जैन धर्म में जीव के उत्थान के २ मार्ग बताये गये हैं, श्रमण (मुनि) मार्ग एवं श्रावक मार्ग|
श्रमण मार्ग का निर्दोष पालन हमारे मुनि भगवंत, प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ स्वामी के समय से लेकर आज तक कर रहे हैं और इस पंचम काल के अंत-अंत तक करते रहेंगे|
श्रावक मार्ग का पालन करना प्रभु के द्वारा प्रत्येक गृहस्थ को बताया गया हैं, जिसके अंतर्गत ६ आवश्यक क्रियाओं को करना आवश्यक है, तभी एक गृहस्थ को श्रावक कहा जा सकता है अन्यथा वह मात्र गृहस्थ ही कहलाता है, श्रावक नहीं|
”देव-पूजा, गुरु-पास्ति:, स्वाध्याय: संयमस्तप:। दानं चेति गृहस्थानां, षट्-कर्माणि दिने दिने।।”
देव-पूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान गृहस्थों के प्रतिदिन के छ: कार्य हैं अर्थात् गृहस्थों को इन छ: कार्यों को प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।
इसमें चूँकि देव पूजन की विधि अभिषेक पूर्वक हुआ करती है इसलिए हम यहाँ पर अभिषेक की विधि एवं उसके विषय में वर्तमान में फैलती हुयी विसंगतियों के विषय में जानने का प्रयास करेंगे|

जिन-प्रतिमा अभिषेक व पूजन की पात्र होती हैं, क्योंकि जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन, अभिषेक, पूजन आदि से उन के गुणों का स्मरण हो जाता है। 

जिनबिम्ब अभिषेक:

यह पाँचों कल्याणक-सम्पन्न जिन-प्रतिमा की पुरुषों एवं स्त्रियों द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली न्हवन की क्रिया है। इसमें प्रतिमाजी के आपाद-मस्तक सभी अंगों का प्रासुक जल से न्हवन किया जाता है।

{पंथ परम्पराओं के चलते अब कई स्थानों पर स्त्रियों को अशुद्ध कहकर उनके द्वारा अभिषेक करने का निषेध किया जाने लगा है, किन्तु यह जिनागम का अवर्णवाद ही है, क्योंकि स्त्रियाँ हर समय अशुद्ध नहीं होती, जिन विशेष दिनों में वे अशुद्धि में होती हैं, उन दिनों में वे मंदिर में प्रवेश, जिनवाणी का स्पर्श, गुरुजनों को आहार देना आदि कार्य भी नहीं करती, और जिस समय वे यह सब कार्य करती हैं उस समय में एकमात्र अभिषेक के लिये उन्हें अशुद्ध कहना जिनागम का अवर्णवाद है|}

चरणाभिषेक:

किन्हीं विशाल प्रतिमाओं के अभिषेक शीश की ऊंचाई तक मचान आदि के बिना संभव नहीं होते, उन के चरणों का न्हवन चरणाभिषेक कहलाता है|

मस्तकाभिषेक:

ऊपरोक्त प्रतिमाओं का मस्तकाभिषेक पर्वादि विशेष अवसरों पर किया जाता है; तथा प्रतिमाजी, मंदिरजी व क्षेत्र के अनुरक्षण व विकास के भावों से प्रायः बारह वर्षों के अंतराल से महामस्तकाभिषेक महोत्सव के विशाल आयोजन होते हैं|

पंचामृत-अभिषेक:

प्राचीन तीर्थ भूमियों पर दूध, दही, घी, इक्षुरस आदि से प्रतिमा के न्हवन की परंपरा देखने में आती है, जो शास्त्रोक्त है|

{ * कई बार जिन प्रतिमाओं पर पंचामृत अभिषेक होता है और यदि किसी स्थान पर जल आदि रह जाता है तो उसमें चींटी आदि जीव भी हो जाते हैं, जिसके चलते पंचामृत अभिषेक का निषेद किया जाता है, पर ध्यान रखें इसमें कारण पंचामृत अभिषेक नहीं हैं बल्कि आपका व्यक्तिगत प्रमाद है कि आपने ठीक से परिमार्जन नहीं किया| व्यक्तिगत प्रमाद के चलते जिनागम में आयी हुई विधि का निषेद नहीं करना चाहिए|
* कई लोग पंचामृत अभिषेक की द्रव्यों को अशुद्ध मानकर उनका निषेध करते हैं, कहते हैं कि ‘आज-कल दूध आदि शुद्ध नहीं आते|’ यदि ऐसा है तो फिर आपको वह दूध आदि मुनिराजों के आहार में भी नहीं देना चाहिए और यदि आप इतने शुद्ध दूध की व्यवस्था मुनिराज के आहारों के लिए कर सकते हो तो थोड़े से दूध आदि की व्यवस्था जिनाभिषेक के लिये भी की जा सकती है|
* कई लोग पंचामृत अभिषेक में विशेष आरंभ मानते हैं तो उन्हें विचार करना चाहिए कि जिनागम में जल की एक बूँद में असंख्यात जीव बताये हैं किन्तु दूध दुहने के ४८ मिनट के अंदर उबाल लिया जाये तो उसमें २४ घंटे तकजीवोत्पत्ति नहीं होती है, इसी प्रकार फलों के रसों का स्वाद जब तक नहीं बिगड़ा है उनमें जीवोत्पत्ति नहीं होती है – ऐसा आगम वाक्य है|
इसलिए यदि आपके पास समय नहीं हैं तो आप जल से भी अभिषेक कर सकते हैं किन्तु पंचामृत का निषेद कर जिनागम में आयी हुई क्रियाविधि का निषेद न करें| }

प्रक्षालन:

अचल प्रतिमाओं पर यदि प्रतिमा जी से पूर्ण जल निकलने की यदि व्यवस्था नहीं हो अथवा प्रतिमाओं की संख्या अधिक हो और समय की अल्पता हो तो मात्र कुछ प्रतिमाओं का पूर्णाभिषेक व शेष का प्रक्षालन होता है|

{किन्तु आजकल कुछ लोग प्रतिमाओं पर अभिषेक का निषेद करने लगें हैं और कहने लगे है “वह तो अभिषेक मात्र प्रतिमाओं पर से धूल साफ करने के लिए होता है इसलिए इतना आरंभ नहीं करना चाहिए| ” पर हम उन लोगों से कहना चाहेंगे की आप अपने चिंतन को अपने तक ही सीमित रखें किंतु हमारे प्राचीन आचार्य भगवंतों ने जो हमारे कल्याण के लिए अभिषेक पाठ आदि लिखे हैं उनका मजाक न बनाये| }

शांतिधारा:

यह अत्यंत अनूठा पवित्र मंत्राभिषेक है जो स्वयं व पर के पापों के प्रक्षालन कर आत्म-कल्याण व समस्त चराचर की शान्ति के भाव से जिन-प्रतिमाजी पर अखंड जल धारा करने की क्रिया है|

{इतना अवश्य ध्यान रखे आज शांतिधारा को लेकर बहुत से व्यक्तिगत चिन्तनों को परोसा जा रहा है, जैसे- शांतिधारा भगवान के चरणों में ही करना चाहिए| शांतिधारा के बाद पुनः अभिषेक नहीं किया जा सकता आदि|
किन्तु ये एक भी चिंतन जिनागम में नहीं आये हैं, शांतिधारा एक वृहद अभिषेक ही है जो स्व कल्याण के साथ-साथ पर कल्याण की भावना से किया जाता है| किन्तु व्यर्थ के चिन्तन परोस कर दूसरों के धर्म-ध्यान में अंतराय डालने का घोर पाप नहीं करना चाहिए|}

जन्माभिषेक:

यह नित्य जिनाभिषेक से भिन्न क्रिया है जो तीर्थंकर के ‘जन्म कल्याणक’ अवसर पर इन्द्रादि द्वारा सम्पन्न की जाती है। जिस मूर्त्ति के पाँचों कल्याणक संस्कार सम्पन्न हो चुके हैं अर्थात् पूर्ण वीतरागी बन गई है, वही जिनेन्द्र-प्रतिमा कहलाती है| उस का पुनः जन्माभिषेक नहीं होता| जन्माभिषेक तो सराग अवस्था की क्रिया है। अत: जिनबिम्ब अभिषेक जन्माभिषेक नहीं है।

वेश-भूषा

जिनेन्द्र प्रभु की अभिषेक-पूजन समस्त आरम्भ-परिग्रहों का त्याग कर, सौधर्म-इंद्र के समान अत्यंत उत्तम भावों से की जाती है, अतः इन्द्र के समान केशरिया अथवा श्वेत, अहिंसात्मक (बिना सिले) धोती-दुपट्टे पहिन कर मुकुट, माला व तिलक-अलंकरणों आदि से सुशोभित होने पर सहज ही वैसे भाव बन जाते हैं| अभिषेक-कर्ता स्नान करके शुद्ध धोती-दुपट्टे पहिनें व सिर ढकें। पेंट, शर्ट, पाजामा आदि तथा दूसरों के उतरे हुए पूजा-वस्त्रों से अथवा अकेली धोती पहिने अभिषेक नहीं करना चाहिए।

अभिषेक-क्रिया-विधि

प्रतिमाजी के समक्ष अभिषेक के संकल्प-रूप अर्घ्य चढ़ा कर, कायोत्सर्ग कर, विनयपूर्वक एक हाथ प्रतिमाजी के नीचे और दूसरा हाथ उन की पीठ पर लगाकर उठावें, ढंके सिर पर प्रतिमाजी को रख, अभिषेक-स्थल की तीन प्रदक्षिणा दे, श्रीकार लिखे थाल पर स्थापित सिंहासन पर पूर्व-मुखी अथवा उत्तर-मुखी कर विराजित करें। यदि प्रतिमाजी का मुख पूर्व की ओर है तो प्रमुख अभिषेक-कर्ता को उत्तर की ओर मुख कर खड़े होना चाहिए, और यदि उत्तर की ओर मुख है तो अभिषेक-कर्ता का मुख पूर्व दिशा की ओर रहना चाहिए। सिंहासन-तल की ऊंचाई पूजक की नाभि से नीचे नहीं, अपितु ऊपर होना चाहिए।

जीवाणि किये गए शुद्ध पानी को प्रासुक करके ही अभिषेक करना चाहिए| प्रतिमाजी से स्पर्श होते ही यह पवित्र गंधोदक बन जाता है जिसे न्हवन-जल भी कहते हैं| अभिषेक उपरांत सावधानी से स्वच्छ सूखे छन्ने से प्रतिमाजी के समस्त अंगों से से समस्त जल कण पौंछें, व दूसरा अर्घ्य चढ़ा कर वेदी में मूल सिंहासन पर स्वस्तिक बना कर पुनः विराजमान करें और तीसरा अर्घ्य भी चढ़ावें| फिर छन्नों को खंगाल कर सूखने डाल दें| फिर विनय पूर्वक इस परम सौभाग्य प्रदायक गंधोदक की कुछ बूँदें बांयी हथेली पर ले, दांये हाथ की मध्यमा व अनामिका उँगलियों से ललाट पर व ऊपरी नेत्र-पटों पर धारण करें|

अन्य दर्शनार्थियों के लिए एक कटोरे में कुछ गंधोदक रख शुद्ध जल युक्त थाली में रखें व शेष अतिरिक्त गंधोदक उत्तम-पुष्पों के पौधों के गमलों में विसर्जित कर दें|

वर्जनाएं:

1. अभिषेक-पूजन पूर्ण होने तक नाक, कान, मुँह में उँगली न डालें एवं नाभि से नीचे का भाग स्पर्श न करें। खून, पीव आदि निकलने पर, सर्दी- जुकाम, बुखार, चर्मरोग, सफेद दाग, दाद, खुजली एवं चोट-ग्रस्त होने पर अभिषेकादि न करें।

2. पूजन की पुस्तकों में पूजा के स्थापना-मंत्र, द्रव्याष्टक-मंत्र एवं पंच कल्याणकों के मंत्र संक्षेप में दिये होते हैं। कृपया उन मंत्रों को पूरा एवं शुद्ध पढ़ना चाहिए। ‘इत्याशीर्वाद’ के बाद पुष्पांजलि क्षेपण अवश्य करें, यह प्रभु के आशीर्वाद की महान क्रिया है ।

3. जहाँ नौ बार णमोकार मंत्र जपना है, वहाँ प्रत्येक णमोकार मंत्र तीन श्वास में पढ़ना चाहिए।

4. पूजन चाहे जितनी की जाएं, पर जल्दी-जल्दी नहीं गानी चाहिए। जो पूजन, विनती, पाठ, स्तोत्र आदि पढ़ें जावें उनके भावों को जीवन में उतारने पर मनुष्य पर्याय की सार्थकता है |

5. पूजन क्रिया समाप्त होने पर पूजन पुस्तकों के अन्दर फंसे चांवल आदि के कणों को अच्छी तरह झाड़ कर ही पुस्तकों को यथा स्थान सहेज कर रखना चाहिए|