सुख खजाने में नहीं
सच्चा सुख बाहर में खोजने से नहीं मिलता। वस्तुओं में सुख नहीं अपितु सुख का भ्रम है। वस्तुओं का आकर्षण आत्मा को पतन के रास्ते पर ले जाता है। आत्मा का पर वस्तुओं में सुख मानकर आकर्षित होना अज्ञान कहलाता है। जब तक इस अज्ञान भाव का नाश नहीं होता, तब तक आत्मा भी सुखी नहीं बनता। सच्चा सुख खजाने में नहीं, निजात्मा में खो जाने में मिलता है। अतः खजाने की चाह न कर निजात्मा में खो जाने की चाह करना चाहिये। ___ घर तो सभी को मिला है। लेकिन मोहरूपी अंधकार में अंधे मनुष्यों को अपने आत्मारूपी निज घर का दर्शन नहीं होता। अंधकार में आँख होने पर भी दिखाई नहीं देता। अतः एक छोटा-सा टिमटिमाता हुआ दीप अगर ईजाद कर लिया जाये, तो घर में व्याप्त अंधकार नाश को प्राप्त हो सकता है। मनुष्य घर बनाने में जुटा है, किन्तु दीप जलाने का पुरुषार्थ नहीं करता।
द्वीप जलाने के लिये हमें बाती और तेल की भी आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान की बाती और पुण्य का तेल ही दीप को जलाने में समर्थ हैं। पुण्यहीन व्यक्ति धर्म की आराधना नहीं कर पाता। पुण्य सदैव धर्मात्मा से मिलन कराता है। पुण्य धर्म की शरण में पहुँचाने के लिये नाव की तरह होता है। जिन्हें संसार सागर से पार होने की लगन लगी है, वे महान पुरुष शुद्धात्म भावना को प्राप्त होकर पुण्य को साधते हैं। ऐसा पुण्य ही धर्म का साधक बनकर वस्तु स्वरूप को उपलब्ध कराता है।
पुण्य का फल अरिहन्त पद की प्राप्ति होना है। अर्थात् जिसने शुद्धात्म स्वरूप को साधने के लिये बहिरंग कारणभूत पुण्य को भी नहीं छोड़ा। अपितु पाप को छोड़ने के लिये पुण्य क्रिया को स्वीकार किया। शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति के लिये पुण्य साधक शुभोपयोग को स्वीकार किया। ऐसे शुद्धात्म स्वरूप को साधने वाले पुण्यात्मा भव्यजीवों को ही अरिहन्त पद की प्राप्ति होती है। सर्वथा पुण्य से अरिहन्त पद की प्राप्ति कहना मिथ्या है, और सर्वथा बहिरंग कारणभूत पुण्य को हेय कर अरिहन्त पद की प्राप्ति कहना भी मिथ्या
है। अतः अंतरंग और बहिरंग दोनों कारणों के मिलने से ही अरिहंत बनते हैं। __आदमी का मन मोबाइल की तरह है। आदमी जहाँ होता है अपने प्रिय की याद आने पर, अपने आवश्यक कार्य को करने के लिये, वहीं से मोबाइल लगा देता है, और अपने कार्य को सम्पन्न कर आनंदित होता है। इसी प्रकार आदमी का मन है, जैसे ही अपने प्रिय की याद आती है तो उसी की स्मृति में खो जाता है, मन का तार जुड़ जाता है और प्रेम की बातें भी प्रारंभ हो जाती हैं, किन्तु जब यथार्थ के धरातल पर उतरता है तो प्रिय से अपने को पृथक् पाने के कारण याद में दुःखी होता है, अतः मन रूपी मोबाइल जितने समय तक बंद रखा जाये, जीवन में उतना ही श्रेयस्कर है।
आज आदमी के जीवन में तनाव, अवसाद, कुंठा का भाव अक्सर देखा जाता है, और उसका एक ही कारण है मन की असीम आकांक्षायें। अगर आदमी आकांक्षाओं से मन को रिक्त करने का प्रबल पुरुषार्थ करे, तो सुख का स्वाद जीवन में सहज ही प्राप्त हो सकता है। आकांक्षायें आकुलता को जन्म देती हैं, और दुःख का मूल कारण आकुलता ही है। आकुलता की निवृत्ति के लिये हमें आकांक्षाओं से निर्वत्त होना होगा। वस्त के त्याग से ही आकांक्षा समाप्त हो सकती है, अतः त्यागभाव को जीवन में अपनाना होगा।
राग-द्वेष में जीना अपने आत्मसुख को ही खोना हे। आत्म सुख से बड़ा अनात्म सुख नहीं हो सकता। पदार्थ से सुख की कामना पागलपन है। पदार्थ में सुख नहीं अपितु पदार्थ को त्यागकर परमार्थ को पाने में ही सच्चा सुख है। आदमी को सच्चे सुख की पहचान नहीं है, इसलिये पदार्थ में अच्छा-बुरा का भेदभाव करता है। हमें ज्ञान को सम्यक् बनाना होगा, जिससे हम सच्चे की पहचान कर सकें जब तक मनुष्य मोबाइल की तरह मन को अपनाये रहेगा, तब तक स्वयं से साक्षात्कार नहीं किया जा सकता।
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