श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बर जैन मुनि
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श्वेताम्बर साहित्य कल्पसूत्र इस बात को प्रगट करते हैं कि दिगम्बर (नग्न) धर्म का पालन प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने किया था, तथा वे स्वयं दिगम्बर थे। {‘कल्पसूत्र’ – J.S. P.L. 1. P.285A} तथा आचारांग सूत्र में कहा है-
“Those are called naked, who in this world, never returning (to a wordly state), (follow) my religion according to the commandment. This highest doctrine has here been declared for men. {j.s.i.p. 56}
अर्थात् दिगम्बर भेष इतर भेषों में श्रेष्ठ भेष है। प्रवचन सारोद्धार में कहा है कि-
“आउरण बज्जियाणं विसुद्ध जिण कप्पियाणन्तु।” {संवत् 1134 में मुद्रित प्रवचन}
वस्त्राभूषण से युक्त साधुओं से जिनकल्प अर्थात् वस्त्राभूषणों से रहित साधु विशुद्ध हैं और भी देखिये
“सजहानामए अज्जोमए समणाण निग्गंथाणं नग्ग भावे मुण्ड भावे अण्हाणए अदन्तवणे अच्छत्तए अणुवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जाकट्ठ सेज्जा केसलोए बंभचेरवासे लद्धावलद्ध वित्तीओ जाव पण्णत्ताओ एवामेव…. वित्तीओ जाव पन्नवेहिंत्ति।” { ठाणा, पृ. 813 }
भगवान महावीर कहते है कि श्रमण निर्ग्रंथों को नग्नभाव, मुण्ड भाव, अस्नान, छत्र नहीं करना, पगरखी नहीं पहनना, भूमि शैय्या, केशलौंच, ब्रह्मचर्य पालन, अन्य के घर में भिक्षार्थ जाना तथा आहार की वृत्ति जैसी मैंने कही है वैसी ही महापद्म (भविष्य काल में होने वाले प्रथम तीर्थंकर) अरहंत भी कहेंगे। इसी अर्थ को निम्न वाक्य भी पुष्ट करते हैं-
नगिणापिंडोलगाहमा । मुण्डाकण्डू विणठण ।। { सूत्रकृतांग }
अहाइ भगवं एवं-से दंते दविए वोसढकाएत्रिवच्चे – माहणोत्ति वा, समणेत्ति वा, भिक्खूत्ति वा, णिग्गंथेत्ति वा पडिभाह देते। { सूत्रकृतांग }
तथा श्वेताम्बराचार्य श्री आत्माराम जी ने भी अपने ‘तत्व निर्णय प्रसाद’ नामक ग्रंथ में निधि शब्द की व्याख्या निम्न प्रकार से दी है, यथा-
कथा कौपीनोत्तरा संगादीनाम् त्यागिनों यथा जातरूप धरा निर्ग्रथा निष्परिग्रहाः’। {1, H.Q.III 245}
श्वेताम्बर ग्रंथ चतुर्विंशति प्रबंध में दिगम्बर मुनियों की प्रशंसा भी की गई है। यथा- उज्जयिनी में विशालकीर्ति नामक दिगम्बराचार्य (शिष्य मदनकीर्ति) नामक एक दिगम्बर साधु थे। उन्होंने वादियों को पराजित करके महा प्रामाणिकता पाई थी, और कर्नाटक देश में जाकर विजयपुर नरेश श्री कुंति भोज के दरबार में भी आदर पाया था तथा अनेक विद्वानों को पराजित किया था।” { भाप्रारा, भा. 1, पृ. 157 व सागार भूमिका, पृ. 9 }
गुजरात में चालुक्य, राष्ट्रकूट आदि राजाओं के समय में दिगम्बर जैन धर्म उन्नतशील था। सोलंकियों की राजधानी अणहिलपुर पट्टन में अनेक दिगम्बर मुनि थे। श्री चन्द्र नामक दिगम्बर जैन मुनि ने वहीं (अपने अनेकों) ग्रंथों की रचना की थी।” { वीर वर्ष 1, पृ. 637 }