जैन तीर्थंकर श्री नेमिनाथ स्वामी- जीवन परिचय|
Jain Tirthankar Shri Nimenath Swami- Life Introduction|
नेमिनाथ भगवान का परिचय | |
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अन्य नाम | अरिष्टनेमि |
चिन्ह | शंख |
पिता | महाराज श्रीसमुद्रविजय |
माता | रानी शिवादेवी |
वंश | हरिवंश |
वर्ण | क्षत्रिय |
अवगाहना | 10 धनुष (40 हाथ) |
देहवर्ण | नीला |
आयु | 1000 वर्ष |
वृक्ष | बाँस वृक्ष |
प्रथम आहार | द्वारावती के राजा वरदत्त द्वारा (खीर) |
पंचकल्याणक तिथियां | |
गर्भ | कार्तिक शुक्ला ६ |
जन्म | श्रावण शुक्ला ६ द्वारावती |
दीक्षा | श्रावण शुक्ला ६ |
केवलज्ञान | आश्विन शुक्ला १ |
मोक्ष | आषाढ़ शुक्ला ७ गिरनार |
समवशरण | |
गणधर | श्री वरदत्त आदि ११ |
मुनि | अठारह हजार |
गणिनी | आर्यिका राजीमति(राजुलमती) |
आर्यिका | चालीस हजार |
श्रावक | एक लाख |
श्राविका | तीन लाख |
यक्ष | सर्वाण्हदेव |
यक्षी | कूष्माण्डी देवी |
परिचय
पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम सुमेरू की पश्चिम दिशा में जो महानदी (सीतोदा नदी) है उसके उत्तर तट पर एक गंधिल नाम का महादेश है। उसके विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में सूर्यनगर का स्वामी सूर्यप्रभ राज्य करता था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी था। दोनों के चिन्तागति, मनोगति और चपलगति नाम के तीनपुत्र हुए। उसी विजयार्ध की उत्तर श्रेणी के अरिन्दमन नगर में राजा अरिंजय की अजितसेना रानी से प्रीतिमती नाम की पुत्री हुई। उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो विद्या से मेरू की प्रदक्षिणा में मुझे जीत लेगा, मैं उसी से विवाह करूँगी। उसने अपनी विद्या से चिन्तागति को छोड़कर समस्त विद्याधर कुमारों को मेरूपर्वत की तीन प्रदक्षिणा में जीत लिया। तब चिन्तागति उसे अपने वेग से जीतकर कहने लगा कि तू रत्नों की माला से मेरे छोटे भाई को स्वीकार कर। प्रीतिमती बोली, जिसने मुझे जीता है उसके सिवाय मैं दूसरे का वरण नहीं करूँगी। चिन्तागति ने कहा, चूँकि तूने पहले उन्हें प्राप्त करने की इच्छा से ही मेरे छोटे भाई के साथ गति युद्ध किया था अत: तू मेरे लिये त्याज्य है। चिन्तागति के यह वचन सुनते ही वह विरक्त हो गई और विवृत्ता नाम की आर्यिका के पास जाकर दीक्षित हो गई। यह देख वहाँ बहुत से लोगों ने दीक्षा धारण कर ली। कन्या का यह साहस देखकर चिन्तागति ने भी अपने दोनों भाइयों के साथ दमवर नामक गुरू के पास दीक्षा ले ली। बहुत काल तक तपश्चरण करते हुये वे तीनों समाधि पूर्वक मरकर चौथे स्वर्ग में देव हो गये। मनोगति और चपलगति नाम के दोनों छोटे भाई के जीव स्वर्ग से च्युत हुए। जम्बूद्वीपसम्बन्धी पूर्व विदेहक्षेत्र के पुष्कला देश में जो विजयार्ध पर्वत है, उसकी उत्तरश्रेणी में गगनवल्लभ नगर के राजा गगनचन्द की गगनसुंदरी रानी से दोनों देव के जीव अमितगति और अमिततेज नाम के पुत्र उत्पन्न हो गये। इसी जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में सीतोदा के उत्तर तट पर सुगंधिलादेश में एक सिंहपुर नाम का नगर है। उसके अर्हदास राजा की जिनदत्ता रानी से चिंतागति देव का जीव च्युत होकर पुत्र हो गया। माता-पिता ने उसका नाम अपराजित रखा था। किसी दिन राजा अर्हदास ने मनोहर नामक उद्यान में पधारे हुए विमलवाहन तीर्थंकर की वंदना करके धर्मरूपी अमृत का पान किया। अनन्तर अपराजित पुत्र को राज्य देकर पाँच सौ राजाओं के साथ मुनि हो गये। कुमार अपराजित पिता के दिये हुए राज्य का संचालन करने लगे और सम्यग्दर्शन तथा अणुव्रत से विभूषित होकर धर्म का पालन करने लगे। किसी दिन उन्होंने सुना कि ‘हमारे पिता के साथ श्री विमलवाहन भगवान गंधमादन पर्वत से मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं।’ यह सुनते ही उन्होंने प्रतिज्ञा की कि ‘ मैं विमलवाहन भगवान के दर्शन किये बिना भोजन नहीं करूँगा।’ इस प्रतिज्ञा से उसे आठ दिन का उपवास हो गया। तदनंतर इन्द्र की आज्ञा से यक्षपति ने उस राजा को भगवान विमलवाहन का साक्षात्कार कराकर दर्शन कराया अर्थात् समवसरण बनाकर विमलवाहन का दर्शन कराया। किसी एक दिन बसंत ऋतु में अष्टान्हिका के समय बुद्धिमान राजा अपराजित जिन प्रतिमाओं की पूजा- स्तुति करके वहीं पर बैठे हुए धर्मोपदेश कर रहे थे कि उसी समय आकाश से दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज आकर वहीं पर विराजमान हो गये। राजा ने उनके सम्मुख जाकर बड़ी विनय से उनके चरणों में नमस्कार किया, धर्मोपदेश सुना, अनन्तर कहा कि हे पूज्य! मैं पहले कभी आपको देखा है। उनमें से ज्येष्ठ मुनि बोले-हाँ राजन्! ठीक कहते हो, आपने हम दोनों को देखा है परंतु कहाँ देखा है ? वह स्थान मैं कहता हूँ सो सुनो- पुष्करार्धद्वीप के पश्चिममेरूसंबंधी पश्चिम विदेह में गंधिल नाम का महादेश है। उसके विजयार्ध की उत्तरश्रेणी में सूर्यप्रभ नगर के राजा सूर्यप्रभ के चिंतागति, मनोगति और चपलगति नाम के तीन पुत्र थे। प्रीतिमती नाम की विद्याधर कन्या के गतियुद्ध के प्रसंग में हम तीनों ने दीक्षित होकर तपश्चरण करके चतुर्थ स्वर्ग को प्राप्त किया था। वहाँ से च्युत होकर हम दोनों छोटे भाई पूर्व विदेह में अमितगति और अमिततेज नाम के विद्याधर हुए हैं। किसी एक दिन हम दोनों पुण्डरीकिणी नगरी गये। वहाँ श्री स्वयंप्रभ तीर्थंकर से हम दोनों ने अपने पिछले तीन जन्मों का वृत्तांत पूछा। तब भगवान ने सब भवावली बतलाई। अनन्तर हमने पूछा कि हमारा बड़ा भाई इस समय कहाँ है? इसके उत्तर में भगवान ने कहा कि वह सिंहपुर का अपराजित नाम का राजा है। यह सुनकर हम दोनों ने उन्हीं के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और तुम्हें देखने के लिए जन्मान्तर के स्नेहवश यहाँ आये हैं। अब तुम्हारी आयु केवल एक माह की शेष रह गई है, शीघ्र ही आत्म कल्याण करो। हे अपराजित! तुम इससे पाँचवें भव में भरतक्षेत्र के हरिवंश नामक महावंश में ‘अरिष्टनेमि’ नाम के तीर्थंकर होवोगे।’ यह सुनकर राजा ने बार-बार उन मुनियों की वंदना की और कहा कि आप यद्यपि निगं्र्रथ अवस्था को प्राप्त हुए हैं तो भी जन्मांतर के स्नेह से आपने मेरा बड़ा ही उपकार किया है। अनंतर मुनिराज के चले जाने के बाद राजा ने अपने पुत्र को राज्य देकर आप प्रायोपगमन संन्यास विधि से मरण करके सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र हो गये। वह पुण्यात्मा वहाँ के दिव्य भोगों का अनुभव कर आयु के अंत में वहाँ से च्युत हुआ। इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रसंबंधी कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र की श्रीमती रानी से सुप्रतिष्ठ नाम का यशस्वी पुत्र हुआ। कालांतर में पिता द्वारा प्रदत्त राज्य का निष्कंटक उपभोग करते हुये किसी दिन यशोधर नाम के मुनिराज को आहारदान देकर पंचाश्चर्य को प्राप्त किया। किसी दूसरे दिन वह राजा रानियों के साथ राजमहल की छत पर बैठा हुआ दिशाओं की शोभा का अवलोकन कर रहा था कि इसी बीच अकस्मात् उल्कापात को देखकर विरक्त हो गया और सुमंदर नामक जिनेन्द्र भगवान के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। ‘मुनिराज सुप्रतिष्ठ ने ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों का अध्ययन किया और सर्वतोभद्र को आदि लेकर सिंहनिष्क्रीडितपर्यन्त अनेकों व्रतों का अनुष्ठान किया। हे यादव! श्रवणमात्र से ही पापों को नष्ट करने वाले उन उपवासों की महाविधि को तुम स्थिर मन कर के सुनो। ऐसा हरिवंश पुराण में बताया है। यहाँ इन व्रतों की विधि न बतलाकर केवल कुछ नाममात्र दिये जाते हैं। विशेष जिज्ञासुओं को हरिवंश पुराण में ही देखना चाहिए। ‘सर्वतोभद्र, वसंतभद्र, महासर्वतोभद्र, त्रिलोकसार, वङ्कामध्य, मृदंगमध्य, मुरजमध्य, एकावली, द्विकावली, मुक्तावली, रत्नावली, रत्नमुक्तावली, कनकावली, द्वितीय रत्नावली, सिंहनिष्क्रीडित, मध्यम सिंहनिष्क्रीडित तथा उत्तम और जघन्य सिंहनिष्क्रीडित, नंदीश्वरपंक्ति, मेरूपंक्ति, विमानपंक्ति, शातकुम्भ, चान्द्रायण, सप्तसप्तमतपोविधि, अष्टअष्टम, नवनवमादि, आचाम्लवर्धन, श्रुतविधि, दर्शनशुद्धि, तप:शुद्धि, चारित्रशुद्धि, एककल्याण, पंचकल्याण, शीलकल्याण विधि, भावनाविधि, पंचविंशति-कल्याण भावनाव्रत, दु:खहरण कर्मक्षय, जिनेंद्रगुण संपत्ति, दिव्यलक्षणपंक्ति, धर्मचक्रविधि, परस्पर कल्याण, परिनिर्वाण, प्रातिहार्य प्रसिद्धि, विमानपंक्ति आदि व्रत। ‘इस प्रकार विधिवत् इन व्रतों के कर्ता सुप्रतिष्ठ मुनिराज ने उस समय निर्मल सोलहकारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया। जब आयु का अंत आया, तब समाधि धारण कर एक महीने का संन्यास लेकर प्राणों का त्याग किया और जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र पद प्राप्त कर लिया। वहाँ पर तेंतीस सागर की आयु थी और एक हाथ ऊँचा शरीर था। उनको साढ़े सोलह माह के अंत में एक बार श्वास का ग्रहण होता है। तेंतीस हजार वर्ष बीत जाने पर एक बार मानसिक आहार था। इस प्रकार सुखसागर में निमग्न उन अहमिंद्र ने वहाँ की आयु को समाप्त कर दिया।
गर्भ और जन्म
कुशार्थ देश के शौरीपुर नगर में हरिवंशी राजा शूरसेन रहते थे। उनके वीर नाम के पुत्र की धारिणी रानी से अंधकवृष्टि और नरवृष्टि नाम के दो पुत्र हुए। अंधकवृष्टि की रानी का नाम सुभद्रा था। इन दोनों के समुद्रविजय, स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल, धारण, पूरण, पूरितार्थीच्छ, अभिनंदन और वासुदेव ये दस पुत्र थे तथा कुन्ती और माद्री नाम की दो पुत्रियाँ थीं। समुद्रविजय की रानी का नाम शिवादेवी था। पिता के द्वारा प्रदत्त राज्य का श्रीसमुद्रविजय महाराज धर्मनीति से संचालन करते थे। छोटे भाई वसुदेव की रोहिणी रानी से बलभद्र एवं देवकी रानी से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। जब जयंत विमान के इन्द्र की आयु छह मास की शेष रह गई, तब काश्यपगोत्री, हरिवंश शिखामणि राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी के आंगन में देवोें द्वारा की गई रत्नों की वर्षा होने लगी। कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वह अहमिंद्र का जीव रानी के गर्भ में आ गया। अनंतर नवमास के बाद श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में ब्रह्मयोग के समय तीन ज्ञान के धारक भगवान का जन्म हुआ। इंद्रादि देवोें ने जन्मोत्सव मनाकर तीर्थंकर शिशु का ‘नेमिनाथ’ नामकरण किया। भगवान नमिनाथ के बाद पाँच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमिजिनेन्द्र उत्पन्न हुये हैं। उनकी आयु एक हजार वर्ष की थी, शरीर दश धनुष ऊँचा था। प्रभु के शरीर का वर्ण नील कमल के सदृश होते हुये भी इतना सुन्दर था कि इंद्र ने एक हजार नेत्र बना लिये, फिर भी रूप को देखते हुये तृप्त नहीं हुआ था। हरिवंशपुराण में नेमिनाथ तीर्थंकर का जन्म सौर्यपुर में ही माना है। पश्चात् देवों द्वारा रची गई द्वारावती नगरी में श्रीकृष्ण आदि के जाने की बात कही है। कारणवश श्रीकृष्ण तथा होनहार श्री नेमिनाथ तीर्थंकर के पुण्य प्रभाव से इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर ने एक सुन्दर ‘द्वारावती’ नामक नगरी की रचना की। भगवान देवों द्वारा आनीत दिव्य भोगसामग्री का अनुभव करते हुये चिरकाल तक द्वारावती में रहे। किसी एक दिन मगध देश के कुछ व्यापारी उस नगरी में आ गये और वहाँ से श्रेष्ठरत्न खरीद कर अपने देश में ले गये तथा अर्धचक्री (प्रतिनारायण) राजा जरासंध को रत्न भेंट किये। राजा ने उन रत्नों को देखकर महान आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछा कि आप ये रत्न कहाँ से लाये हो ? उत्तर में उन लोगों ने श्रीकृष्ण और भगवान नेमिनाथ के वैभव का वर्णन कर दिया। यह सुनते ही जरासंध कुपित होकर युद्ध करने को तैयार हो गया। ‘शत्रु चढ़कर आ गया है’ यह समाचार सुनकर श्रीकृष्ण को जरा भी चिंता नहीं हुई। वे भगवान नेमिनाथ के पास गये और बोले कि आप इस नगर की रक्षा कीजिये। सुना है कि राजा जरासंध हम लोगों को जीतना चाहता है सो मैं उसे आपके प्रभाव से घुने हुये जीर्णवृक्ष के समान शीघ्र ही नष्ट किये देता हूँ। श्रीकृष्ण के वचन सुनकर प्रभु ने अपने आप अवधिज्ञान से विजय को निश्चित जानकर मुस्कुराते हुये ‘ओम्’ शब्द कह दिया अर्थात् अपनी स्वीकृति दे दी। श्रीकृष्ण भी प्रभु की मुस्कान से अपनी विजय को निश्चित समझकर समस्त यादव और पांडव आदिकों के साथ कुरुक्षेत्र में आ गये। इस भयंकर युद्ध में राजा जरासंध ने कुपित होकर चक्र श्रीकृष्ण पर चला दिया। वह चक्ररत्न भी श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा देकर उनकी दाहिनी भुजा पर ठहर गया। बस क्या था, श्रीकृष्ण ने उसी चक्र से जरासंध का काम समाप्त कर दिया और तत्क्षण ही देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए और अर्धचक्री (नारायण) हो गये। अनंतर बड़े हर्ष से इन लोगों ने द्वारावती में प्रवेश किया और वहाँ पर राज्याभिषेक को प्राप्त हुए। ‘किसी एक दिन कुबेर द्वारा भेजे हुए वस्त्राभरणों से अलंकृत युवा श्री नेमिकुमार, बलदेव तथा नारायण आदि कोटि-कोटि यादवों से भरी हुई कुसुमचित्रा नाम की सभा में गये। राजाओं ने अपने-अपने आसन छोड़ प्रभु के सन्मुख आकर उन्हें नमस्कार किया। श्रीकृष्ण ने भी आकर उनकी अगवानी की। तदनंतर श्रीकृष्ण के साथ वे उनके आसन को अलंकृत करने लगे। वहाँ वार्तालाप के प्रसंग में बलवानों की गणना छिड़ने पर किसी ने अर्जुन को, किसी ने युधिष्ठिर को इत्यादि रूप से किसी ने श्रीकृष्ण को अत्यधिक बलशाली कहा। तरह-तरह की वाणी सुनकर बलदेव ने लीलापूर्ण दृष्टि से भगवान की ओर देखकर कहा कि तीनों जगत में इनके समान दूसरा बलवान् नहीं है, ये गिरिराज को अनायास ही वंâपायमान कर सकते हैं, यथार्थ में ये जिनेंद्र हैं इनसे उत्कृष्ट दूसरा कौन हो सकता है ? इस प्रकार वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने भगवान से कहा-भगवन्! यदि आपके शरीर का ऐसा उत्कृष्ट बल है तो बाहुयुद्ध में उसकी परीक्षा क्यों न ली जाये ? भगवान ने कहा-हे अग्रज! यदि आपको मेरी भुजाओं का बल जानना ही है तो मल्लयुद्ध की क्या आवश्यकता है ? सहसा इस आसन से मेरे इस पैर को ही विचलित कर दीजिये। श्रीकृष्ण उसी समय कमर कसकर जिनेंद्र भगवान को जीतने की इच्छा से उठ खड़े हुए, परन्तु पैर का चलाना तो दूर ही रहा, वे एक अंगुली को भी नहीं हिला सके। उसी समय इन्द्र का आसन वंâपित होने से देवों सहित इन्द्र ने आकर भगवान की अनेकों स्तुतियों से स्तुति और पूजा की। तदनंतर सब अपने-अपने महलों में चले गये। नेमिनाथ का वैराग्य-किसी समय मनोहर नामक उद्यान में भगवान नेमिनाथ तथा सत्यभामा आदि जलकेलि कर रहे थे। स्नान के अनंतर श्री नेमिनाथ ने सत्यभामा से कहा-हे नीलकमल के समान नेत्रों वाली! तू मेरा यह स्नान का वस्त्र ले। सत्यभामा ने कहा, मैं इसका क्या करूँ ? नेमिनाथ ने कहा कि तू इसे धो डाल। तब सत्यभामा कहने लगी कि क्या आप श्रीकृष्ण हैं ? वह श्रीकृष्ण, जिन्होंने कि नागशय्या पर चढ़कर शाङ्र्ग नाम का धनुष अनायास ही चढ़ा दिया था और दिग्दिगंत को व्याप्त करने वाला शंख पूरा था? क्या आपमें यह साहस है? यदि नहीं है तो आप मुझसे वस्त्र धोने की बात क्यों करते हैं ? नेमिनाथ ने कहा कि ‘मंै यह कार्य अच्छी तरह कर दूँगा’ इतना कहकर वे आयुधशाला में पहुँच गये। वहाँ नागराज के महामणियों से सुशोभित नागशय्या पर अपनी ही शय्या के समान चढ़ गये और शाङ्र्ग धनुष चढ़ाकर समस्त दिशाओं के अंतराल को रोकने वाला शंख पूंâक दिया। उस समय श्रीकृष्ण अपनी कुसुमचित्रा सभा मेें विराजमान थे। वे सहसा ही यह आश्चर्यपूर्ण काम सुनकर व्यग्र हो उठे। बड़े आश्चर्य से विंâकरों से पूछा कि यह क्या है ? विंâकरों ने भी पता लगाकर सारी बात बता दी। उस समय अर्धचक्री श्रीकृष्ण ने विचार करते हुये कहा कि आश्चर्य है, बहुत समय बाद कुमार नेमिनाथ का चित्त राग से युक्त हुआ है। अब इनका विवाह करना चाहिए। वे शीघ्र ही राजा उग्रसेन के घर स्वयं पहुँच गये और रानी जयावती से उत्पन्न राजीमति कन्या की श्रीनेमिनाथ के लिए याचना की। राजा उग्रसेन ने कहा-हे देव! आप तीन खण्ड के स्वामी हंै अत: आपके सामने हम लोग कौन होते हैं ? शुभ मुहूर्त में विवाह निश्चित हो गया।
तप
तदनंतर देवोें द्वारा आनीत नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से सुसज्जित भगवान नेमिनाथ, समान वयवाले अनेक मंडलेश्वर राजपुत्रों से घिरे हुये चित्रा नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर दिशाओं का अवलोकन करने के लिए निकले। वहाँ उन्होंने करुणस्वर से चिल्लाते हुये और इधर-उधर दौड़ते हुए, भूख-प्यास से व्याकुल हुए तथा अत्यंत भयभीत हुए, दानदृष्टि से युक्त मृगों को देख दयावश वहाँ के रक्षकों से पूछा कि यह पशुसमूह क्यों इकट्ठा किया गया है ? नौकरों ने कह दिया कि आपके विवाह में ये मारे जायेंगे। उसी समय श्री नेमिकुमार को पशुओं के अत्याचार के प्रति करुणा जाग्रत हो गई और शीघ्र ही भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया और विरक्तचित्त हुए लौटकर अपने घर वापस आ गये। अपने अनेक पूर्वभवों का स्मरण कर भयभीत हो गये। अब तक प्रभु के कुमार काल के तीन सौ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। तत्क्षण ही लौकांतिक देवों से पूजा को प्राप्त हुए प्रभु को देवों ने देवकुरू नाम की पालकी पर बिठाया और सहस्राम्र वन में ले गये। श्रावण कृष्ण षष्ठी के दिन सायंकाल के समय तेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा से विभूषित हो गये। उसी समय उन्हें चौथा मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। राजीमती ने भी प्रभु के पीछे तपश्चरण करने का निश्चय कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि शरीर की बात तो दूर ही रही, वचनमात्र से भी दी हुई कुलस्त्रियों का यही न्याय है। पारणा के दिन द्वारावती नगरी में राजा वरदत्त ने पड़गाहन करके प्रभु को आहार दिया जिसके फलस्वरूप पंचाश्चर्य को प्राप्त हो गये अर्थात् देवों ने साढ़े बारह करोड़ रत्न वर्षाएँ। पुष्पवृष्टि, रत्नवृष्टि, मन्द सुगन्ध वायु, दुन्दुभी बाजे और अहोदानं आदि प्रशंसा वाक्य होने लगे।
केवलज्ञान और मोक्ष
इस प्रकार तपश्चर्या करते हुये प्रभु के छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन व्यतीत हो गये, तब वे रैवतक पर्वत पर पहुँचे। तेला का नियम लेकर किसी बड़े भारी बाँस वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रात:काल के समय प्रभु को लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान प्रकट हो गया। उनके समवसरण में वरदत्त को आदि लेकर ग्यारह गणधर थे, अठारह हजार मुनि, राजीमती आदि चालीस हजार आर्यिका एँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। भगवान की सभा में बलभद्र और श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष आये, धर्म का स्वरूप सुना और अपने सभी भव-भवांतर पूछे। किसी समय भगवान की दिव्यध्वनि से यह बात मालूम हुई कि ‘द्वीपायन मुनि के क्रोध के निमित्त से इस द्वारावती नगरी का विनाश होगा’ इस भावी दुर्घटना को सुनकर कितने ही महापुरुषों ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इस प्रकार प्रभु नेमिनाथ ने छह सौ निन्यानवे वर्ष, नौ महीना और चार दिन तक विहार किया था।
अनन्तर गिरनार पर्वत पर आकर विहार छोड़कर पाँच सौ तेतीस मुनियों के साथ एक महीने का योग निरोध करके आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के प्रारम्भ में ही प्रभु ने अघातिया कर्मों का नाशकर मोक्षपद प्राप्त कर लिया। उसी समय इंद्रादि देवों ने आकर बड़ी भक्ति से प्रभु का परिनिर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया। वे श्री नेमिनाथ भगवान हमारे अंत:करण को पूर्णशांति प्रदान करें।