किंनाम एकावलीव्रतम्?
कथं च विधीयते व्रतिकै:?
अस्य किं फलम्?
उच्यते-एकावल्यामुपवासा एकान्तरेण चतुरशीति: कार्या:,
न तु तिथ्यादिनियम:। इदं स्वर्गापवर्गफलप्रदं भवति।
इति निरवधिव्रतानि।।

अर्थ

एकावली व्रत क्या है? व्रती व्यक्तियों के द्वारा यह कैसे किया जाता है? इसका फल क्या है? आचार्य कहते हैं कि एकावली व्रत में एकान्तर रूप से उपवास और पारणाएँ की जाती हैं, इसमें चौरासी उपवास तथा चौरासी पारणाएँ की जाती हैं। तिथि का नियम इसमें नहीं है। इस व्रत के पालने से स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होती है।

विवेचन-

एकावली व्रत की विधि दो प्रकार देखने को मिलती है। प्रथम प्रकार की विधि आचार्य-द्वारा प्रतिपादित है, जिसके अनुसार किसी तिथि आदि का नियम नहीं है। यह कभी भी एक दिन उपवास, अगले दिन पारणा, पुन: उपवास, पुन: पारणा, इस प्रकार चौरासी उपवास करने चाहिए। चौरासी उपवासों में चौरासी ही पारणाएँ होती हैं। इस व्रत को प्राय: श्रावण मास से आरंभ करते हैं। व्रत के दिनों में शीलव्रत और पञ्चाणुव्रतों का पालन करना आवश्यक है।
दूसरी विधि यह है कि प्रत्येक महीने में सात उपवास करने चाहिए, शेष एकाशन, इस प्रकार एक वर्ष में कुल चौरासी उपवास करने चाहिए। प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, अष्टमी और चतुर्दशी एवं शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, पञ्चमी, अष्टमी और चतुर्दशी तिथियों में उपवास करना चाहिए। उपवास के अगले और पिछले दिन एकाशन करना आवश्यक है। शेष दिनों में भोज्य वस्तुओं की संख्या परिगणित कर दोनों समय भी आहार ग्रहण किया जा सकता है। इस व्रत में णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए।