हमारा राष्ट्रीय चिह्न और सम्राट् अशोक
हमारा राष्ट्रीय चिह्न जिसे हमने सम्राट अशोक की विरासत के रूप में प्राप्त किया है। यह चिह्न सम्राट् अशोक की शिक्षाओं की स्मृति को ताजा करता ही है, वरन् इस चिह्न में हमारी असीम सांस्कृतिक विरासत भी झलकती है। सम्राट् अशोक के स्तम्भों में जैन तीर्थंकरों के चिह्न अंकित हैं। धर्मचक्र में २४ आरे तीर्थंकरों की संख्या २४ के प्रतीक हैं। चतुर्मुखी सिंह भगवान महावीर का चिह्न है। बैल, हाथी और घोड़ा क्रमश: भगवान् ऋषभदेव, अजितनाथ और संभवनाथ (पहले, दूसरे, तीसरे) तीर्थंकर के चिह्न हैं। भगवान महावीर और अहिंसा धर्म के संस्कारों के कारण अशोक के हृदय में तीर्थंकरों और जैनधर्म के प्रति बहुत सम्मान था। अहिंसा के गहन संस्कारों के कारण ही कलिंग के युद्ध में भीषण रक्तपात देखकर उसका हृदय तिलमिला उठा और उसने भविष्य में रक्तपात वाले युद्ध न करने की घोषणा कर दी। सम्राट् अशोक आरम्भिक काल में जैन थे। उनके पिता बिन्दुसार, पितामह चन्द्रगुप्त आदि भी दिगम्बर जैनधर्म की उपासना करते थे, उन्होंने बाद में बौद्धधर्म स्वीकार किया। उनके उत्तराधिकारियों ने जैनधर्म की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने अधिकांश शिलालेख प्राकृत भाषा में खुदवाये थे।