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सधर्मी वात्सल्य का अनुपम उदाहरण

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साधु-संतों के हृदय जितने विशाल होते हैं उतने भक्तों के भी बनें, धर्म यही सिखलाता है, किन्तु कभी-कभी मन की ऊँचाईयों को समूह की कुटिलता कुचल देती है। प्रसंग गुरुदेव की मुनि अवस्था का है, पर शिक्षाप्रद है-
हुआ यह कि बालाचार्य बाहुबलीसागर जी मोराजी में थे, उन्हें कुछ लोग मना-मनाकर अंकुर कॉलोनी लाए और विद्याभवन में विराजमान कराकर चुपचाप चले गए। अध्यक्ष राजकुमार को ज्ञात हुआ तो वे छोड़कर जानेवालों के प्रति कुछ समय तक झुंझलाते रहे, उन्होंने बतलाया कि बाहुबलीसागर जी के चातुर्मास स्थापना की पत्रिका प्रकाशित होकर मंदिरों में पहुँच चुकी है, उसमें स्पष्ट तौर से लिखा है कि स्थापना मोराजी दिगम्बर जैन मंदिर में होगी। फिर उन्हें यहाँ क्यों छोड़ा गया ? भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें चलती रहीं। कार्यकर्ताओं ने मुनिवर विमर्शसागर जी से पूछा तो उन्होंने भी स्पष्ट किया कि उनके विषय में वार्ता करने मेरे पास कोई नहीं आया।

मुनिवर आहार कर ही चुके थे अतः समाचारी के लिए वात्सल्यपूर्वक विद्याभवन गए और बालाचार्य बाहुबलीसागर जी के दर्शन कर, नमोस्तु-प्रतिनमोस्तु की आगम प्रणीत विधिपूर्ण की। कुछ देर समीप बैठकर वार्ता भी की। तभी स्थानीय लोग आए और कहने लगे- ‘हम लोग आचार्य विरागसागरजी से मुनि विमर्शसागर संघ के चातुर्मास की अनुमति लेकर आए हैं। समाज मुनिसंघ का ही चातुर्मास चाहती है।’

वे आगे कुछ कह पाते, इसके पूर्व ही युवा मुनि ने वरिष्ठ मुनियों की तरह प्रज्ञा प्रधान वार्ता की। वे कार्यकर्ताओं से बोले- ‘भक्तो, अब स्थापना का समय सामने खड़ा है एक अकेला साधु कहाँ जाएगा ? भैया हृदय बड़ा कीजिए, जिस जगह में दो बैठेंगे, वहाँ तीन बैठ जायेंगे और उन तीन की प्रेरणा से धर्म के तीन स्तम्भ याद किए जावेंगे-दर्शन, ज्ञान, चारित्र।’

बहस कर रहे लोग विद्वान मुनि की वाणी के समक्ष कोई उत्तर न दे सके, मौन रह गए।
जब कार्यकर्तागण चले गए तो बालाचार्य बाहुबलीसागर जी ने अपने साथ किए गए छल को बतलाना चाहा। वे आत्मसंताप प्रकट करने के लिए कोई शब्द कहें, उसके पूर्व ही ज्ञान-दिवाकर की तरह मुनिवर विनयपूर्वक बोले- ‘महाराज आप विकल्प मत कीजिए। शायद हमारा आपका साथ वर्षायोग में जरूरी रहा होगा, इसलिए अब हम साथ रहते हुए साधना करेंगे। इस प्रकार उस वर्ष का चातुर्मास दोनों गुरुओं का साथ-साथ हुआ। 

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