होती है। 

जैन साधु चातुर्मास क्यों और कब करते हैं? 
बारिश (मानसून) के ४ महीनों में (आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक कृष्ण अमावस्या अर्थात दीपावली के दिन तक) धर्म की रक्षा के लिए जैन साधु विहार आदि  नहीं करते। क्योंकि बरसात के समय ब्रह्मांड जीवो की उत्पत्ति बढ़ जाती है प्रत्यक्ष में हमे बिजली के कीड़े ,झिंगर, पंखी आदि रात के अंधेरे में बहुलता से हो जाती हैं तथा बरसात होते ही केंचुए, मेंढक, टिड्डे, बिच्छू, चींटी, अनेक प्रकार की घास आदि जमीन पर प्रत्यक्ष में दिखाई पड़ती और इनमें भी जान पाई जाती है इसलिए उनकी रक्षा के निमित्त से जैन साधु चातुर्मास करते हैं| 

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