रविव्रत विधि एवं कथा
!! Ravivrat vidhi evam katha !!
आदित्यव्रते पार्श्वनाथार्कसंज्ञके आषाढमासे शुक्लपक्षे तत्प्रथमादित्यमारभ्य नवसु अर्कदिनेषु व्रतं कार्यं नववर्षं यावत्। प्रथमवर्षे नवोपवास:, द्वितीयवर्षे नवैकाशना:, तृतीयवर्षे नवकाञ्जिका:, चतुर्थवर्षे नवरूक्षा:, पञ्चमवर्षे नवनीरसा:, षष्ठवर्षे नवालवणा:, सप्तमवर्षे नवागोरसा:, अष्टमवर्षे नवोनोदरा:, नवमवर्षे अलवणा ऊनोदरा: नव। एवमेकाशीति: कार्या:। व्रतदिने श्रीपार्श्वनाथस्याभिषेकं कार्ये पूजनं च। समाप्तावुद्यापनं च कार्यम्, ये भव्या इदं रविव्रतं विधिपूर्वकं कुर्वन्ति तेषां कण्ठे मुक्तिकामिनी कण्ठरत्नमाला पतिष्यति।
अर्थ-
रविव्रत में आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष में प्रथम रविवार पार्श्वनाथ संज्ञक होता है, इससे आरंभ कर नौ रविवार तक व्रत करना चाहिए। यह व्रत नौ वर्ष तक किया जाता है। प्रथम वर्ष में नौ रविवारों को उपवास, द्वितीय वर्ष में नौ रविवारों को एकाशन, तृतीय वर्ष में नव रविवारों को काञ्जी-छाछ या छाछ से बने महेरी आदि पदार्थ लेकर एकाशन, चतुर्थ वर्ष में नव रविवारों को बिना घी का रूक्ष भोजन, पंचम वर्ष में नौ रविवारों को नीरस भोजन, षष्ठ वर्ष में नौ रविवारों को बिना नमक का अलोना भोजन, सप्तम वर्ष में नौ रविवारों को बिना दूध, दही और घृत का भोजन, अष्टम वर्ष में नौ रविवारों को ऊनोदर एवं नवम वर्ष में नौ रविवारों को बिना नमक के नौ ऊनोदर किये जाते हैं। इस प्रकार ८१ व्रत-दिन होते हैं। व्रत के दिन श्री पार्श्वनाथ भगवान का अभिषेक और पूजन किया जाता है। जो विधिपूर्वक रविव्रत का पालन करते हैं,उनके गले में मोक्षलक्ष्मी के गले का हार पड़ता है। व्रत पूरा होने पर उद्यापन करना चाहिए। रविव्रत की यह शास्त्रीय विधि है किन्तु वर्तमान में पूरे ९ वर्ष तक इसमें मात्र अलोना भोजन का एकाशन या उपवास करने की परम्परा भी दिगम्बर जैन समाज में पाई जाती है।
रविव्रत का फल
सुतं वन्ध्या समाप्नोति दरिद्रो लभते धनम्।
मूढ: श्रुतमवाप्नोति रोगी मुञ्चति व्याधित:।।
अर्थ-
रविवार का व्रत करने से वन्ध्या स्त्री पुत्र प्राप्त करती है, दरिद्री व्यक्ति धन प्राप्त करता है, मूर्ख व्यक्ति शास्त्रज्ञान एवं रोगी व्यक्ति व्याधि से छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
कथा
काशी देश की बनारस नगरी का राजा महीपाल अत्यंत प्रजावत्सल और न्यायी था। उसी नगर में मतिसागर नाम का एक सेठ और गुणसुन्दरी नाम की उसकी स्त्री थी। इस सेठ के पूर्व पुण्योदय से उत्तमोत्तम गुणवान तथा रूपवान सात पुत्र उत्पन्न हुए।
उनमें छ: का तो विवाह हो गया था, केवल लघु पुत्र गुणधर कुवारे थे, सो गुणधर किसी दिन वन में क्रीड़ा करते विचर रहे थे तो उनको गुणसागर मुनि के दर्शन हो गये। वहाँ मुनिराज का आगमन सुनकर और भी बहुत लोग वन्दनार्थ वन में आये थे, वह सब स्तुति वंदना करके यथास्थान बैठे। श्री मुनिराज उनको धर्मवृद्धि कहकर अहिंसादि धर्म का उपदेश करने लगे।
जब उपदेश हो चुका तब साहूकार की स्त्री गुणसुन्दरी बोली-स्वामी! मुझे कोई व्रत दीजिए। तब मुनिराज ने उसे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का उपदेश दिया और सम्यक्त्व का स्वरूप समझाया और पीछे कहा-बेटी! तू आदित्यवार का व्रत कर, सुन, इस व्रत की विधि इस प्रकार है कि आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष में अंतिम रविवार (अन्य ग्रंथानुसार अंतिम रविवार है) से लेकर नव रविवारों तक यह व्रत करना चाहिए।
प्रत्येक रविवार के दिन उपवास करना या बिना नमक (मीठा) के अलोना भोजन एक बार (एकासना) करना, पाश्र्वनाथ भगवान की पूजा अभिषेक करना। घर के सब आरंभ का त्यागकर विषय और कषाय भावों को दूर करना, ब्रह्मचर्य से रहना, रात्रि जागरण-भजनादि करना और ‘ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथाय नम:’ इस मंत्र की १०८ बार जाप करना।
नवधाभक्ति कर मुनिराज को भोजन कराना और नववर्ष पूर्ण होने पर उद्यापन करना। सो नव-नव उपकरण मंदिरों में चढ़ाना, नव शास्त्र लिखवाना, नव श्रावकों को भोजन कराना, नव-नव फल श्रावकों को बांटना, समवसरण का पाठ पढ़ना, पूजन विधान करना आदि।
इस प्रकार गुणसुंदरी व्रत लेकर घर आई और सब कथा घर के लोगों को कह सुनाई तो घरवालों ने सुनकर इस व्रत की बहुत निंदा की। इसलिए उसी दिन से उस घर में दरिद्रता का वास हो गया। सब लोग भूखों मरने लगे, तब सेठ के सातों पुत्र सलाह करके परदेश को निकले। सो साकेत (अयोध्या) नगरी में जिनदत्त सेठ के घर जाकर नौकरी करने लगे और सेठ-सेठानी बनारस ही में रहे।
कुछ काल के पश्चात् बनारस में कोई अवधिज्ञानी मुनि पधारे, सो दरिद्रता से पीड़ित सेठ-सेठानी भी वंदना को गये और दीन भाव से पूछने लगे-हे नाथ! क्या कारण है कि हम लोग ऐसे रंक हो गये? तब मुनिराज ने कहा-तुमने मुनिप्रदत्त रविवारव्रत की निंदा की है इससे यह दशा हुई है।
यदि तुम पुन: श्रद्धा सहित इस व्रत को करो तो तुम्हारी खोई हुई सम्पत्ति तुम्हें फिर मिलेगी। सेठ-सेठानी ने मुनि को नमस्कार करके पुन: रविवार व्रत किया और श्रद्धा सहित पालन किया जिससे उनको फिर से धन-धान्यादि की अच्छी प्राप्ति होने लगी।
परन्तु इनके सातों पुत्र साकेतपुरी में कठिन मजदूरी करके पेट पालते थे तब एक दिन लघु भ्राता गुणधर वन में घास काटने को गया था, सो शीघ्रता से गट्ठा बांधकर घर चला आया और हंसिया (दरांत) वहीं भूल आया। घर आकर उसने भावज से भोजन माँगा। तब वह बोली-
लालजी! तुम हंसिया भूल आये हो, सो जल्दी जाकर ले आओ पीछे भोजन करना, अन्यथा हंसिया कोई ले जायेगा तो सब काम अटक जायेगा। बिना द्रव्य नया दांतड़ा वैâसे आयेगा? यह सुनकर गुणधर तुरंत ही पुन: वन में गया सो देखा कि हंसिया पर बड़ा भारी साँप लिपट रहा है।
यह देखकर वह बहुत दु:खी हुआ कि दांतड़ा बिना लिये तो भोजन नहीं मिलेगा और दांतड़ा मिलना कठिन हो गया है तब वह विनीत भाव से सर्वज्ञ वीतराग प्रभु की स्तुति करने लगा सो उसके एकाग्रचित्त होकर स्तुति करने के कारण धरणेन्द्र का आसन हिला, उसने समझा कि अमुक स्थानों में पाश्र्वनाथ जिनेन्द्र के भक्त को कष्ट हो रहा है।
तब करुणा करके पद्मावती देवी को आज्ञा की कि तुम जाकर प्रभुभक्त गुणधर का दु:ख निवारण करो। यह सुनकर पद्मावती देवी तुरंत वहाँ पहुँची और गुणधर से बोली-
हे पुत्र! तुम भय मत करो। यह सोने का दांतड़ा और रत्न का हार तथा रत्नमई पार्श्वनाथ प्रभु का बिंब भी ले जाओ, सो भक्तिभाव से पूजा करना, इससे तुम्हारा दु:ख शोक दूर होगा।
गुणधर, देवी द्वारा प्रदत्त द्रव्य और जिनबिंब लेकर घर आया सो प्रथम तो उनके भाई ये देखकर डरे, कि कहीं यह चुराकर तो नहीं लाया है, क्योंकि ऐसा कौन सा पाप है जो भूखा नहीं करता है, परन्तु पीछे गुणधर के मुख से सब वृत्तांत सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
इस प्रकार दिनों-दिन उनका कष्ट दूर होने लगा और थोड़े ही दिनों में वे बहुत धनी हो गये। पश्चात् उन्होंने एक बड़ा मंदिर बनवाया, प्रतिष्ठा कराई, चतुर्विध संघ को चारों प्रकार का यथायोग्य दान दिया और बड़ी प्रभावना की।
जब यह सब वार्ता राजा ने सुनी, तब उन्होंने गुणधर को बुलाकर सब वृत्तांत पूछा और अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी परम सुन्दरी कन्या गुणधर को ब्याह दी तथा बहुत सा दान दहेज दिया। इस प्रकार बहुत वर्षों तक वे सातों भाई राज्यमान्य होकर सानंद वहीं रहे, पश्चात् माता-पिता का स्मरण करके अपने घर आये और माता-पिता से मिले। पश्चात् बहुत काल तक मनुष्योचित सुख भोगकर सन्यासपूर्वक मरणकर यथायोग्य स्वर्गादि गति को प्राप्त हुए और गुणधर उससे तीसरे भव में मोक्ष गये।
इस प्रकार व्रत के प्रभाव से मतिसागर सेठ का दरिद्र दूर हुआ और उत्तमोत्तम सुख भोगकर उत्तम-उत्तम गतियों को प्राप्त हुए। जो और भव्यजीव श्रद्धा सहित नौ वर्ष विधिपूर्वक इस व्रत का पालन करेंगे,वे उत्तम गति पावेंगे।