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एक छिद्रान्वेषी ऐसा भी!

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बल्लु (प. पूज्य गुरुदेव के बचपन का नाम) के तीन वर्ष की उम्र का प्रसंग है, वे माँ के साथ नानाजी के घर गए थे। नानाजी श्री रामप्रसाद जैन किराने के व्यापारी थे। साथ ही वैद्यगिरी भी करते थे। सर्दी, जुखाम के अवसर पर रोगियों को इंजेक्शन भी लगा देते थे। उनका गुण उनके पुत्र सुन्दर जैन और शिखर जैन ने भी अपना लिए थे। उन लोगों को डॉक्टर बना हुआ देखकर बल्लु सोचते ‘मैं भी डाक्टर बनूँगा।’ नाना जी की दुकान की सीलिंग में बीचोंबीच, एक तीन इंच चौड़ा छिद्र था, जिसके माध्यम से रसोई घर में से भी दुकान का हालचाल जाना जा सकता था। सबसे बड़ा लाभ यह था कि नानीजी को रसोईघर से उतरकर नीचे नहीं जाना पड़ता था, जब भोजन बना लेती थीं तब उसी छेद के समीप से नाना को पुकारती थी-‘काय सुन्दर हरो, भोजन कर लो।’ वे बड़े बेटे का नाम लेती थीं और नाना जी भोजन के लिए चल देते थे। एक दिन दुकान में कोई नहीं था, दरवाजे खुले हुए थे, तब बल्लु ने छेद में से झाँककर देखा, वहाँ एक व्यक्ति रुपयों की गोलक से रुपए निकाल रहा था। बल्लु दौड़कर नीचे आए और उससे पूछने लगे-‘जो का कर रहे हो तुम ?’
– कछु नई भैया।
– तो फिर गोलक क्यों खोली ?
– भैया हम तो सौ रुपए के नोट की चिल्लर लेवे आय थे। तब तक नाना जी पहुँच गए। अतः बल्लु उनसे बोले- ‘नानाजी, जो गोलक खोल रहो थो।
-दादाजी हम चोरी नई कर रहे थे, हम तो खुल्ला (चिल्लर) पैसे ले रहे थे सौ रुपए के।
नानाजी ने उसे डाँटकर भगा दिया फिर बल्लु को गोदी में उठाकर बोले- ‘आज तो बल्लु ने लुटने से बचा लिया।’ बल्लु मुस्कराते रहे। नानाजी ने शक्कर में पागी हुई मूंगफली खाने दे दी। बल्लु खुश, जैसे पुरस्कार पा गए हों।
इस प्रसंग से लगा कि बल्लु ने ‘छिद्रान्वेषी’ शब्द को एक नया रूप दे दिया था और उस दृष्टि से वे ‘बड़ाई योग्य छिद्रान्वेषी’ बन गए।

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