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सुनना एक कला है


सुनना एक कला है। सुनना मानव जीवन की उपलब्धि है। सुनना मानव की विशिष्ट जीवन शैली है। सुनना ज्ञान विकास की परिचायक है। श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ जीवन के लिये सुनना आत्मज्ञान की अभिव्यक्ति है। सद्गुणों के बाबत् सुनना ही धर्मश्रवण है।

सुनना अच्छाई भी है और बुराई भी। जब अपने आत्मकल्याण एवं चारित्रिक, नैतिक विकास के लिये सुना जाता है, तो सुनना अच्छाई कहलाती है। पवित्र लक्ष्य के साथ सुनने वाला मनुष्य धरती पर देवता की तरह होता है। जो स्वयं अच्छाई को ग्रहणकर सम्पूर्ण मानव समाज एवं प्राणियों को सद्मार्ग पर ले जाता है, किन्तु जो मात्र दूसरे की निंदा, चुगली, बुराई या अवगुणों को सुनने में रस लेता है वह मन से गन्दा है। जिसका मन गंदा होता है उसके वचन तथा शरीर की चेष्टायें भी विपरीत होती हैं। इसलिये सद्गुणों के बाबत् सुनना अच्छाई किन्तु दुर्गुणों के बाबत् सुनना बुराई है।

अच्छाईयाँ सुनने से जीवन विराटता को प्राप्त होता है, जबकि बुराईयाँ जीवन को संकुचित करती हैं। अज्ञानी जनों को सदैव गुणों की चर्चा सुननी और करनी चाहिये, जिससे अज्ञान अंधकार समाप्त हो सके, किन्तु भूलकर भी अवगुणों को नहीं सुनना चाहिये अन्यथा अज्ञान अंधकार और भी घना हो जायेगा। ज्ञानीजनों को आत्मगुणों के बाबत् सुनकर हर्षित नहीं होना चाहिये, तथा अवगुणों को सुनकर अपना आत्मचिंतन करना चाहिये। अवगुण सुनकर विचलित नहीं होना ही सच्चा ज्ञानीपना है।

अच्छा सुनने के बाद यदि जीवन में परिवर्तन होता है तो ज्ञानी का लक्षण है। हमें मात्र बाह्य वेष और भेष ही नहीं अपितु अपना हार्दिक परिवेष भी बदलना चाहिये। हृदय परिवर्तन ही वास्तव में जीवन परिवर्तन है। हृदय परिवर्तन से मनुष्य परमात्मा तुल्य हो जाता है।


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