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इस्लाम धर्म और दिगम्बर जैन मुनि

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इस्लाम धर्म में भी दिगम्बर जैन मुनियों को यथोचित् सम्मान दिया गया है तथा यथायोग्य रीति से उनके क्वचित् सिद्धांतों को अंगीकार कर दृढ़ता से उसका प्रचार किया है। यथा-
इस्लाम धर्म से संबंधित एक शायर जलालुद्दीन ने दिगम्बरत्व को दिव्य ज्योति से अलंकृत बताते हुए वस्त्रधारी को कहा है-
महतसिव से काम जो होगा, क्या नंगे से तू ओहदा बरा है।
नजर धोबी पै जमापोस की, है तजल्ली जेवेरे उरितांतनी ।।
अर्थात् नग्न दरवेश कहता है- अरे भाई, तू जा और अपना काम कर, तू दिगंबर सा नहीं बन सकता। वस्त्र पहनने वाले की दृष्टि सदा धोबी की ओर रहती है। दिगंबर की शोभा दैवी-प्रकाश रूप है। या तो तुम नग्न दरवेशी से कोई संबंध नहीं रखो अथवा उनके सदृश दिगंबर और स्वाधीन बन जाओ। यदि तुम पूर्णतया दिगंबर नहीं बन सकते तो अपने वस्त्रों को थोड़े परिमाण में रखो।
आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व शाहजहाँ बादशाह के राज्य में मुस्लिम सूफी फकीर मुहम्मद अली नग्न रूप में रहते थे। उनकी मजार दिल्ली की जामा मस्जिद के वाम भाग में है। उनका कहना था कि परमात्मा जिसमें दोष देखता है, उसे वस्त्र पहना देता है किन्तु जो निर्दोष है उसे नग्न रहने देता है।
अब्दुल कासिम लिखते हैं-
पोशाद लिबास हरकरा एबेदीक।
बे एबारा लिबास उदियानी दाद ।।
और भी ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनसे यह कहा जा सकता है कि इस्लाम धर्म में भी नग्रत्व को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त रहा है।
इस्लाम धर्म में भगवान के लिए प्रचलित ‘मुहम्मद’ शब्द की व्याख्या एक शब्द कोष में तथा कुरान शरीफ में बड़े सुंदर ढंग से की गई है। कहा है-जिसने मोह और मद को नष्ट कर दिया है वह मुहम्मद है और ऐसे ही व्यक्ति आराधना करने योग्य हो सकते हैं; यही पूर्ण सत्य एवं तथ्य है।
तुर्किस्थान में ‘अब्दल’ (Abdal) नामक दरवेश मादरजात नंगे रहकर अपनी साधना में लीन रहते बताये गये हैं।
“The higher saints of Islam, called ‘Abdals’ generally went about perfectly naked; as described by Miss Lucy M. Garnet in her cellent account of the lives of Muslims Dervishes entitled Mysticisms and Magic in Turkey” {N.J.P. 10}
इस्लाम के महान सूफी तत्ववेत्ता और सुप्रसिद्ध ‘मनस्वी’ नामक ग्रंथ के रचयिता श्री बत्तालुद्दीन रूमी दिगंबरत्व का खुला उपदेश निम्न प्रकार देते हैं-
1) ‘गुफ्त मस्त ऐ महतब बगुजार रब-अज बिरहना के तवां बुरदन गख।”
2) “जामा पोशांरा नजर परगाज रास्त-जामै अरियाँ रा तजल्ली जेवर अस्त।”
3) “याज अरियानान बयकसू बाज ख-या चूँ ईशां फारिग व बेजामा शव ।”
4) “बरनमी तानी कि कुल अरियाँ शबी-जामा कम कुन ता रह औरत रखी।
{जिल्द 2, सफा 382 – उर्दू अनुवाद, इल्हामे मंजूम }
इनका उर्दू में अनुवाद ‘इल्हामे मन्जून’ नामक पुस्तक में इस प्रकार दिया हुआ है-
1) मस्तबोला, महतब, कर काम जा, होगा क्या नंगे से तू अहदे वर आ।
2) है नजर धोबी पे जामै-पोश की है , तजल्ली जेवर औरयाँ तनी।”
3) या विरहनों से हो यकसू वाकई, या हो उनकी तरह बेजामै अखी।
4) मुतलकन अरियाँ जो हो सकता नहीं, कपड़े कम यह है कि औसत के करी !!
भाव स्पष्ट है कोई तार्किक मस्त नंगे दरवेश से आ उलझा। उसने सीधे से कह दिया कि जा अपना काम कर तू नंगे के सामने टिक नहीं सकता। वखधारी को हमेशा धोबी की फिस लगी रहती है, किन्तु नंगे दरवेशों से कोई सरोकार न रख अथवा उनकी तरह आजाद औ नंगा हो जा। और अगर तू एकदम दूसरे कपड़े नहीं उतार सकता तो कम से कम कपड़े पहर और मध्यमार्ग को ग्रहण कर। क्या अच्छा उपदेश है। एक दिगंबर जैन साधु भी यही उपदेश देता है। इससे दिगंबरत्व का इस्लाम से सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है।
इस्लाम के इस उपदेश के अनुरूप सैकड़ों मुसलमान फकीरों ने दिगंबर वेष को गतकाल में धारण किया था। उनमें अबुलकासिम गिलानी और सरमद शहीद उल्लेखनीय है। {K.K.P.739 & NJ PP. 8-9}
और भी वे लिखते हैं कि-
“Among the vast number and endless variety of Fakires of Fakires or Dervishes……some carried a club like to Hercules. others, others had a dry and rough tiger-skin thrown over the Shoulders…several of these Fakires take long Pilgrimages, not only naked but laden with heavy iron chain such as are put abou the legs of elephants. {Burnier P. 317}
सरमद की तरह न जाने नंगे मुसलमान दरवेश हो गुजरे हैं। बादशाह ने उसे मात्र मंगे रहने के कारण सजा न दी, यह इस बात का द्योतक है कि वह नम्रता को बुरी चीज नाहीं समझात था और सचमुच उस समय भारत में हजारों नगे फकीर थे। ये दरवेश अपने तन में भारी- भारी जंजीरं लपेट बड़े लम्बे-लम्बे तीर्थाटन किया करते थे।
सारांश यह है कि इस्लाम मजहब में दिगंबरत्व साधु पद का चिन्ह रहा है और उसकी अमली शक्ल भी हजारों मुसलमानों ने दी है और चूँकि हजरत मुहम्मद किसी नये सिद्धांत के प्रचार का दावा गंगा की एक धारा को इस्लाम के सूफी दरवेशों ने भी अपना लिया था।
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