भारत में प्रचलित प्राचीन एवं आधुनिक दर्शन
‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह ‘जिन’ है।
- अर्हत, अरिहंत, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं।
- आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।
- जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है।
अत: जैन धर्म में ‘आत्मोदय’ के साथ ‘सर्वोदय’ अर्थात् सबका कल्याण उद्दिष्ट है। इसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।
विषय सूची
- 1 प्राचीन एवं आधुनिक दर्शन
- 1 (A) जैन दर्शन
- 1 (B) बौद्ध दर्शन
- 1 (C) चार्वाक दर्शन
- 1 (D) वैदिक दर्शन
- 1. न्याय दर्शन
- 2. वैशेषिक दर्शन
- 3. सांख्य दर्शन
- 4. योग दर्शन
- 5. मीमांसा दर्शन
- 6. वेदान्त दर्शन
- 2. जैन दर्शन में द्रव्य मीमांसा
- 3. जैन दर्शन में तत्त्व मीमांसा
- 4. जैन दर्शन में पदार्थ मीमांसा
- 5. जैन दर्शन में पंचास्तिकाय मीमांसा
- 6. जैन दर्शन में अनेकांत विमर्श
- 7. जैन दर्शन में स्याद्वाद विमर्श
- 8. जैन दर्शन में वर्ण व्यवस्था
- 9. जैन दर्शन की प्राचीनता
- 10. देश विदेश में जैनदर्शन का अध्ययन
- 11. जैन दर्शन एवं जैन धर्म संबंधी भ्रांतियाँ
भारत एक धर्म प्रधान देश है। जहाँ भोगभूमि के प्रारम्भिक काल (लगभग 1 कोड़ाकोड़ी सागर पूर्व ) से ही धर्म का प्रारंभ हो गया था| क्योंकि उस समय में ही अंतिम कुलकर नभिराय के पुत्र ऋषभनाथ / आदिनाथ का जन्म हुआ था| उन्होंने योग्य काल में अपने पिता के राज्य को संभाला एवं विस्तार प्रदान किया| एक दिवस कारण प्राप्तकर उन्होंने निर्ग्रंथ मार्ग अर्थात् दिगम्बर मार्ग को स्वीकार किया| 1000 वर्षों की कठोर साधना एवं ध्यान के माध्यम से उन्होंने केवलज्ञान (आत्मा के सम्पूर्ण ज्ञान का उद्घाटन) प्राप्त किया| तीर्थंकर श्री ऋषभदेव / आदिनाथ स्वामी की समोशरण सभा में एक दिन उन्हीं का पोता, भरत पुत्र राजकुमार मारीची उपस्थित हुआ| यह वही भरत हैं जिसके नाम पर तब से लेकर आज तक यह देश भारत देश कहा जाता है|
आदि प्रभु आदिनाथ स्वामी से किसी भव्य पुरुष ने प्रश्न किया कि क्या आपके ही समान आपके कुलवंश में कोई और भी इन पंचकल्याणकों को प्राप्त करने वाला तीर्थंकर होगा? तब प्रभु की वाणी में 24 वें तीर्थंकर महावीर के रूप में राजकुमार मारीच का नाम आया| प्रभु की वाणी से अपना नाम सुनते ही वह अभिमान को प्राप्त हो गया और वर्तमान पर्याय में ही अपने को तीर्थंकर मानने लगा| उस अज्ञानी के द्वारा इस प्रकार तभी से अनेकानेक मतों एवं दर्शनों का प्रारंभ कर दिया| जो उसकी मान्यता करने वाले अन्य-अन्य व्यक्तियों के द्वारा विस्तार को प्राप्त होते रहे| इस प्रकार आदिनाथ स्वामी के समय में ही एक सनातन, अनादि-अनिधन जैन धर्म एवं जैन दर्शन के साथ ही अन्य-अन्य कल्पित धर्म संज्ञा को प्राप्त मतों एवं दर्शनों का प्रचलन हो गया| यद्यपि उनमें से ज़्यादातर दर्शन काल के गाल में समा चुके हैं अथवा अपने-अपने क्षेत्रों में सीमित होकर रह गए हैं| लेकिन आज वर्तमान में एक जैन दर्शन के साथ अन्य 8 दर्शनों की मान्यता विशेष दिखायी देती है|
मूल में ये दर्शन चार (4) हैं – 1. जैन दर्शन 2. बौद्ध दर्शन 3. चार्वाक दर्शन 4. वैदिक दर्शन |
वैदिक दर्शन से आपसी भेद के कारण 6 भेद रूप हो गया है, जो षट् दर्शन के नाम से प्रचलित है, जो निम्न हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त |
इस प्रकार वर्तमान में कुल 9 दर्शनों का प्रचलन इस भारत भूमि पर हो रहा है| यद्यपि समय-समय पर आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी, आचार्य श्री अकलंक देव आदि न्याय-सिद्धांत के प्रकांड विद्वान निर्ग्रंथ साधुओं के द्वारा इन दर्शनों का खंडन बड़ी-बड़ी सभाओं के मध्य वाद-विवाद में युक्ति एवं आगम के द्वारा किया जाता रहा हैं, किन्तु दशकों से अपने-अपने मत / संप्रदाय की हटाग्रता हो चुकी हैं, अब यहाँ सम्यक विधि से वाद-विवाद के स्थान पर शक्ति प्रदर्शन एवं बहुमत के द्वारा अपने-अपने दर्शन / मत को श्रेष्ठ बताया जा रहा है|
प्रथम हम यहाँ सभी 9 दर्शनों की संक्षेप व्याख्या कर पश्चात् जैन दर्शन की विस्तृत व्याख्या करेंगे|
· 1(A). जैन दर्शन
- भगवान आदिनाथ / ऋषभनाथ के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है| प्रभु के उपदेश 12 अंगों के रूप में हैं, इन 12 अंगों को ही द्वादशांग कहा गया है| जैन निर्ग्रंथ परंपरा में अनेकानेक दिग्गज प्रकांड विद्वान आचार्य हुए, वे अपने गुरुजनों से मौखिक उपदेश मात्र प्राप्तकर जिनागम का ज्ञान कर लिया करते थे और वही ज्ञान अपने शिष्यों तक प्रेषित कर दिया करते थे| इसप्रकार प्रभु महावीर स्वामी के निर्वाण के भी बहुत दीर्घ काल तक जैन ग्रंथों का लेखन कार्य नहीं किया गया| पीछे ज्ञान के ह्रास को देखते हुए दिगम्बर आचार्य धरसेन स्वामी से प्रेरणा एवं ज्ञान प्राप्तकर आचार्य पुष्पदन्त एवं आचार्य भूतबलि ने प्रथम जैन ग्रंथ षट्खंडगम के रूप में लिपिबद्ध किया| तत्पश्चात् अन्य-अन्य जैन ग्रंथ लिपिबद्ध किए गए|
- जैन धर्म में शास्त्रों को ४ अलग-अलग अनुयोग में विभाजित किया गया है। जैन शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं। हर अनुयोग के अपने अपने प्रमुख ग्रन्थ है। यह ४ अनुयोग क्रमशः-
- प्रथमानुयोग – ६३ शलाका पुरुषो की कथाएँ व पुराण। प्रमुख ग्रंथ पद्मपुराण, महापुराण, आदिपुराण और अन्य।
- करणानुयोग – कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग के शास्त्र। प्रमुख ग्रंथ षट्खण्डागम, कषायपाहुड और अन्य।
- चरणानुयोग – श्रावक और मुनि का आचार-विचार। प्रमुख ग्रंथ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, मूलाचार और अन्य।
- द्रव्यानुयोग – चेतन-अचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्व का निर्देश। प्रमुख ग्रंथ समयसार, प्रवचनसार और अन्य।
- सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी है, वहीं यह ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकारता है किन्तु ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता।
- जैन दर्शन पुनर्जन्म एवं नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार स्वीकारता है|
- जीव स्वरूप से चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है। संसार अवस्था में वह मन और इंद्रियों के माध्यम से ज्ञान करता है, इस ज्ञान को परोक्ष ज्ञान अथवा संव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं| यद्यपि वह इनके बिना भी परोक्ष विषयों के ज्ञान में समर्थ है। इस ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं, इसके तीन रूप हैं – अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान। पूर्ण ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह केवली / अरिहंत अवस्था में प्राप्त हाता है| यह पाँचों ही सम्यक ज्ञान हैं और सम्यक ज्ञान ही ‘प्रमाण’ है। प्रारंभ के तीन ज्ञान मिथ्या रूप भी होते हैं, मिथ्याज्ञान को ‘प्रमाण’ नहीं स्वीकारा गया है|
- सम्पूर्ण वस्तु ‘प्रमाण’ रूप होती है और किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का कथन करना ‘नय’ कहलाता है| इस अपेक्षा से वस्तु में जीतने धर्म हैं उतने “नय” हैं, फिर भी समझने की दृष्टि से नय के 7 भेद किये हैं| नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय तथा एवंभूतनय।
- जैन दर्शन में 6 ही द्रव्यें मानी गयी हैं, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल| इनमें जीव और पुद्गल सक्रिय द्रव्यें हैं, शेष सभी निष्क्रिय हैं|
- जैन दर्शन में 7 तत्व माने गए हैं| जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष| जिस प्रकार जल को कितना ही तपा दो वह एक ना एक दिन शीतल अवश्य होगा क्योंकि शीतलता उसका स्वभाव है ठीक उसी प्रकार कर्म मल से तपा जीवात्मा का स्वभाव निरंजन है,निर्द्वंद है वह कभी न कभी उसे अवश्य प्राप्त करेगा ही। जैन दर्शन परमात्मा को कर्ता धर्ता नहीं मानता वह मानता है जैसे शुभाशुभ कर्म किए है़ं उसका फल अवश्य ही मिलेगा।परमात्मा शुभ व अशुभ दोनों से सर्वथा भिन्न सर्वशुद्ध है।
· 1(B). बौद्ध दर्शन
बौद्ध दर्शन महात्मा बुद्ध के द्वारा चलाया गया| महात्मा बुद्ध प्रारम्भ के कुछ वर्ष निर्ग्रंथ जैन साधू के रूप में रहे लेकिन उन्हें जैन धर्म के सिद्धांत खास कर के कठोर तप करके शरीर को कष्ट देना अच्छा नहीं लगा।दूसरी तरफ उन्होंने वैदिक धर्म पालने वाले ब्राह्मणों को देखा जो कोई खास तप नहीं करते थे।इसलिए महात्मा बुद्ध ने मध्यम मार्ग निकाला, जो कि जैन धर्म के कठोर मार्ग और वैदिक धर्म के बीच का मार्ग है।इसलिए उनके सिद्धांतों और उपदेशों में जैन धर्म के बहुत सी बातें मिलती है।जैसे- अर्हत,संसार,निर्वाण आदि।
- ” बौद्ध महावग्ग” में लिखा है”- वैशाली में सड़क-सड़क पर बड़ी संख्या में दिगम्बर साधु प्रवचन दे रहे थे।
- “अगुत्तर निकाय” में लिखा है”- नाथपुत्र (तीर्थङ्कर महावीर) सर्वदृष्टा, अनन्तज्ञानी तथा प्रत्येक क्षण पूर्ण सजग एवं सर्वज्ञ रूप से स्थित थे।
- “मंजू श्रीकल्प” में तीर्थङ्कर ऋषभदेव को निर्ग्रन्थ तीर्थङ्कर व आप्त देव कहा है।
- “न्यायबिन्दु” में तीर्थङ्कर महावीर को सर्वज्ञ अर्थात् केवलज्ञानी आप्त तीर्थङ्कर कहा है।
- “मज्झिमनिकाय” में लिखा है- तीर्थङ्कर महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सम्पूर्ण ज्ञान व दर्शन के ज्ञाता थे।
- ” दीर्घ निकाय” में लिखा है- भगवान् महावीर तीर्थङ्कर हैं, मनुष्यों द्वारा पूज्य हैं, गणघराचार्य हैं।
बौद्ध मत का प्रचार भारत देश में बड़े स्तर पर था, किन्तु ईस्वी की आठवीं शताब्दी में दिगम्बर जैन आचार्य अकलंक देव से एक सशर्त वाद-विवाद हुआ और उसमें पराजय होने पर बौद्ध भिक्षुओं को भारत से पलायन कर एशिया देशों की शरण लेनी पड़ी| बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए जो स्थविरवाद और महायान के रूप में विकसित हुए। इन सम्प्रदायों द्वारा बौद्ध मत का विकसित किया गया और बाद में पूरे एशिया में उसका प्रसार हुआ। ‘दुःख से मुक्ति’ बौद्ध धर्म का सदा से मुख्य ध्येय रहा है।
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। यह वस्तु की क्षणिकता को ही स्वीकार करता है| बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस प्रकार बौद्धमत में आत्मवाद का खंडन करके “अनात्मवाद” की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में इन दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है।
वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा “सर्वास्तित्ववाद” कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।
बौद्ध दर्शन अपने प्रारम्भिक काल में आचारशास्त्र के रूप में ही था। बाद में बुद्ध के उपदेशों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने इसे आध्यात्मिक रूप देकर एक दार्शनिकशास्त्र बनाया।
बुद्ध द्वारा सर्वप्रथम सारनाथ में दिये गये उपदेशों में से चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं :- ‘दुःखसमुदायनिरोधमार्गाश्चत्वारआर्यबुद्धस्याभिमतानि तत्त्वानि।’
- दुःख- संसार दुखमय है।
- दुःखसमुदाय दर्शन- दुख उत्पन्न होने का कारण है (तृष्णा)
- दुःखनिरोध- दुख का निवारण संभव है
- दुःखनिरोधमार्ग- दुख निवारक मार्ग (आष्टांगिक मार्ग)
बुद्धाभिमत इन चारों तत्त्वों में से दुःखसमुदाय के अन्तर्गत द्वादशनिदान (जरामरण, जाति, भव, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप, विज्ञान, संस्कार तथा अविद्या) तथा दुःखनिरोध के उपायों में अष्टांगमार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि) का विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त पंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह) तथा द्वादश आयतन (पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि), जिनसे सम्यक् कर्म करना चाहिए- भी आचार की दृष्टि से महनीय हैं। वस्तुतः चार आर्य सत्यों का विशद विवेचन ही बौद्ध दर्शन है।
बौद्धों के अनुसार वस्तु का निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं रह सकता, इसिलिये आत्मा भी क्षणिक है और यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाता है । इसके लिए बौद्ध मतानुयायी प्रायः दीपशिखा की उपमा देते हैं। जब तक दीपक जलता है, तब तक उसकी लौ एक ही शिखा प्रतीत होती है, जबकि यह शिखा अनेकों शिखाओं की एक श्रृंखला है। एक बूँद से उत्पन्न शिखा दूसरी बूंद से उत्पन्न शिखा से भिन्न है; किन्तु शिखाओं के निरन्तर प्रवाह से एकता का भान होता है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थ क्षणिक है, किन्तु उनमें एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ‘नित्यवाद’ और ‘अभाववाद’ के बीच का मध्यम मार्ग है।
· 1(C). चार्वाक दर्शन
चार्वाक दर्शन मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। भौतिकवादी होने के कारण यह आदर न पा सका। इसका इतिहास और साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और भौतिकवाद है। इसके अनुसार केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् ही सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं। भूतों के संयोग से देह में चेतना उत्पन्न होती है। देह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है। आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जीवनकाल में यथासंभव सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
चार्वाक दर्शन एक प्राचीन भारतीय भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह प्रमाण नहीं मानता| अजित केशकंबली को चार्वाक के अग्रदूत के रूप में श्रेय दिया जाता है, जबकि बृहस्पति को आमतौर पर चार्वाक या लोकायत दर्शन के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। महात्मा बुद्ध के समकालीन एवं तरह-तरह के मतों का प्रतिपादन करने वाले जो कई धर्माचार्य मंडलियों के साथ घूमा करते थे उनमें अजित केशकंबली भी एक प्रधान आचार्य थे। इनका नाम था अजित और केश का बना कंबल धारण करने के कारण वह केशकंबली नाम से विख्यात हुए। चार्वाक दर्शन के संस्थापक आचार्य बृहस्पति कौन हैं, यह निर्णय कर पाना अत्यन्त कठिन कार्य है, क्योंकि बृहस्पति नाम के आचार्य अनेकों समय-समय पर होते रहे हैं।
चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादिता का समर्थन करता है, वह अनुमान आदि प्रमाणों को नहीं मानता है। उसके मत से पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार ही तत्व है, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्व की स्थिति नहीं है, इन्ही चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है, इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है देहात्मवाद। इस प्रकार से जीव इन भूतो से उत्पन्न होकर इन्ही भूतो के नष्ट होते ही समाप्त हो जाता है, आगे पीछे इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिये जो चेतन में देह दिखाई देती है वही आत्मा का रूप है, देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण ही नहीं मिलता है। चार्वाक के मत से स्त्री पुत्र और अपने कुटुम्बियों से मिलने और उनके द्वारा दिये जाने वाले सुख ही सुख कहलाते है। उनका आलिन्गन करना ही पुरुषार्थ है, संसार में खाना पीना और सुख से रहना चाहिये। इस दर्शन में कहा गया है, कि:-
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नहीं है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?
चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अत: चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात यह शरीर ही आत्मा है। इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है- तर्क, अनुभव और आयुर्वेद शास्त्र।
- तर्क से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात आत्मा सिद्ध होता है।
- अनुभव ‘मैं स्थूल हूँ’, ‘मैं दुर्बल हूँ’, ‘मैं गोरा हूँ’, ‘मैं निष्क्रिय हूँ’ इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के धर्म हैं और ‘मैं’ भी वही है। अत: शरीर ही आत्मा है।
- आयुर्वेद जिस प्रकार गुड, जौ, महुआ आदि को मिला देने से काल क्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्त उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें बिच्छू पैदा हो जाता है अथवा पान, कत्था, सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इन भूतों के विशिष्ट मात्रा में मिश्रण का कारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाक के पास स्वभाववाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
न्याय आदि शास्त्रों में ईश्वर की सिद्धि अनुमान या आप्त वचन से की जाती है। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अत: उसके मत में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर हैं वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अत: उसे ही ईश्वर मानना चाहिये।
ईश्वर को न मानने पर जीव सामान्य के शुभ एवं अशुभ कर्मों के फल की व्यवस्था कैसे सम्भव होगी? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक पूछता है कि किस कर्म फल की व्यवस्था अपेक्षित? संसार में दो प्रकार के कर्म देखे जाते हैं। एक लौकिक तथा दूसरा अलौकिक कर्म। क्या आप लौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सम्बन्ध में चिन्तित हैं? यदि हाँ, तो यह चिन्ता अनावश्यक है। लौकिक कर्मों का फल विधान तो लोक में सर्व मान्य राजा या प्रशासक ही करता है। यह सर्वानुभव सिद्ध तथ्य, प्रत्यक्ष ही है। हम देखते हैं कि चौर्य कर्म आदि निषिद्ध कार्य करने वाले को उसके दुष्कर्म का समुचित फल, लोक सिद्ध राजा ही दण्ड के रूप में कारागार आदि में भेज कर देता है। इसी प्रकार किसी की प्राण रक्षा आदि शुभ कर्म करने वाले पुरुष को राजा ही पुरस्कार रूप में सुफल अर्थात धन धान्य एवं सम्मान से विभूषित कर देता है।
यदि आप अलौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सन्दर्भ में सचिन्त हैं तो यह चिन्ता भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पारलौकिक फल की दृष्टि से विहित ये सभी पूजा, पाठ तपस्या आदि कर्म जन सामान्य को ठगने की दृष्टि से तथा अपनी आजीविका एवं उदर के भरण पोषण के लिए कुछ धूर्तों द्वारा कल्पित हुए हैं। इन कर्मों का फल आज तक किसी को भी दृष्टि गोचर नहीं हुआ है। यदि इन कर्मों का कोई फल होता तो अवश्य किसी न किसी को इसका प्रत्यक्ष आज तक हुआ होता। अत: आज तक किसी को भी इन कर्मों का फल-स्वर्ग, मोक्ष, देवलोक गमन आदि प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं है अत: ये समस्त कर्म निष्फल ही हैं।
प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पत्ति ‘चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों में ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब ‘दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’। चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं।
· 1(D). वैदिक दर्शन
हिन्दू धर्म में दर्शन की अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। हिन्दू दार्शनिक परम्परा में विभिन्न प्रकार के ईश्वरवादी दर्शनों के अलावा अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दार्शनिक परम्पराएँ भी विद्यमान रहीं हैं। ज़्यादातर हिन्दू वेद की सत्ता को मानते हैं। वेदों के माध्यम से आया हुआ दर्शन वैदिक दर्शन है|
वेदों का रचनाकाल बहुत विवादग्रस्त है। प्रायः पश्चिमी विद्वानों ने ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 ई.पू. से लेकर 2500 ई.पू. तक माना है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योतिष आदि के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद का समय 3000 ई.पू. से लेकर 75000 वर्ष ई.पू. तक मानते हैं।
वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध हैं। ये छः दर्शन ये हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त।
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न्याय दर्शन :-
ऋषि अक्षपाद गौतम (छठी शताब्दी ई. पू.) रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मों में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
इस न्याय दर्शन के अनुसार मोक्षावस्था में आत्मा अपने सारे गुणों से रहित होकर अपने शुद्ध द्रव्य रूप में अवस्थित रहती है। बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और संस्कारों से परे आत्मा जब दु:खभाव रूप आनंद की अवस्था में अवस्थित हो जाती है, उसे मुक्त कहते हैं।
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वैशेषिक दर्शन :-
ऋषि कणाद (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) रचित इस दर्शन में वेदों की मान्यता अनुसार धर्म के स्वरूप का वर्णन किया गया है। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। यह दर्शन “औलूक्य”, “काणाद”, या “पाशुपत” दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है।
इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधर्म्य तथा वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
वायुपुराण में ऋषि कणाद का जन्म स्थान प्रभास पाटण बताया है। स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। ये “उच्छवृत्ति” थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें “कणाद” या “कणभुक्” कहते थे। इनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद प्रसिद्ध हुआ।
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सांख्य दर्शन :-
इस दर्शन के रचयिता ऋषि कपिल (700 वर्ष ई.पू.) हैं। सांख्य में प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व माने गए हैं। प्रकृति को सत्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों से निर्मित कहा गया है। त्रिगुण की साम्यावस्था, प्रकृति और इनके वैषम्य से सृष्टि होती है। सृष्टि में कुछ नया नहीं है, सब प्रकृति से ही उत्पन्न है। संसार प्रकृति का परिणाम मात्र है। सत्कार्यवाद और परिणामवाद के प्रवर्तक के रूप में सांख्य की प्रसिद्धि है। पुरुष के संनिधि मात्र से प्रकृति में वैषम्य होने से सृष्टि होती है। प्रकृति जड़ है-पुरुष चेतन, प्रकृति कर्ता है-पुरुष निष्क्रिय। लँगड़े और अन्धे के संयोग की तरह पुरुष और प्रकृति का संयोग है। पुरुष चेतन है और अपना बिम्ब प्रकृति में देखकर अपने को ही कर्ता समझता है और इसी अज्ञान के बन्धन में पड़कर दु:ख भोगता है, मोह को प्राप्त होता है। जिस समय पुरुष को ज्ञान हो जाता है कि वह कर्ता नहीं है, निर्लिप्त, कूटस्थ साक्षी मात्र है, प्रकृति का नाटय उसके लिए समाप्त हो जाता है। अज्ञानजन्य कर्मबन्ध से मुक्त होकर अपने केवल रूप को जान लेना कैवल्य या मोक्ष है और यही परम पुरुषार्थ है। मुक्त होने पर मुक्त पुरुष के लिए प्रकृति महत्वहीन है परन्तु अन्य संसारी पुरुष के लिए वह सत्य है क्योंकि प्रकृति का नाश नहीं होता। यही कारण है कि सांख्य में नाना पुरुष माने गए हैं। पुराणों तथा ‘सांख्यप्रवचनसूत्र’ के अनुसार पुरुषों के ऊपर एक पुरुषोत्तम भी माना गया है। यह पुरुषोत्तम या ईश्वर पुरुष को मोक्ष देता है। परन्तु प्राचीनतम उपलब्ध सांख्य ग्रन्थ ‘सांख्यकारिका’ के अनुसार ईश्वर को सांख्य में स्थान नहीं है। स्पष्टत: कपिल भी निरीश्वरवादी था, सेश्वर सांख्य (ईश्वरवादी सांख्य) का विकास बाद में हुआ।
सांख्य में पचीस तत्व माने गए हैं। पुरुष, पुरुष की संनिधियुक्त प्रकृति से महत् या बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्म भूत और मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेद्रियाँ और पाँच स्थूलभूत उत्पन्न होते हैं। इनमें से प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं है, महत् अहंकार और तन्मात्राएँ, ये सात प्रकृति से उत्पन्न हैं और दूसरे तत्वों को उत्पन्न भी करते हैं। बाकी सोलह तत्व केवल उत्पन्न हैं, किसी नए तत्व को जन्म नहीं देते। अत: ये सोलह विकार माने जाते हैं, प्रकृति अविकारी है, महत् आदि सात तत्व स्वयं विकारी हैं और विकार उत्पन्न भी करते हैं।
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योग दर्शन :-
इस दर्शन के रचयिता ऋषि पतंजलि (2000 वर्ष ई.पू.) हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिर्गामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ॐ (ओ३म्) का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।
योग दर्शनकार पतंजलि ने आत्मा और जगत् के संबंध में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन और समर्थन किया है। उन्होंने भी वही पचीस तत्त्व माने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्त्व ‘पुरुषविशेष’ या ईश्वर भी माना है।
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मीमांसा दर्शन :-
“मीमांसा सूत्र” इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है जिसके रचयिता ऋषि जैमिनि (३०० ईसापूर्व) है। इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। यदि योग दर्शन अंतःकरण शुद्धि का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्यों और अकर्तव्यों का वर्णन करता है। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है।
मीमांसा दर्शन में ज्ञानोपलब्धि के साधन-भूत छह प्रमाण माने गये हैं –१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान, ४. शब्द, ५. अर्थोपत्ति और ६. अनुपलब्धि।
इस दर्शन के अनुसार वेद अपौरुषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है। वेद में किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं है, अतः हमारा कर्तव्य वही है, जिसका प्रतिपादन वेद ने किया है। हमारा कर्तव्य वेदाज्ञा का पालन करना है। यह मीमांसा का कर्त्तव्याकर्त्तव्यविषयक निर्णय है। मीमांसा दुःखों के अत्यन्ताभाव को मोक्ष मानता है।
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वेदांत दर्शन :-
वेदान्त का अर्थ है वेदों का अन्तिम सिद्धान्त। शुरुआत में ‘वेदांत’ शब्द का इस्तेमाल उपनिषदों (Upanishads) के लिए हुआ था, क्योंकि उपनिषद् वेदों के अंत में आते हैं, लेकिन बाद में उपनिषदों के ही सिद्धांतों को आधार मानकर जिन विचारों का विकास हुआ, उनके लिए भी ‘वेदांत’ शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा| ऋषि व्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस दर्शन को उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता व संहारकर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है।
आगे चलकर वेदान्त के अनेकानेक सम्प्रदाय (अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि) बने। इसका भी कारण यह रहा कि वेदांत दर्शन का प्रमुख सवाल है- जीव और ब्रह्म में क्या संबंध है? इस सवाल के अलग-अलग उत्तर दिए गए हैं, जिनके कारण वेदांत के अलग-अलग संप्रदायों या मतों का जन्म हुआ। जैसे- आदि शंकराचार्य का मानना था जीव (आत्मा) और ब्रह्म दो अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही हैं, इसलिए उनके दर्शन को ‘अद्वैतवाद’ (Non-Dualism) कहा जाता है। जबकि माध्वाचार्य का मानना था कि आत्मा और परमात्मा अलग-अलग हैं, इसलिए इनके मत को ‘द्वैतवाद’ (Dualism) कहा जाता है। हालांकि सभी मतों का सार एक ही है- भक्ति और समर्पण।
ऋषि व्यास के जन्म की जो कथा हिन्दू धर्मानुयायी अपने पुराणों में दिखलाते हैं वह भी हास्यास्पद है, यथा –
प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पराशर ऋषि ग्रहों की दशा से मुनि जानते थे कि इस समय में एक दिव्य बालक का जन्म होगा वह [पराशर]] बोले, “देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।” सत्यवती ने कहा, “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।” तब पराशर मुनि बोले, “बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।” इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती को गर्भ दान किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।”
समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।” इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का विभाजन करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।
· 2. जैन दर्शन में द्रव्य मीमांसा
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शनों में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, वेदान्त दर्शन में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और चार्वाक दर्शन में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।
- जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।
- तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।
- भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि ‘अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:’ मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है।
- अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो ‘अस्ति’ और ‘काय’ दोनों है। ‘अस्ति’ का अर्थ ‘है’ है और ‘काय’ का अर्थ ‘बहुप्रदेशी’ है अर्थात् जो द्रव्य है’ होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे ‘अस्तिकाय’ हैं। ऐसे पाँच द्रव्य हैं-
- पुद्गल
- धर्म
- अधर्म
- आकाश
- जीव
- कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।
· 3. जैन दर्शन में तत्त्व मीमांसा
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। ‘तस्य भाव: तत्त्वम्’ अर्थात् वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।
- बहिरात्मा
- अन्तरात्मा
- परमात्मा।
मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।
· 4. जैन दर्शन में पदार्थ मीमांसा
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।
· 5. जैन दर्शन में पंचास्तिकाय मीमांसा
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।
· 6. जैन दर्शन में अनेकांत विमर्श
‘अनेकान्त’ जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता।
· 7. जैन दर्शन में स्याद्वाद विमर्श
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि ‘सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति’ इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।
- समन्तभद्र की ‘आप्त-मीमांसा’, जिसे ‘स्याद्वाद-मीमांसा’ कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर ‘अष्टशती’ (आप्त मीमांसा- विवृति) और विद्यानन्द ने उसी पर ‘अष्टसहस्त्री’ (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।
· 8. जैन दर्शन में वर्ण व्यवस्था
जैन समाज की संरचना जातीय आधार पर न होकर कर्मों/गुणों के आधार पर की गयी है। जैन दर्शन के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने जन्म मात्र से महान् नहीं बनता अपितु अपने सत्कर्मों से ही वह महान् बन पाता है।
मानव मात्र के प्रति समान दृष्टि रखकर की जानेवाली इस समाज व्यवस्था में ब्राह्मणस्व आदि जातियों का प्रमुख आधार वर्ग विशेष में जन्म न होकर अहिंसादिक सव्रतों के संस्कार ही हैं। इस मान्यता के अनुसार जिनमें अहिंसा, दया आदि सव्रतों के संस्कार विकसित हों वे ब्राह्मण,पर की रक्षा की वृत्ति वाले क्षत्रिय, कृषि, वाणिज्यादि व्यापार प्रधान वैश्य तथा सेवादि कार्यों से अपनी आजीविका करनेवाले शूद्र हैं। कोई भी शूद्र अपने व्रत आदि सद्गुणों का विकास कर बाह्मण बन सकता है। ब्राह्मणत्व का आधार व्रत संस्कार है न कि नित्य ब्राह्मण जाति। कर्मणा वर्ण व्यवस्था स्वीकार कर जैन दर्शन ने ऐसे समाज की व्यवस्था दी है जिसमें न तो किसी वर्ग विशेष को संप्रभुता प्रदान कर विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है,न ही किसी को हीन बताकर उसे अनावश्यक शोषण का शिकार बनाया गया है। मानव मात्र प्रति सम भूमिका के आधार पर की जानेवाली इस सामाजिक व्यवस्था को हम समता मूलक समाज व्यवस्था भी कह सकते हैं। अतः जैन समाज समता मूलक समाज है।
· 9. जैन दर्शन की प्राचीनता
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति और विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने लिखा है –
‘इस बात के सबूत प्राप्त होते हैं कि पहली शताब्दी ई० पू० में लोग ऋषभदेव का पूजन करते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैन धर्म वर्धमान या पार्श्वनाथ से भी पहले काफी प्रबल था। यजुर्वेद में 3 तीर्थंकरों का नाम आता है – ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि। भागवतपुराण इसका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के प्रवर्तक थे।’ (भारतीय दर्शन, भाग 1, पृष्ठ 288) ‘
वैदिक काल से पूर्व व्रात्य परंपरा के प्रमाण प्राप्त होते हैं, अतः जैन धर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता में ध्यान-मग्न योगियों की प्रतिमाएं मिली हैं जो दर्शाती हैं कि भारतीय सभ्यता में ध्यान योग बहुत ही प्राचीन है। उन दिनों जैन धर्म को ‘ व्रात्य धर्म’ ‘अर्हत धर्म’ और ‘निर्ग्रन्थ धर्म’ के नाम से जाना जाता था।
जैन साहित्य के अलावा वैदिक पुराणों में भी उल्लेख प्राप्त होता है कि हमारे देश का नाम ‘भारतवर्ष’ जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र ‘भरत’ के नाम पर ‘भारत’ पड़ा। ऋषभदेव के बाद क्रमशः 23 तीर्थंकर और हुए हैं जिनमें अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने अपने समय में जैन धर्म-दर्शन को पूरे विश्व में फैलाया।
डॉ. हर्मन जैकोबी ने अपने ग्रंथ ‘‘जैन सूत्रों की प्रस्तावना’’ में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। आज पार्श्वनाथ जब पूर्णत: ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध हो चुके हैं तब भगवान महावीर से जैनधर्म का शुभारंभ मानना मिथ्या ही है। जैकोबी लिखते हैं ‘‘इस बात से अब सब सहमत हैं कि जो वर्धमान अथवा महावीर नाम से प्रसिद्ध हुए, वे बुद्ध के समकालीन थे। बौद्ध ग्रंथों में मिलने वाले उल्लेख हमारे इस विचार को और दृढ़ करते हैं कि महावीर से पहले भी निर्ग्रन्थों का जो धर्म आज अर्हत् या जैन नाम से प्रसिद्ध हैं-उसका अस्तित्व था।’’
24 वें तीर्थंकर महावीर विशाल व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होंने जीवो को आध्यात्मिक उन्नति, जीव मात्र का कल्याण, शांति और धर्मनिरपेक्षता की तार्किक शिक्षा दी। तीर्थंकर महावीर की शिक्षाएं आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और प्रभावशाली हैं जितनी 2600 साल पहले थी| उन्होंने मुख्य रूप से अहिंसा, अनेकांतवाद और अपरिग्रह का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उन्होंने हमेशा अपनी शिक्षा में स्वयं सत्य की खोज पर बल दिया। उन्होंने सिखाया कि हमें सत्य के सभी पहलुओं को देखना चाहिए।
· 10. देश विदेश में जैनदर्शन का अध्ययन
भारत में अनेक विश्वविद्यालयों में जैसे संपूर्णानन्दविश्वविद्यालय, मद्रासविश्वविद्यालय, मैसूरविश्वविद्यालय, राजस्थानविश्वविद्यालय, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, जयपुरपरिसर, भोपालपरिसर, मोहनलालसुखाडियाविश्वविद्यालय, जैनविश्वभारतीविश्वविद्यालय में जैनदर्शन का अध्ययन होता है|
विदेश में भी जैसे लन्दनविश्वविद्यालय, मास्कोविश्वविद्यालय, जर्मनीविश्वविद्यालय, अमरीकाविश्वविद्यालय, यूरोपविश्वविद्यालय जैनदर्शन का अध्ययन होता है|
· 11. जैन दर्शन एवं जैन धर्म संबंधी भ्रांतियाँ
- जैन धर्म के इतिहास के विषय में अनेक भ्रांतियां हैं। भगवान महावीर को जैन धर्म का स्थापक मानकर कहा गया है कि वह और बौद्धधर्म समकालीन हैं। यह एक बड़ी भूल है । ऐतिहासिक अभिलेखों और पुरातात्विक अवशेषों से पता चलता है कि जैन धर्म बहुत प्राचीन है। उसका प्रवर्तन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ या ऋषभदेव ने किया था।
- कुछ लोगों की मान्यता है कि भारतीय दर्शन दो वर्गों में विभाजित है- आस्तिक और नास्तिक। वैदिक दर्शन आस्तिक और जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों को नास्तिक माना जाता है। यह वर्गीकरण मात्र कल्पना से, पक्षपात से अथवा कहें वैदिक अनुयायियों की बहुलता से किया गया है| क्योंकि जो वेदों को माने वह आस्तिक न माने वह नास्तिक| ऐसे तो कोई भी किसी को आस्तिक और किसी को नास्तिक ठहरा सकता है । वस्तुतः आस्तिक और नास्तिक होना वेदों को मानने या न मानने पर निर्भर नहीं है, अपितु परलोक को मानने और न मानने के आधार पर ही आस्तिक और नास्तिक दर्शनों का वर्गीकरण होता है। इस दृष्टि से जैन और बौद्ध दोनों दर्शन सर्वथा आस्तिक दर्शन हैं, क्योंकि दोनों मोक्ष और परलोक में आस्था रखते हैं। हाँ, चार्वाक अवश्य ही नास्तिक दर्शन है|
वेद आधारित आस्तिकता और नास्तिकता की उक्त मान्यता को एक परंपरागत प्रेम निरूपित करते हुए प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य कृत जैन दर्शन पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है-“भारतीय दर्शन के विषय में एक परंपरागत मिथ्या भ्रम का उल्लेख करना भी हमें आवश्यक प्रतीत होता है। कुछ काल से लोग ऐसा समझने लगे हैं कि भारतीय दर्शन की आस्तिक और नास्तिक नाम से दो शाखाएं हैं। तथाकथित वैदिक दर्शनों को आस्तिक दर्शन और जैन तथा बौद्ध जैसे दर्शनों को ‘नास्तिक दर्शन’ कहा जाता है। वस्तुतः यह वर्गीकरण निराधार ही नहीं नितांत मिथ्या भी है। आस्तिक और नास्तिक अस्ति नास्ति दिष्टं मति’ (पा.44301 इस पाणिनि सूत्र के अनुसार बने हैं। मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक (जिसको हम दूसरे शब्दों में इंद्रियातीत तथ्य भी कह सकते हैं) की सत्ता को माननेवाला आस्तिक और न माननेवाला नास्तिक कहलाता है। स्पष्टतः इस अर्थ में जैन और बौद्ध दर्शनों को नास्तिक नहीं कहा जा सकता।
- कुछ लोग जैनधर्म को वैदिक धर्म की शाखा मानते हैं किन्तु जैनधर्म वैदिक धर्म की शाखा नहीं है, क्योंकि वैदिक मत में वेद सबसे प्राचीन माने जाते हैं। विद्वान वेदों को ५००० वर्ष प्राचीन मानते हैं। वेदों में ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि श्रमणों का उल्लेख किया मिलता है। वेदों के पश्चात् उपनिषद, आरण्यक, पुराण आदि में भी इनका वर्णन आता है। यदि इन ग्रंथों की रचना से पूर्व जैनधर्म न होता, भगवान ऋषभ न होते, तो उनका उल्लेख इन ग्रंथों में कैसे होता ? इससे ज्ञात होता है कि जैन धर्म वैदिक धर्म से अधिक प्राचीन है।
- कुछ जैन व्यक्ति ही जैन दर्शन की प्राचीनता का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए वेदों का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, लेकिन ध्यान रखें| प्रमाण भी प्रमाणित वस्तु का होना चाहिए| अभी स्वयं वैदिक मतानुयायियों में ही वेदों की उत्पत्ति के बारे में कई मान्यताएं हैं:-
- कुछ लोगों का मानना है कि ऋषियों ने गहरी तपस्या करके ईश्वर की आवाज़ सुनी, जिसे वेद कहा जाता है. ऋषियों ने अपनी तपस्या और ज्ञान को अपने शिष्यों को दिया।
- कुछ लोगों का मानना है कि ब्रह्मा ने वेदों की रचना की और फिर ब्रह्मा से वेदों का ज्ञान सप्त ऋषियों को मिला।
- एक ग्रंथ के मुताबिक, ब्रह्मा के चारों मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई।
- कुछ लोगों का मानना है कि वेदों को विराटपुरुष या कारणब्रह्म से श्रुतिपरंपरा के ज़रिए ब्रह्मा ने प्राप्त किया।
- कुछ लोगों का मानना है कि वेदों की उत्पत्ति वैदिक काल में हुई, जब देवताओं को ‘आहुति’ दी जाती थी और बदले में ‘फलस्तुति’ या प्रसाद का फल मांगा जाता था।
इस प्रकार सिद्ध होता है जैन दर्शन सभी दर्शनों से प्राचीन एवं पूर्वापर से अविरोधी है| जैन दर्शन और जैन धर्म ही सनातन दर्शन एवं धर्म है| समय-समय पर उत्पन्न हुए विविध दर्शन और धर्म जैन दर्शन को ठीक से न समझ पाने एवं व्यक्तिगत द्वेष के फलस्वरूप उत्पन्न हुए हैं इनमें भी प्रधान कारण यह हुंडावसर्पिणी काल हैं, जिसमें नाना मिथ्या मतों की उत्पत्ति होती है एवं उनके व्यामोह में पड़कर जीव वास्तविक जिनधर्म से दूर हो जाते हैं| मेरा यह लेखन आपके लिए नाना कंकड़ों रूपी मिथ्या दर्शनों के मध्य पारसमणि के समान जिनदर्शन की प्राप्ति में कारण बने, इसी मंगल भावना के साथ …….. जय आदि प्रभु आदिनाथ भगवान की जय हो…….!!