जैन धर्म’ क्या है? (What is Jainism?)
‘जैन धर्म’ का अर्थ है – ‘जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म’ । ‘जिन’ शब्द बना है संस्कृत के ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने – जीतना। ‘जिन’ माने जीतने वाला अर्थात् जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया, उन आप्त पुरुष को जिन या जिनेन्द्र कहा जाता है। जो ‘जिन’ के अनुयायी हों उन्हें ‘जैन’ कहते हैं। और अधिक सरल शब्दों में कहें तो –
“जयति इति जिन:” अपनी इन्द्रियों, वासनाओं, इच्छाओं और कर्मों को जीतने वाले जिन कहलाते हैं। “जिनस्य उपासक: जैन:” जिनेन्द्र भगवान के उपासक को जैन कहते हैं। जैन धर्म अर्थात ‘जिन भगवान्’ का धर्म।
जैनधर्म का प्रथम सोपान भेद विज्ञान प्राप्त करना है। भेद विज्ञान का अर्थ है—शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। मैं पर पदार्थों का कताॅ नहीं हूँ, मात्र साक्षी हूँ। सृष्टा नहीं हूँ, दृष्टा मात्र हूँ। एवं अंतिम लक्ष्य परमात्म अवस्था को प्राप्त करना है। आचरण में अहिंसा, चिन्तन में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रहवाद के द्वारा वीतराग अवस्था को प्राप्त करते हुए परमात्म अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।
जैन धर्म के प्राचीन अथवा पर्यायवाची नामों पर हम चर्चा करें तो वे सार्थक अर्थपूर्ण नाम निम्नलिखित हैं—
- जिनधर्म— जिनेन्द्र कथित धर्म को जिनधर्म कहते हैं।
- आर्हत् धर्म— अरिहंत भगवान व्दारा प्रतिपादित धर्म आर्हत् धर्म है।
- सनातन धर्म— अनादिकाल से चले आ रहे धर्म को सनातन धर्म कहते हैं।
- निर्ग्रन्थ धर्म— समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित साधु कोनिर्ग्रन्थ कहते हैं और उनके धर्म को निर्ग्रन्थ धर्म कहते हैं।
- श्रमण धर्म— आत्मशुद्धि के लिए सतत् श्रम / पुरुषार्थ करने वाले श्रमण हैं और उनके व्दारा धारण किया जाने वाला श्रमण धर्म है|
जैन धर्म को समझने के लिए पहले हमें ये समझना होगा कि धर्म किसे कहते हैं क्योंकि आज धर्म संज्ञा को प्राप्त नाना मत-मतान्तर हमें दिखायी दे रहे हैं , हिंदू कह रहा है वेदों को मानना ही धर्म है, सिक्ख कह रहा है गुरु ग्रन्थ साहिब को मानना ही धर्म है, मुसलमान कह रहा है क़ुरान को मानना ही धर्म है, ईसाई कह रहा है बाइबिल को मानना ही धर्म है, जैन कह रहा है जिनवाणी को मानना ही धर्म है|
सभी आज अपनी-अपनी मान्यता को धर्म का जामा पहना रहे हैं और इतना मात्र ही होता तो भी ठीक था, लेकिन जो इनकी मान्यता को नहीं मानता उसके लिए आज ये लोग नास्तिकवादी का सर्टिफिकेट भी पकड़ा रहे हैं| जो वेदों को माने वो आस्तिक ना माने वो नास्तिक, जो क़ुरान को मनाता हो वो मोमिन और जो ना मानता हो वो काफ़ि़र, जो जिनवाणी को मनाता हो वो सम्यग्दृष्टि ना मनाता हो वो मिथ्यादृष्टि|
अब ऐसे समय में कौन धर्म है और कौन अधर्म है इसका निर्णय कैसे हो?
इस बात का निर्णय करने के सर्वप्रथम इन नाना मतों से प्रदूषित हो चुके वातावरण से बाहर निकलकर निष्पक्षता के स्वच्छ वातावरण में आ यह निर्णय करना होगा कि धर्म किसे कहते हैं?
धर्म किसे कहते हैं? (What is called religion?)
धर्म का अर्थ है ” स्वभाव “| हर वस्तु का अपना-अपना निश्चित स्वभाव है जो त्रैकालिक है एवं सहज है|
त्रैकालिक एवं सहज का क्या अर्थ है? (What is the meaning of Trikalik and Sahaj)
त्रैकालिक का अर्थ है- तीनों कालों ( भूत, वर्तमान, भविष्य) में रहने वाला|
धर्म तीनों कालों में एक सामान रहता है, क्योंकि जो समय के साथ बदल जाये उसके स्वरूप निर्धारण कैसे किया जा सकता है? आज आप मुझसे धर्म की परिभाषा पूछे तो मैं क्या बताऊंगा? क्योंकि मैं जो भी बताऊँगा वह तो अगले ही क्षण बदल जाने वाला है| ऐसे में जबकि धर्म की परिभाषा ही निश्चित नहीं हो पायेगी तब उसके अंतर्गत दिया हुआ धर्म का उपदेश भी कैसे स्थित रह सकेगा? अतः यह निश्चित हुआ कि धर्म त्रैकालिक होता है|
सहज का अर्थ है – बिना किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति की अपेक्षा / हस्तक्षेप के, स्व का अस्तित्व होना |
धर्म / स्वभाव सहज होता है, उसमे किसी अन्य की कोई अपेक्षा नहीं होती क्योंकि यदि अन्य के द्वारा किसी का धर्म / स्वभाव निर्धारित किया जायेगा तब तो जब तक वह अन्य ( वस्तु / व्यक्ति ) उसके स्वभाव / धर्म का निर्धारण नहीं कर देता तब तक वह वस्तु स्वाभाव रहित कहलायेगी और स्वभाव रहित वस्तु का अस्तित्व मानने पर प्रत्यक्ष में ही विरोध आता है|
उदाहरण के लिए ‘अग्नि’ को लेते हैं| अग्नि का स्वभाव / धर्म क्या है – ऊष्णता| अब उसमें ऊष्णता डालने वाला कौन है? यदि आप कहेगे कि जिनेंद्रदेव / विष्णु/ जीसस/ अल्लाह| तो अब प्रश्न उठता है कि जब तक जिनेन्द्रदेव/ विष्णु / जीसस/ अल्लाह ने उसमें उसका स्वभाव/ धर्म नहीं डाला था तब तक वह अग्नि कैसी थी?
अतः मानना पड़ता है कि प्रत्येक वस्तु में एक सहज स्वभाव/ धर्म पाया जाता है और उसका वह स्वभाव त्रैकालिक होता है| क्योंकि अग्नि कल भी ऊष्ण थी, आज भी ऊष्ण है और आगे जब तक अग्नि रहेगी तब तक ऊष्ण ही रहेगी| क्योंकि ” प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना स्वभाव होता है और वह त्रैकालिक व सहज होता है|”
यदि ऐसा है तो जल का स्वभाव/ धर्म तो शीतलता है फिर जल उष्ण कैसे हो सकता है?
बहुत सुंदर प्रश्न है तो ध्यान से समझो कि कुछ वस्तुओं में स्व स्वभाव के साथ ही एक विभाव स्वभाव भी पाया जाता है| यदि ये विभाव स्वभाव वस्तु में ना हो तो कोई भी उस वस्तु को विभाव रूप परिणमन नहीं करा सकता| उदाहरण के लिए अग्नि केवल जलने योग्य पदार्थों को ही जला सकती है लेकिन अभ्रक को नहीं|
लेकिन इतना भी अवश्य है कि ये विभाव स्वभाव सदैव किसी अन्य के संयोग से ही उत्पन होता है| आपके पूर्वोक्त उदाहण में जल अग्नि के संयोग से ही ऊष्ण होता है और जब उसे अग्नि के संयोग से पृथक कर लिया जाता है तो वह सहज अपने शीतल स्वभाव को प्राप्त हो जाता है|
अब सार रूप में समझते है कि हम जीव/ आत्मा है और प्रत्येक वस्तु की तरह हमारा भी एक निश्चित स्वाभाव/ धर्म है और वह है ” ज्ञान-दर्शन ” अर्थात ” जानना और देखना ” पर यह जानना-देखना पूर्ण वीतराग भाव से होना चाहिये| इसीलिये हमारे महान आचार्यों ने कहा कि इस संसार में प्रत्येक वस्तु का ध्यान कर कर्मों का क्षय किया जा सकता है लेकिन वो ध्यान उस वस्तु के स्वभाव का होना चाहिए विभाव का नहीं| हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसे अनेकों उदहारण भरे पड़े है जिसमें भव्य जीवों ने स्त्री के स्वभाव का चिंतन किया और वैराग्य को प्राप्त हो गए एवं शेष जीव उसी स्त्री का चिंतन करते है और राग भाव को प्राप्त हो जाते हैं|
तो ऐसे वीतराग भाव से साथ ज्ञान-दर्शन में स्थित होना तो दृढ वैरागियों से ही संभव हो पाता है|
जीव/ आत्मा में मात्र ये दो ही स्वभाव नहीं है इसके साथ क्षमा ( क्रोध ना करना ) , मार्दव ( अभिमान ना करना ) , आर्जव ( सरल प्रवत्ति करना ) , शौच ( शुचिता / संतोष रखना ) – ये सभी जीव के स्वभाव/ धर्म है| यही कारण है कि जीव आपने क्षमा धर्म में सहज स्थित रहता है लेकिन उसे क्रोध करने के लिए किसी ना किसी अन्य व्यक्ति/ वस्तु के संयोग की आवश्यकता अवश्य होती है| जीव आपने मार्दव धर्म में सहज स्थित रहता है लेकिन उसे अभिमान करने के लिए किसी ना किसी अन्य व्यक्ति (स्त्री, पुत्र) / वस्तु (धन आदि) के संयोग की आवश्यकता अवश्य होती है| जीव आपने आर्जव धर्म में सहज स्थित रहता है लेकिन उसे मायाचारी करने के लिए किसी ना किसी अन्य व्यक्ति/ वस्तु के संयोग की आवश्यकता अवश्य होती है| जीव आपने शौच धर्म में सहज स्थित रहता है लेकिन उसे लोभ करने के लिए किसी ना किसी अन्य व्यक्ति/ वस्तु के संयोग की आवश्यकता अवश्य होती है|
जीव/ आत्मा के इसी धर्म को बताने वाले जिनदेव/ जिनेंद्रदेव है| यदि वे हमें हमारे धर्म से परिचय न करते तो जैसे जल अग्नि के ऊपर रखा-रखा एकमात्र तपन का ही अनुभव करता रहता है वैसे ही हम सभी भी इस संसार की अग्नि में पड़े-पड़े एकमात्र क्रोध आदि दुर्गुणों का ही अनुभव करते रहते|
चूँकि उन्होंने स्वयं की इंद्रियों को जीता इसलिये वे जिनदेव कहलाये और उन्होंने प्रत्येक वस्तु के त्रैकालिक एवं सहज धर्म का उपदेश दिया इसलिये वह धर्म ” जैन धर्म ” कहलाया एवं हम सभी इस धर्म को मानने वाले हुये इसलिए जैन कहलाये|
आइए जानते हैं जैन धर्म के कुछ नियम एवं तथ्यों के बारे में, जो रोचक होने के साथ ही प्रेरणादायक भी हैं-
- जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है जो सिखाता है कि मुक्ति और आनंद का मार्ग आध्यात्मिक और त्याग का जीवन जीना है।
- अनेकान्तवाद — अनेक का अर्थ है नाना और अन्त का अर्थ है धर्म अथवा स्वभाव। वस्तु के परस्पर विरोधी अनेक गुण—धर्मों के सद्भाव को स्वीकार करने वाली दृष्टि को अनेकान्त कहते हैं। जैसे—वस्तु— नित्य, अनित्य, एक, अनेक आदि धर्मों से युक्त है। इस प्रकार की कहने की शैली अनेकांतवाद है|
- स्याद्वाद— स्यात् का अर्थ है विवक्षा और वाद का अर्थ है कथन अर्थात् किसी अभिप्राय से अथवा दृष्टि विशेष से एक धर्म का कथन करने वाली शैली स्याद्वाद है। जैसे—द्रव्य की दृष्टि से वस्तु नित्य, पर्याय की दृष्टि से वस्तु अनित्य है।
- वस्तु की स्वतंत्रता— प्रत्येक वस्तु के स्वतंत्र अस्तित्त्व को स्वीकार कर उसके परिणमन को स्वतंत्र मानना वस्तु की स्वतंत्रता है।
- आत्मा का अस्तित्व- जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को मानता है और जीवन का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष यानि की निर्वाण को मानता है।
- पुनर्जन्म में विश्वास- जैन पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और परम मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं – जिसका अर्थ है जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के निरंतर चक्र से बचना ताकि अमर आत्मा हमेशा आनंद की स्थिति में रहे। आत्मा से सभी कर्मों को नष्ट करने से मुक्ति प्राप्त होती है।
- अवतारवाद का निषेध— कर्मबन्ध के कारणों का अभाव होने पर भगवान का पुन: मनुष्य आदि के रूप में अवतार नहीं होता है। जैसे—घी से पुन: दूध नहीं बनता।
- जैन धर्म में स्थापक नहीं होते प्रवर्तक होते हैं, जैन धर्म के प्रवर्तकों को तीर्थंकर माना जाता है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं।इस काल में जैन धर्म के प्रथम प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव/ आदिनाथ हुये। भगवान महावीर को जैन धर्म का आखिरी तीर्थंकर माना गया है, जिन्हें जैनधर्म के लोग भगवान के रुप में मुख्यता से पूजते हैं।
- जैन संतों का जीवन- जैन धर्म की दीक्षा लेने वाले जैन संतों का जीवन काफी कठिन होता है। दिगंबर जैन संत शीत आदि सभी ऋतुओं में बिना वस्त्रों के ही रहते हैं, हर चीज हाथ में लेकर खाते हैं वह भी २४ घंटों में मात्र एकबार, उसके पश्चात् अगले दिन तक वह एक बूंद जल भी ग्रहण नहीं करते। किसी भी जगह जाने के लिए ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल नहीं करते और लंबी दूरी भी पैदल एवं पैरों में बिना कुछ पहने ही तय करते हैं, जैन साधुओं का जीवन अन्य मतों के साधुओं के जीवन से बेहद कठिन होता है।
- जैन धर्म में व्रत पालन विधि- जैन धर्म में व्रत रखने को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ये कई-कई दिन लंबे समय तक व्रत रखते हैं। जैन धर्म में व्रत के नियम काफी कठोर होते हैं। पूरा दिन में सिर्फ एक बार पानी पीकर अथवा बिना कुछ खाए-पिये ही ये व्रत करने पड़ते हैं। इनके व्रत रखने की अवधि 8 दिन से 30 दिन अथवा उससे भी अधिक की हो सकती है।
- जैन धर्म के प्रमुख 3 रत्न- जैन धर्म के तीन रत्न- सही विश्वास(सम्यग्दर्शन), सही ज्ञान(सम्यग्ज्ञान) और सही आचरण(सम्यक्चारित्र) हैं।
- ‘अहिंसा परमो धर्म:’ जैन धर्म का मुख्य वाक्य/ सर्वोच्च सिद्धांत अहिंसा है जिसके अनुसार माना जाता है कि अहिंसा करना ही परम धर्म है। जैन धर्म में किसी भी जीव को नुकसान पहुंचाना पूरी तरह से वर्जित माना गया है। यह 5 महाव्रतों में से एक है। अन्य महाव्रत हैं संपत्ति के प्रति अनासक्ति, झूठ न बोलना, चोरी न करना और यौन संयम (ब्रह्मचर्य को आदर्श मानते हुए)।
- जैन धर्म और शाकाहार- जैन सख्त शाकाहारी हैं और इस तरह से रहते हैं कि वे दुनिया के संसाधनों का कम से कम उपयोग करें ।
- जैन धर्म में जमीकंदों का निषेध- जैन धर्म में आलू, गाजर, अदरक जैसे जमीन के नीचे पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन वर्जित होता है क्योंकि इन खाद्य पदार्थों में भी ये जीवों की उपस्थिति मानते हैं। सूर्य उदय और सूर्यास्त के बाद कुछ भी खाना-पीना जैन धर्म में वर्जित माना गया है। उपवास के दौरान भी ये जल तक का भी सेवन नहीं करते हैं।
- जैन धर्म में करुणा – जैन धर्म में करुणा को पहला स्थान दिया गया है। जैन धर्म में हत्या करना पाप माना जाता है। जहाँ हिंदू धर्म में मात्र गौ रक्षा को ही प्रमुख स्थान प्राप्त है वहीं जैन धर्म में जीव मात्र की रक्षा की बात कही गयी है, यहां तक की जानवरों और पेड़-पौधों तक को मारना पाप माना गया है।
- प्राणी कल्याण की भावना- जैन धर्म का सार ब्रह्मांड में प्रत्येक प्राणी के कल्याण और ब्रह्मांड के स्वास्थ्य के लिए चिंता है। जैनियों का मानना है कि जानवरों और पौधों, साथ ही मनुष्यों में भी आत्मा होती है। इनमें से प्रत्येक आत्मा को समान मूल्य का माना जाता है और उसके साथ सम्मान और करुणा का व्यवहार किया जाना चाहिए।
- जैन धर्म के अनुयायी दो तरह के होते हैं जिन्हें दिगम्बर जैन एवं श्वेतांबर जैन कहा जाता है। श्वेतांबर जैन साधु तन ढ़कने के लिए पतले से सफेद कपड़े का उपयोग करते हैं तो वहीं दिगंबर जैन साधु दिशाओं को ही अपने वस्त्र मानते हैं और आजीवन नग्न रहते हैं। इस कारण से दिगंबर जैन साधुओं का तप विशेष माना गया है एवं श्वेताम्बर साधु भी दिगंबर साधुओं को अपने से वरिष्ठ स्थान देते हैं| देश-विदेश में जैन धर्म को मानने वाले लोग रहते हैं। जैन धर्म के अनुयायी सामाजिक जीवन से संन्यास लेकर दीक्षा लेते हैं और अपना सम्पूर्ण जीवन साधु के रुप में जीवन बिताते हुये निज आत्म उत्थान करते हुये समाज एवं देश के उत्थान के विषय में भी सकारात्मक चिंतन देते हैं।
- पुरातत्त्वविभाग के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता- अनेक प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल से जैनधर्म की प्राचीनता को स्वीकार किया है। उत्खनन में प्राप्त सील नं. ४४९ के लेख को प्रो. प्राणनाथ विध्यालंकार ने ‘जिनेश्वर’ पढ़ा है। पुरातत्त्वविद् राय बहादुर चन्द्रा का वक्तव्य है कि सिन्धु घाटी की मोहरों में एक मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें मथुरा की ऋषभदेव की खड़गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव दृष्टिगोचर होते हैं। हड़प्पा से प्राप्त नग्न मानव धड़ भी सिन्धु घाटी सभ्यता में जैन तीर्थंकरों के अस्तित्त्व को सूचित करता है। केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के महानिर्देशक टी. एन. रामचन्द्रन ने उस पर गहन अध्ययन करते हुए लिखा है कि—‘हड़प्पा की कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्णित मूर्ति पूर्ण रूप से जैन मूर्ति है।’ मथुरा का कंकाली टीला जैन पुरातत्त्व की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। वहाँ की खुदाई से अत्यन्त प्राचीन देव निर्मित स्तूप (अज्ञातकाल) के अतिरिक्त एक सौ दस शिलालेख एवं कुछ प्रतिमायें मिली हैं, जो ईसा पूर्व दूसरी सदी से बारहवीं सदी तक की हैं।
- हिंदू मंदिरों की तुलना में जैन मंदिर अधिक विशाल होते है। दिलवाड़ा के जैन मंदिर अपनी खूबसूरती के लिए विश्व भर में जाने जाते हैं।
- जैन ग्रंथों को आगम कहा जाता है।
- जैन समुदाय के लोग सबसे ज्यादा अमीर माने जाते हैं। अमेरीका में जैन कम्यूनिटी सबसे ज्यादा पैसे वाली मानी जाती है वहीं भारत में रहने वाले जैन सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे होते हैं। संसार में होने वाले हीरे के व्यापार पर 60 प्रतिशत नियंत्रण जैन कारोबारियों का है।