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अनुशासित साधक का अनुशासित संघ

“जीवन है पानी की बूंद” जैसे विश्वविख्यात महाकाव्य के मूल शब्द शिल्पी, “विमर्श लिपी” एवं “विमर्श एम्बिसा” (मौलिक भाषा) का सृजन कर समस्त भाषा मनीषियों को चकित करने वाले, योगसार प्राभूत नामक सहस्राधिक वर्ष प्राचीन संस्कृत ग्रंथ पर सहस्राधिक पृष्ठीय प्राकृत टीका लिखनेवाले प्रथमाचार्य सम्प्रति पंथवाद, जातिवाद और संत बाद के नाम पर विखण्डित होने वाली जैन समाज में “जिनागम पंथ” के माध्यम से सामाजिक एकता का शंखनाद करनेवाले अध्यात्म, सिद्धान्त, न्याय, दर्शन एवं मानव जीवन के नैतिक अवमूल्यों पर अपनी तपःपूत लेखनी में पद्म एवं गद्य विधा में अर्थ शताधिक कृतियों के प्रणेता, आदर्श महाकवि, अहार जी के छोटे बाबा, परम वंदनीय भावलिंगी संत राष्ट्रयोगी श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्शसागर जी महामुनिराज एक महत् अनुशासित गणी हैं। आपके द्वारा दीर्घ अनुभव की छैनी से तराशा गया आपका हर शिष्य अनुशासन की साक्षात् प्रतिमा सा प्रतीत होता है। यही कारण है कि आपके आबाल-वृद्ध चतुर्विध संघ का अनुशासन अन्य संघों के लिये भी समादृत रूपेण अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है। आइये देखें पूज्य गुरुदेव के अनुशासित संघ की एक अनुपम झलक-

  • वृद्ध एवं युवा साधुओं का परस्पर वात्सल्यमयी सामंजस्य गुरुसंघ की अपूर्व विशेषता है।​
  • संघ में किसी भी प्रकार के लौकिक पर्व आदि नहीं मनायें जाते।
  • पूज्य गुरुदेव के जिनागमानुकूल अनर्थ दण्ड भीरुता एवं पालन की सुखद प्रेरणा से संघस्थ साधक मात्र 200 पंख की ही लघु पिच्छिका को अपने कर कमलों में धारण करते हैं।
  • नाम पंथ प्रवर्तक पूज्य गुरुदेव के कर कमलों से जिनागम पंथ में दीक्षित होनेवाले समस्थ साधक तेरह पंथ, बीस पंथ आदि के विवादों से दूर सच्चे जिनागम पंथ उद्घोष करते हैं।
  • जिनानुसार संघ के साधक-चॅदोवे के नीचे ही आहार ग्रहण करते हैं।
  • संघ में किसी भी प्रकार की गाड़ी आदि वाहन नहीं रखें जाते हैं |
  • संघस्थ साधक श्रावकों से साधनाकूल कोई भी सामग्री बिना गुरु आशा के ग्रहण नहीं करते।
  • किसी भी प्रकार के तीर्थ निर्माण या अन्य प्रोजेक्टों के लिये संघ की ओर से कोई भी चंदा एकत्रित नहीं किया जा सकता।
  • संघस्थ साधक किसी भी प्रकार के भौतिक साधन जैसे
  • ए.सी., कुलर, हीटर आदि का उपयोग नहीं करते।
  • संघस्थ आर्यिका संघ एवं मुनिसंघ आपस में किसी भी प्रकार की वार्ता या लेन-देन रूप व्यवहार नहीं करते जो भी लेना-देना होता है वो पूज्य गुरुदेव के कर कमलों के माध्यम से ही होता है।
  • संघस्थ मुनिसंघ एवं आर्यिका संघ का पृथक-पृथक यमतिकाओं में ही निवास रहता है। सामूहिक क्रियायें स्वाध्याय, प्रतिक्रमण आदि के अलावा आर्यिका संघ की कोई भी चर्या श्रमण वसतिका में नहीं होती।
  • शाम की आचार्य वंदना के उपरान्त श्रमण वसतिका में स्त्री वर्ग का एवं आर्यिका वसतिका में पुरुष वर्ग का प्रवेश निषेधित रहता है।
  • आर्यिका वसतिका में पुरुष वर्ग एवं श्रमण वसतिका में स्त्री वर्ग का दर्शन लाभ के अतिरिक्त अप्रयोजनीय आवागमन में वार्तालाप नहीं होता।
  • संघस्थ साधुजन मोबाइल, लेपटॉप, टी.वी. आदि भौतिक साधनों का प्रयोग नहीं करते हैं।
  • संघ में आहार चर्चा हेतु या आहर चर्या के उपलक्ष्य में किसी भी प्रकार की दान राशि आदि नहीं ली जाती।
  • संघस्थ साधु, श्रावकों के हाथ आदि में किसी भी तरह के ब्रासलेट, फलावे आदि नहीं बाँधते हैं।
  • संघ में तंत्र मंत्र यंत्र, नाथीज, झाड़ा फूकी आदि क्रियायें नहीं की जाती, संघ में सिर्फ सम्यक्त्व वर्धिनी क्रियायें और उपदेश ही शोभित होता है।
  • संघ की स्वस्थ व्यवस्था है कि आहार चर्चा के अलावा अन्य किसी भी प्रयोजन से साधुजन गृहस्थों के गृह आदि में प्रवेश नहीं करते हैं।
  • संघस्थ साधुजन गृहस्थ अवस्था के परिजनों से भी गुरु आज्ञा के बिना बार्तालाप नहीं करते।
  • संघ के साधक कोई भी चर्या स्वतंत्र रूप से नहीं करते, सभी चर्या, क्रिया पूज्य गुरुदेव द्वारा निर्दिष्ट समय पर ही सम्पन्न करते हैं।
  • साधक अपने अहोरात्रिक कृतिकर्म एवं मूलगुणों का पालन जिनागम पंथ के अनुसार सम्यक रीत्या करते हैं। किसी भी आयोजन की व्यस्तता या अस्वस्थता में भी साधक अपने आवश्यकों का समय पे पालन करते हैं।
  • संघस्य साधुजन लौकिक जनों के गृह प्रवेश, प्रतिष्ठान, शुभारंभ आदि गृहस्थिक कार्यों में भाग नहीं लेते।
  • संघ में सिर्फ प्राचीन आचार्य प्रणीत मूल ग्रंथों का ही स्वाध्याय होता है।
  • संघस्थ सभी साधुजन गुरु आज्ञानुसार क्रमशः चलना, क्रमशः बैठना आदि सभी कार्य कनिष्ट साधु, ज्येष्ठ साधुओं की विनयपूर्वक करते हैं।
  • विहार करते समय साधक ईर्यासमिति को पालते हये, मौन पूर्वक अथवा गुरुमंत्र का जाप करते हुये चलते हैं।
  • संघस्थ साधुवृन्द कभी एकान्त में स्त्रीवर्ग से बार्तालाप आदि नहीं करते।
  • संघ के सभी साधु वसतिका में एक साथ ही रुकते हैं, पृथक-पृथक बैठने उठने रूप स्वतंत्रत क्रियायें संघ में नहीं होती।
  • गुरु मुख से ही शास्त्र का मंगलाचरण करवाके शास्त्र स्वाध्याय करने की प्राचीन विधि का आज भी संघ में पालन होता है। साधुजन गुरु आज्ञा के बिना स्वतंत्र रूप से किसी पुस्तक, शास्त्र आदि का अध्ययन नहीं करते है।
  • जिनागम पंथ प्रवर्तक भावलिंगी संत पूज्य गुरुदेव श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्शसागर जी मुनिराज के श्रीमुख से समीचीन जिनागम पंथ को जाननेवाले संघस्थ साधक तेरहपंथ, बीस पंथ आदि के विवादों से दूर अनादि अनिधन जिनागम पंथ का ही उद्घोष करते हैं।
  • संघ की पहिचान है कि सभी साधुजन अपने प्रवचन की शुरुआत पूज्य गुरुदेव के विश्व विख्यात “जीवन है पानी की बूंद” महाकाव्य के छंदों से ही करते हैं।
  • समाज के चुनाव एवं विवादों से दूर ज्ञान-ध्यान और तप रूप आचरण करनेवाले साधुजन, पूज्य गुरुदेव की पावन निश्रा में निजात्म चुनाव एवं उसी से संवाद का पुरुषार्थ करते हैं।
  • पूज्य गुरुदेव द्वारा संघ में सतत् जिनागम की कक्षायें लगाये जाने से सभी साधु ज्ञान ध्यान रूप चर्या में लीन रहते हैं।
  • संघस्थ साधुवर्ग धर्म चर्चा के अलावा अन्य राग द्वेषवर्धक लौकिक चर्चाओं से दूर रहते हैं।
  • संघस्थ साधक कलश आदि स्थापित कराने के लिये गृहस्थों के घर नहीं जाते।
  • प्रासुक भूमि पर ही संघ उत्सर्ग समिति को पालता है।
  • संघस्थ साधुजन कोई भी साधनानुकूल वस्तु पूज्य गुरुदेव के कर कमलों से ही प्राप्त करते हैं। गृहस्थों के हाथों से नहीं।
  • संघ के युवा साधु वृद्ध साधुओं की वैयावृत्ति, सेवा कर उनकी साधना में सहयोगी बनते हैं, और वृद्ध साधु, युवा साधकों को अपने अनुभव एवं स्नेह भाव से सिंचित करते हैं।
  • संघस्थ साधक या त्यागीवती पूजा पद्धतियों में किसी भी प्रकार का हटाग्रह नहीं करते, जहाँ जैसी परम्परायें प्रचलित हैं वहाँ उस रूप ही अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं।
  • संघस्य साधुजन किसी भी प्रकार के साथ देखना कुण्डली देखना रोग आदि की औषधि रूप वैद्यक एवं ज्योतिष कार्यों से दूर रहते हैं।
  •  संघस्थ माधुजन रक्षाबंधन पर्व पर पूज्य गुरुदेव की आज्ञानुसार अपनी पिच्छियों में राखियाँ नहीं बंधवाते हैं। संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहिनें, संघस्थ ब्रह्मचारी भैया आदि को राखियाँ आदि नहीं बाँधती हैं। अपितु उस दिन प्रातः में में पूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से जिनागम पंथ के वीतरागता वर्धक उपदेश सुनकर अपनी साधना में दृढ़ता का अनुभव कर खुश होते हैं।
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