जैन धर्म में ईश्वर का स्वरुप !! Form of God in Jainism !!
लाभ ही क्या उस स्वामी से, वैभवधारी नामी से|
निज सेवक को जो निज सम, करे नहीं अभिमानी से||
तुझसा स्वामी ही सेवक को भाये रे………. ,
आदिनाथ स्तोत्र महान जो नर गाये रे…….,
घाती-अघाती सब कर्म नशाये रे…………..,
क्योंकि जो मतों अपने को ईश्वरवादी आस्तिक कहते हैं, वे ईश्वर को ऐसी निरपेक्ष सत्ता मानते हैं जिसने सम्पूर्ण जगत(जड़ तथा चेतन) की रचना की है,वही सत्ता जगत की सारी गतिविधियों का संचालन करती है और जगत का विनाश भी उसी की इच्छा से होता है| ईश्वर अवतार लेता है (हिन्दू विश्वास),अपने दूत भेजता है (इस्लाम,यहूदी)अथवा अपने पुत्र को भेजता है (ईसाई)|
उनके अनुसार सारी शक्तियाँ और उनके अधिष्ठाता देवी-देवता भी ईश्वर के अधीन हैं, इस जगत में यदि एक पेड़ का पत्ता भी हिल रहा है वह भी उस ईश्वर की मर्ज़ी से हिल रहा है | ऐसी संकल्पना जैन धर्म में नहीं है| क्योंकि ईश्वर की ऐसी कल्पना करने पर निम्न दोष प्राप्त होते हैं-
- यह सम्पूर्ण जगत यदि उस ईश्वर की ही संरचना है तो वह ईश्वर अपनी इस संरचना निर्माण के पूर्व कहाँ रहता था?
- यदि इस जगत के बाहर भी कोई ऐसा स्थान है जहाँ वह ईश्वर रहता था तो उस स्थान का निर्माण किसने किया?
- कुछ भी निर्माण के लिये उससे सम्बंधित कुछ row material ( कच्चा माल ) आवश्यक होता है, जब कुछ था ही नहीं तो वह row material कहाँ से आया?
- प्रश्न ये भी उठता है कि जब कुछ था ही नहीं तो वह परमात्मा/ ईश्वर/ अल्लाह भी कहाँ से उत्पन्न हो गया?
- उस ईश्वर ने देवी-देवता उत्पन्न किये तथा अनगिनत जीव बनाये तो उसने किसी को देव बनाया, किसी को मनुष्य, किसी को जानवर बनाया| उसने ऐसा क्यों किया?
- जब ईश्वर ने ही पृथ्वी और आकाश के बीच की सारी चीज़ें बनायीं, तो उसने कहीं की भूमि बंजर और कहीं की भूमि उपजाऊ क्यों बनायी? किसी भूमि को जल युक्त और किसी भूमि को रेगिस्तान क्यों बनाया? कहीं स्वर्ग कहीं नरक क्यों बनाया? किसी को सुखी, किसी को दुखी क्यों बनाया? किसी को धर्मात्मा किसी को पापी क्यों बनाया?
- जब यहाँ एक पत्ता भी उसकी मर्ज़ी के बिना नहीं हिल सकता तो फिर इस संसार में आदमी आतंकवादी/ चोर/ लुटेरा किसकी मर्ज़ी से बनता है? और यदि एक चोर ने चोरी भगवान की मर्ज़ी से की तो गुनहगार आप किसे कहोगे उस चोर को या भगवान को?
- एक मत के अनुसार – परमात्मा पहले अकेला रहता था, उसने अपने अकेलेपन को दूर करने के लिये इस ब्रह्माण्ड की रचना की? इसका अर्थ हुआ भगवान भी बोर होते है और इस संसार में जो ये नाना लड़ाई-झगड़े होते हैं उन्हें देखकर उनका मनोरंजन होता है?
- सभी आत्मायें उसी परमात्मा के शरीर में थी? जब सब आत्मायें भगवान के शरीर में थी तो निश्चित रूप से सुखी होंगी, भगवान ने उन्हें दुःख भोगने के लिये अपने से पृथक क्यों किया?
- भागवत पुराण की माने तो ब्रह्मा हरि की नाभि से निकले जो निद्रा में हैं और गलतियाँ करते हैं और इस पर भी वे ब्रह्मांड की रचना करते हैं? तो क्या ब्रह्मांड निर्माण जैसा महत्वपूर्ण कार्य ऐसे लापरवाह भगवान को करना चाहिए था? उन्होंने तपस्या कर बाद में पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया यानि भगवान भी अज्ञानी और मूर्ख होते हैं?
- महापुराणों के अनुसार सृष्टि के आदि में केवल आदिशक्ति माँ सर्वेश्वरी ही थी, अन्य कोई नहीं था, न ही कोई तत्व था न कोई पदार्थ था फिर उन्होंने ब्रह्मा जी की रचना किस तत्व से की?
- किन्हीं के दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें एक सृष्टि के सर्जक, दूसरे पालक और तीसरे विलय करने वाले देवता हैं। एक ने सर्जन किया दूसरे पालन कर रहे हैं तो उन्हें भगवान माना भी जाये लेकिन तीसरे जो संहार करेंगे वे भगवान कैसे हो सकते हैं जब संहारक भी भगवान हो गया तो फिर सभी हिंसक मनुष्य एवं जानवरों को भी भगवान क्यों न माना जायेगा?
- कहा जाता है कि जब इस धरती पर पाप बढ़ेगा तब वह तीसरे देवता आकर संहार करेंगे तो इसका अर्थ हुआ कि प्रथम देवता के द्वारा बनायी गयी सृष्टि का ठीक प्रकार से पालन वह दूसरे नंबर के देवता नहीं कर पायेंगे तो वह दूसरे नंबर के देवता अक्षम कहलाये?
ऐसे ही अन्य-अन्य भी दोष ‘ईश्वर को जगत का कर्त्ता’ मानाने वालों के मतों में प्राप्त होते हैं| इसलिए जैन धर्म-दर्शन के अनुसार जगत का रचयिता,नियंत्रक और संहारक कोई पृथक् /स्वतंत्र सत्ता नहीं है| जगत अनादि और अनंत है| भौतिक पदार्थों को न उत्पन्न किया जा सकता है और न नष्ट| उनमें आंतरिक अथवा बाह्य कारणो से परिवर्तन होता है|(यही निष्कर्ष आधुनिक विज्ञान का भी है) | मनुष्य जीवन अपने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कर्मों का परिणाम होता है|
क्या मुसीबतों, विषमताओं और क्रूरताओं से परिपूर्ण यह जगत् एक भद्र परमात्मा की कृति हो सकता है ? जबकि हजारों मस्तिष्कहीन विचार तथा विवेकशून्य, अनैतिक, निर्दयी, अत्याचारी, जालिम, लुटेरे, स्वार्थी मनुष्य विलासताओं का जीवन बिता रहे हैं और अपने अधीन व्यक्तियों को हर तरह से अपमानित, पददलित करते हैं और मिट्टी में मिलाते हैं। इतना ही नहीं चिड़ाते भी हैं, दुखी लोग अवर्णनीय कष्ट सहते हैं। फिर भी ये अपने जीवन की | आवश्यक वस्तुएँ क्यों नहीं पाते ? भला ये सब विषमताएँ क्यों ? क्या ये न्यायशील ईश्वर के कर्तव्य हो सकते हैं? मुझे बताओ तुम्हारा ईश्वर कहाँ है ? मैं तो इस निस्सार जगत् में कहीं भी उसका नामोनिशान नहीं पाता ।
हाँ,जैन धर्म आत्मा (चेतन तत्व) का अस्तित्व मानता है और आत्मा के परम विकास की अवस्था को परमात्मा कहता है | ‘अप्पा सो परम अप्पा’ अर्थात आत्मा ही परमात्मा है| परमात्मा जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा में मौजूद उसका परम शुद्ध स्वरूप है।
तो क्या संसारी सभी आत्मायें परमात्मा है?
हाँ, सभी आत्मायें परमात्मा है लेकिन शक्ति रूप से हैं अभिव्यक्ति रूप से नहीं|
शक्ति रूप परमात्मा और अभिव्यक्ति रूप परमात्मा में क्या अंतर है?
शक्ति रूप परमात्मा से तात्पर्य उस योग्यता से है जिसके कारण यदि जीव स्वयं पुरुषार्थ करे तो परमात्मा बन सकता है, यदि यह शक्ति रूप परमात्मा ना माना जाये तो जीव मात्र भक्त बना रहेगा लेकिन अनंत कालों में भी कभी भगवान नहीं बन पायेगा| क्योंकि शक्ति की ही अभिव्यक्ति होती है| मनुष्य के नवजात शिशु में ही डॉक्टर बनाने रूप शक्ति है, इसलिए उससे डॉक्टर बनाने अपेक्षा रखी जाती है एवं उसी योग्य उसकी शिक्षा का प्रबंध किया जाता है लेकिन ऐसी अपेक्षा एवं प्रबंध बंदर के नवजात शिशु के लिए नहीं किया जाता|
अभिव्यक्ति रूप परमात्मा वह है जिसने अपने समस्त कर्मों एवं उनके निमित्त से होने वाले अपने सभी विकारी भावों को नाश कर साक्षात परमात्म अवस्था को प्रगट कर लिया है|
जैन धर्म में ईश्वर किन विशेषताओं वाला स्वीकार किया गया है?
यदपि जैन धर्म में ईश्वर की अनेकों विशेषतायें बतायी गयी हैं उनमें से प्रमुख विशेषतायें ३ हैं जो अन्य किसी मत में देखने को नहीं मिलती-
१. वीतरागी २. सर्वज्ञ ३. हितोपदेशी|
जैन धर्म में ईश्वर को पूर्ण वीतरागी स्वीकार किया गया है इसीलिये किसी को वरदान देना और किसी को शाप देना ये काम ईश्वर के नहीं हो सकते|
जैन धर्म में ईश्वर को सर्वज्ञ स्वीकार किया गया है इसीलिये ईश्वर भूत-वर्तमान-भविष्य तीनों काल सम्बन्धी सभी चराचर पदार्थों को जानने वाले होते हैं|
जैन धर्म में ईश्वर को हितोपदेशी स्वीकार किया गया है, यह हितोपदेशिता उनकी पूर्ण वीतरागी होने से ही प्रगट होती है, क्योंकि जिसे एक के प्रति राग और दूसरे के प्रति द्वेष होगा तो वह कभी एक सामान भाव से उपदेश नहीं दे सकता|
ईश्वर बनने का क्रम क्या है?
ये ८ कर्म कौन-कौन से हैं, जिन्हें संसारी जीव नष्ट कर सिद्ध बनाते हैं ?
घातिया और अघातिया के भेद से 8 कर्मों को २ वर्गों में बांटा गया है :-
१- घातिया कर्म :-
जो कर्म आत्मा के असली स्वरुप को पूरी तरह से घात करने वाले हैं, वो घातिया कर्म हैं.
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय|
२- अघातिया कर्म :-
जो कर्म आत्मा के गुणों को सीधे घात करने कि शक्ति नहीं रखते, किन्तु घातिया कर्मों के सहायक हैं.
वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म|
1 – ज्ञानावरणीय कर्म:-
जिस कर्म के उदय से आत्मा के ज्ञान पर आवरण पड़ जाता है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं !
केवल पर्दा पड़ता है, आत्मा का ज्ञान नष्ट नहीं होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत ज्ञान को पा लेती है !
2 – दर्शनावरणीय कर्म:-
जिस कर्म के उदय से आत्मा के यथार्थ अवलोकन/दर्शन पर आवरण पड़ जाता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं !
केवल पर्दा पड़ता है, आत्मा का दर्शन गुण नष्ट नहीं होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत दर्शन गुण को पा लेती है !
3 – वेदनीय कर्म;-
जिस कर्म के उदय से हम वेदना अर्थात सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं !
इस कर्म से आत्मा के अव्याबाध गुण अर्थात आकुलता रहित सुख का घात होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत सुख को पा लेती है !
4 – मोहनीय कर्म:-
जिस कर्म के उदय से हम मोह, राग, द्वेष आदि विकार भावों का अनुभव करते हैं, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं !
अर्थात, जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व व चारित्र गुणों का घात करता है वो मोहनीय कर्म है !
5 – आयु कर्म:-
जिस कर्म के उदय से जीव किसी एक शरीर में निश्चित समय तक रुका रहता है, उसे आयु कर्म कहते हैं !
इस कर्म के कारण आत्मा मनुष्य-देव-नारकी-तिर्यंच आदि भव धारण करता है|
6 – नाम कर्म:-
जिस कर्म के उदय से अलग-अलग प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं, हमे देखते हैं कि कोई इतना सुंदर है, कोई कम सुंदर, कोई बलशाली, कोई कमज़ोर… शरीर के अंग-उपांग, सुंदरता-कुरूपता देने में जो कर्म फलदायी है उसे नाम कर्म कहते हैं !
इस कर्म के नाश होने पर आत्मा का सूक्ष्मत्व गुण प्रगट होता है|
7 – गोत्र कर्म:-
जिस कर्म के उदय से उच्च य़ा नीच कुल कि प्राप्ति होती है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं !
इस कर्म के नाश होने पर आत्मा का अगुरुलघुत्व गुण प्रगट होता है|
8 – अंतराय कर्म:-
जिस कर्म के उदय से किसी भी सही या अच्छे काम को करने में बाधा/दिक्कत उत्त्पन्न होती है, उसे अंतराय कर्म कहते हैं !
इस कर्म के नाश होने पर आत्मा का अनन्तवीर्य गुण प्रगट होता है|