सिंह निष्क्रीडित व्रत


सिंह निष्क्रीड़ित विधि-सिंह निष्क्रीडित व्रत जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार है। इनमें से प्रथम ही जघन्य व्रत की विधि को बतलाते है- जघन्य सिंह निष्क्रीडित व्रत विधि-इसमें पहले एक उपवास एक पारणा और दो उपवास एक पारणा करना चाहिए। फिर एक उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, यहाँ अंत में पाँच का अंक आ जाने से पूर्वार्ध समाप्त हो जाता है। आगे उल्टी संख्या से पहले पाँच उपवास एक पारणा करना चाहिए। फिर चार उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा करना चाहिए। इस व्रत में समस्त अंकों का जोड़ साठ होता है। इसलिए साठ उपवास होते हैं और स्थान बीस हैं इसलिए पारणाएँ बीस होती हैं। यह व्रत अस्सी दिन में पूर्ण होता है। इसका प्रस्तार यह है-
पारणा -१ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
उपवास -१ २ १ ३ २ ४ ३ ५ ४ ५ ५ ४ ५ ३ ४ २ ३ १ २ १

मध्यम सिंह निष्क्रीडित व्रत-

पूर्वोक्त विधि में पाँच उपवास तक था ऐसे ही विधि से इसमें नौ उपवास तक बढ़ना चाहिए। उसकी विधि नीचे लिखे प्रस्तार से समझना चाहिए। इस व्रत में १५३ उपवास और ३३ पारणाएँ होने से १८६ दिन में पूर्ण होता है।

मध्यम सिंह निष्क्रीडित व्रत का प्रस्तार-

पारणा-१ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
उपवास-१ २ १ ३ २ ४ ३ ५ ४ ६ ५ ७ ६ ८ ७ ८ ९
पारणा-१ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
उपवास-८ ७ ८ ६ ७ ५ ६ ४ ५ ३ ४ २ ३ १ २ १

उत्कृष्ट सिंह निष्क्रीडित विधि-

उत्कृष्ट सिंह निष्क्रीडित व्रत में एक से लेकर पन्द्रह तक के अंकों का प्रस्तार बनाना चाहिए और उसके शिखर में १६ का अंक लिखना चाहिए। इसके बाद उल्टे क्रम से एक तक के अंक लिखना चाहिए। इस व्रत में ४९६ उपवास और ६१ पारणाएँ होती हैं। यह व्रत ५५७ दिन में पूर्ण होता है। इसका प्रस्तार निम्न प्रकार है-
पारणा-१ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
उपवास-१ २ १ ३ २ ४ ३ ५ ४ ६ ५ ७ ६ ८ ७ ९ ८ १० ९ ११ १० १२ ११
पारणा-१ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
उपवास-१३ १२ १४ १३ १५ १४ १५ १६ १५ १४ १५ १३ १४ १२ १३
पारणा-१ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
उपवास-११ १२ २० ११ ९ १० ८ ९ ७ ८ ६ ७ ५६ ४ ५ ३ ४ २ ३ १ २ १

व्रत का फल-

इस व्रत के फलस्वरूप मनुष्य वङ्कावृषभ नाराच संहनन का धारक, अनन्तवीर्य से सम्पन्न, सिंह के समान निर्भय और अणिमा आदि गुणों से युक्त होता हुआ शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है। भगवान महावीर के जीव ने ‘नन्दन’ मुनिराज के भव में कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली और सिंह निष्क्रीडित आदि अनेकों व्रतों का अनुष्ठान किया था। उसी प्रकार भगवान नेमिनाथ के जीव ने भी तीर्थंकर से तृतीय भव पूर्व ‘सुप्रतिष्ठ’ मुनिराज की अवस्था में इन कनकावली आदि अनेकों व्रतों का अनुष्ठान किया था और आज तक बहुत से महापुरुष इन व्रतों का अनुष्ठान करते रहते हैं। इस व्रत में नवदेवता की जाप्य एवं श्रावक-श्राविकाएँ नवदेवता की पूजा कर सकते हैं।
मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।