श्री १००८ वीर भगवान के पश्चात् तीन तो अनुबद्ध केवली हुए हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त पाँच केवली और हुए हैं अर्थात् वीर प्रभु के पश्चात् आठ केवलज्ञानी हुए हैं, जिनमें अन्तिम केवलज्ञानी श्रीधर थे।
कहा भी है – वीरावनन्तरं किल केवलिनोऽष्ट जाता न तु त्रयः । (षट् प्रभात संग्रह पृ० ३)
अर्थ- वीर भगवान के पश्चात् आाठ केवलशानी हुए, तीन नहीं ।
जादो सिद्धो वीरो, तद्दिवसे गोदमो परमणाणी ।
जादो तस्सिं सिद्धे, सुधम्मसामी तदो आदो॥ १४७६ ॥
तम्मि कदकम्मणासे वंदू सामित्ति केवली जादो ।
तत्थ वि सिद्धिपवणे केवलिणो णत्थी अनुबद्धा ।।१४७७॥
कुंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो ॥१४१९॥ (तिलोयपण्णत्ती अ. ४)
अर्थ- जिस दिन भगवान महावीर सिद्ध हुए उसी दिन श्री गौतम गणधर केवलशान को प्राप्त हुए। पुनः श्री गौतम के सिद्ध होने पर श्री सुधर्म स्वामी केवली हुए। श्री सुधर्म स्वामी के कर्म-नाश करने अर्थात् मुक्त होने पर श्री जम्बूस्वामी केवली हुए। श्री जम्बूस्वामी के सिद्धि को प्राप्त होने पर फिर कोई अनुबद्ध केवली नहीं रहे। केवलज्ञानियों में अन्तिम श्री १००८ श्रीधर कुण्डलगिरि से सिद्ध हुए ।
तीर्थंकर के गर्भ में आने से ६ महीने पूर्व जो रत्नों की वर्षा होती है, वह गर्भकल्याणक का ही एक अङ्ग है। गर्भकल्याणक तीर्थंकर के पुण्य के उदय से होता है।
कहा भी है- ‘महाभाग के स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतार लेने के ६ माह पूर्व से ही प्रतिदिन तीर्थंकर के पुण्य से कुबेर ने साढ़े तीन करोड़ रत्नों की दृष्टि की।’ महापुराण पर्व ४८, श्लोक १८-२० ।
रत्न मिलते थे।
कहा भी है- ‘यह धन-वर्षा प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ प्रमाण होती थी और छोटे-बड़े किसी भी याचक के लिये उसे लेने की रोक-टोक न की जाती थी। सब लोग खुशी से उठा ले जाते थे ।’ हरिवंशपुराण पर्व ३७, श्लोक १-३ ।
अथवा इन्द्र आदि अपनी भक्ति से गर्भ आदि कल्याणक मनाते हैं, जिस प्रकार जिनप्रतिमा की भक्ति करते हैं। इसमें तीर्थंकर या प्रतिमा का कर्मोदय कारण नहीं है।
सिद्ध परमेष्ठी शरीर से रहित होते हैं इस कारण वे हमें अपने नेत्रों से दिखायी नहीं देते, क्योंकि हम अपने नेत्रों से एकमात्र पुद्गल द्रव्य को ही देख सकते हैं किन्तु सिद्ध परमेष्ठी की छवि जैसी जिनेन्द्र देव ने बतायी है उसका वर्णन ” द्रव्य संग्रह जी ” ग्रंथ में आया हुआ है- णिक्कम्मा अट्ठगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा| लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवयेहिं संजुत्ता ॥14॥ अन्वयार्थ : [णिक्कम्मा ] आठकर्मों से रहित [अट्ठगुणा ] आठगुणों से सहित [चरमदेहदो किं चूणा ] अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रमाण वाले [लोयग्गठिदा ] ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में स्थित [णिच्चा ] विनाश रहित और [उप्पादवएहिं संजुत्ता ] उत्पाद व व्यय से संयुक्त हैं वे [सिद्धा] सिद्ध भगवान् हैं । अर्थात सिद्ध परमेष्ठी जिस अंतिम शरीर को छोड़कर सिद्ध हुये हैं उनकी आत्मा उसी शरीर के आकार से कुछ कम पुरुषाकार रहा करती है, क्योंकि उनका अंतिम शरीर पुरुष का ही होता है| कुछ कम रहने का कारण यह है कि हमारे शरीर में नासिका, कान आदि के छिद्र होते हैं जिसमें आत्मा के प्रदेश नहीं होते किंतु जब जीव को निर्वाण प्राप्त होता है तो आत्मा के प्रदेशों में किसी प्रकार का रिक्त स्थान शेष नहीं रहता, इसलिए किंचित न्यून आकार कहा गया है| उनकी सिद्ध अवस्था का कभी भी विनाश नहीं होता इसलिए वे विनाश रहित हैं| प्रत्येक द्रव में प्रति समय नवीन-नवीन पर्याय उत्पन्न होती रहती हैं एवं पुरानी पर्याय विलय होती रहती है, इसलिये उन्हें उत्पाद-व्यय से संयुक्त कहा है| ( हमें बोध कराने के लिये उन्हें श्वेत पुंज जैसा दिखाया जाता है लेकिन सिद्ध परमेष्ठी अमूर्तिक होते हैं| )
नहीं, अप्रतिष्ठित प्रतिमा घर में रखना जिनागम में अशुभ माना गया है और इन चीनी मिट्टी अथवा प्लास्टिक की मूर्तियों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठिा होने का कोई विधान जिनागम में प्राप्त नहीं होता , इसलिए यदि मूर्ति रखना ही हो, एक सुन्दर भव्य गृह चैत्यालय बनवाकर उसमें प्रतिष्ठित मूर्ति को ही विराजमान करना चाहिए| लेकिन ये चीनी मिट्टी अथवा प्लास्टिक की मूर्तियाँ घरों में कभी नहीं रखना चाहिए |