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 प्राचीन जैन आचार्य परंपरा 

३ अनुबद्ध केवली

३ अनुबद्ध केवली ( केवली भगवान गौतम स्वामी – सुधर्मा स्वामी – जम्बू स्वामी ) 

श्री यति वृषभाचार्य ने भगवान महावीर के निर्वाण के बाद केवली, श्रुत, केवली, ११ अंगधारक, दश अंग के एक देशधारक तथा आचारांग धारक आचार्यों का कथन तिलोयपण्णत्ति खण्ड दो में गाथा १४८८ से १५०४ तक विस्तार से किया है।

भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त करते ही गणधर गौतम स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई गौतम स्वामी के मोक्ष जाते ही सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। सुधर्मा स्वामी के निर्वाण प्राप्त होने पर जम्बू स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जम्बू स्वामी इस भरत क्षेत्र के अंतिम केवली थे। उनके बाद कोई प्रत्यक्ष ज्ञानधारक केवली भरत क्षेत्र में नहीं हुआ। भगवान महावीर के बाद इन तीनों केवलियों का समय ६२ साल रहा। जम्बू स्वामी के मोक्षगमन के बाद इस भरत क्षेत्र से केवलियों का अभाव हो गया। इसके बाद भी श्रुतकेवलियों के रहते जिनवाणी का ग्यारहअंग और चौदहपूर्व का ज्ञान यहाँ अक्षुण बना रहा।

नाम                       केवलीकाल

1. गौतमस्वामी 12 वर्ष

2. सुधर्मास्वामी 12 वर्ष

3. जम्बूस्वामी         12 वर्ष

कुल                36 वर्ष


पांच श्रुतकेवली ( विष्णुनन्दि, नन्दि मित्र, अपराजित, गोवर्धनाचार्य, भद्रबाहुस्वामी ) 

पांच श्रुतकेवली में क्रमश: विष्णुनन्दि, नन्दि मित्र, अपराजित, गोवर्धनाचार्य, व अन्तिम भद्रबाहुस्वामी हुए। इन सभी का काल तिलोयपण्णत्ति में १०० वर्ष का बताया गया है। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी के समय में कई ऐतिहासिक घटनाएं घटीं। उत्तर भारत की दुर्भिक्ष की आगत घटना को अपने निमित्त ज्ञान से जानकर उन्होंने समस्त श्रमण संघ को दक्षिण की ओर बिहार करने की सूचना भेजी। उनका आदेश प्राप्त कर अधिकांश श्रमण जन इनके ही साथ विहार कर दक्षिण भारत चले गये। फिर भी कितने ही श्रमण उत्तर में ही रह गए। वह दुर्भिक्ष के चलते अपनी चर्या निर्दोषरूप से पालन नहीं कर सके। उत्तर में रहे श्रमणजन न तो अपनी दीक्षा छेदन कर श्रावक (गृहस्थ) ही बने और न भगवान महावीर के परिपालित मार्ग पर दृढ़ रह सके। यहीं से भगवान महावीर की परम्परा दो भागों में विभाजित हो गई जिन्हें आगे दिगम्बर (मूल परम्परा) व श्वेताम्बर पंथी कहा जाने लगा। दूसरी घटना सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य का दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर अपने दीक्षा गुरु के साथ ही दक्षिण जाने की है। चन्द्रगुप्त मौर्य ऐसे अंतिम सम्राट् थे जिन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की, उनके बाद फिर किसी शासक, नरेश या राजा ने दीक्षा नहीं ली। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने श्रवणबेलगोल में अपने शिष्य विशाखाचार्य को संघभार सौंप कर उन्हें संघ सहित बिहार की आज्ञा दी और स्वयं नवदीक्षित शिष्य चन्द्रगुप्त (मुनि प्रभासचन्द्र) को अपने पास रोककर वहीं समाधिपूर्वक मरण संकल्प किया। भद्रबाहु स्वामी के स्वर्गस्थ होने के साथ ही श्रुतकेवलियों का भी यहाँ अभाव हो गया।

    नाम   श्रुत केवलीकाल

1. विष्णुनन्दि    14 वर्ष

2. नन्दिप्रिय   22 वर्ष

3. अपराजित   19 वर्ष

4. गोवर्धन   29 वर्ष

5. भद्रबाहु  


ग्यारह अंग व दशपूर्वधारक ( विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, घृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव व सुधर्म )

श्रुतकेवलियों के अभाव के बाद परोक्ष श्रुत का भी अभाव हो गया। सम्पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाताओं के अभाव में तब ग्यारह अंग दश पूर्व के ज्ञाता आचार्य ही रह गए। इन आचार्यों में प्रमुख हैं विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, घृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव व सुधर्म। समय चक्र आगे बढ़ रहा था और श्रुतधारा धीरे-धीरे क्षीण हो रही थी। इसी क्रम में भद्रबाहु स्वामी के समकालीन आचार्य दोलामस व कल्याण मुनि के बारे में इतिहास में प्रचुरता से वर्णन हैं। 

यूनानी शासक सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण ३२७ ई. पू. में किया। वह भारत आकर कुछ राज्यों में विजय प्राप्त करके वापस लौट रहा था, तब उसने तक्षशिला के पास एक उद्यान में बहुत से नग्न जैन मुनियों को तपस्यारत देखा। उसने अपने एक दूत को भेजकर मुनिराजों को बुलवाना चाहा लेकिन मुनिराज नहीं आये। तब सिकन्दर स्वयं उस स्थान पर पहुँचा और दिगम्बर मुनिराजों के तप को देखकर बहुत प्रभावित हुआ। उनमें से एक कल्याण मुनि थे, जिनसे सिकन्दर ने यूनान में धर्म प्रचार करने की प्रार्थना की और उसके बहुत आग्रह से कल्याण मुनि उसके साथ गए। नग्न रहना, भूमि शोधन कर चलना, हरितकाय का विराधन न करना, किसी का निमन्त्रण स्वीकार न करना इत्यादि जिन नियमों का पालन मुनि कल्याण और उनके सभी मुनि गण करते थे, उनसे यूनानी बहुत प्रभावित थे। मुनि कल्याण ज्योतिष शास्त्र में निष्णात थे। उन्होंने बहुत—सी भविष्यवाणियाँ की थीं और सिकन्दर की मृत्यु को भी उन्होंने पहले से घोषित कर दिया था। इन दिगम्बर जैन श्रमणों की शिक्षा का यूनानियों पर विशेष प्रभाव पड़ा। यूनान के एंथेस शहर में कल्याण मुनि का समाधि स्थल बना है।


ग्यारह अंग एवं चौदह पूर्व के एकदेश धारी

श्रुतज्ञान के एक देश धारक आचार्यों में क्रमश: नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, कंस क्रम से हुए |


४ आचारांग अंगधारक ( सुभद्र, यशोधर, यशोबाहु, लोहार्य )

श्रुतज्ञान के एक देश धारक आचार्यों  के बाद आचारांग अंगधारक सुभद्र, यशोधर, यशोबाहु, लोहार्य का उल्लेख है।


आचार्य अर्हद्बली

आचार्य अर्हद्बली-इनका दूसरा नाम गुप्तिगुप्त भी था यह पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी थे और अष्टाँग महानिमित्त के ज्ञाता संघ के निग्रह-अनुग्रह करने में समर्थ आचार्य थे। इनके संघ में उस समय बड़े विद्वान् और तपस्वी श्रमण थे। आचार्य अर्हद्बली पाँच वर्षों के अंत में सौ योजन में प्रवास करने वाले श्रमणजनों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक बार इन श्रमणों के आने पर उन्होंने पूछा कि क्या श्रमणजन आ गए तो आने वाले श्रमणों ने कहा कि हम अपने-अपने संघ के साथ आ गए। इस उत्तर से आचार्य महाराज ने अनुमान लगाया कि यह सब अपनी-अपनी पहचान पृथक् रूप से स्थापित करना चाहते हैं। तब उन्होंने जो श्रमण जिस प्रदेश से आये थे उन्हें उसी अनुरूप किसी को नन्दी, वीर, अपराजित, देव, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों से संघ स्थापित किए। आचार्य अर्हद्बली को मुनिसंघ प्रवर्तक कहा जाता है। आचार्य धरसेन जो उस समय गिरनार की कन्दराओं में निवास करते थे, उनके द्वारा आचार्य अर्हद्बली के दो योग्य कुलीन और विद्वान् युवा श्रमण अपने पास बुलाने का संदेश भेजा गया था। इस संदेश के मिलने पर उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबली नामक अपने दो योग्यतम शिष्यों को गिरनार भेजा।


आचार्य गुणधर

आचार्य गुणधर स्वामी| आपका समय काल ई.पू. पहली शताब्दी निर्धारित की गयी है| आपका ‘कषाय पाहुड़’ नाम से रचित महाग्रंथ/जिनागम, जैन श्रावकों के द्वारा सिद्धांत ग्रंथ वत पूज्यता को प्राप्त है | 


आचार्य धरसेन स्वामी

मुनि पुंंगव आचार्य धरसेन सौराष्ट्र के गिरनार पर्वत की चन्द्रगुहा नामक गुफा में निवास करते थे। यह अष्टांग महानिमित्त के पारगामी विद्वान् थे। जब इन्होंने जाना कि उनका काल समय भी अधिक नहीं है और जो ज्ञान उन्हें परम्परा से प्राप्त है वह आगे चलकर विलुप्त होता जाएगा। यह विचार कर उन्होंने अपना ज्ञान योग्य शिष्य को देकर उनके द्वारा लिपिबद्ध कराने का सुविचार किया। उन्होंने एक ब्रह्मचारी के द्वारा दक्षिण में प्रवास कर रहे आचार्य अर्हद्बली के दो योग्य श्रमणों को अपने पास बुलाने के लिए संदेश भेजा। उनकी इच्छा को समझकर आचार्यश्री ने दो योग्य श्रमण पुष्पदंत और भूतबली उनके पास भेज दिए। दोनों ने आकर उनके चरणों में विनयपूर्वक नमन कर अपने आने की सूचना दी। आचार्य धरसेन ने उन दोनों को भलीभाँति परख कर यह समझ लिया कि यह दोनों युवा श्रमण उनकी कसौटी पर पूर्णरूपेण खरे उतरे हैं। तब उन्होंने उन्हें अपने समस्त ज्ञान की शिक्षा दी और उस प्राप्तज्ञान को लिपिबद्ध करने की आज्ञा दी, जिससे यह जिनवाणी आगे सदा-सदा के लिए जीवन्त रहे। जिनवाणी का यह लेखन आचार्य धरसेन के ज्ञान और उनकी इच्छा निर्देशन से हुआ, इसलिए उन्हें श्रुत-शास्त्र का प्रणेता कहा जाता है।


आचार्य पुष्पदंत और भूतबली

देश, कुल, जाति से विशुद्ध, शब्द-अर्थ के ग्रहण, धारण करने में समर्थ यह दोनों ही श्रमण श्रेष्ठ आचार्य अर्हद्बली के शिष्य थे। दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश के बेणातट नगर में युग प्रतिक्रमण के समय गिरनार से आचार्य धरसेन का संदेश प्राप्त होने पर यह अपने गुरु की आज्ञा से गिरनार आचार्य धरसेन के पास आए। आचार्यश्री ने इनकी योग्यता से पूर्ण संतुष्ट होकर इन्हें शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ वार में कर्म प्रकृति प्राभृत पढ़ाना आरंभ किया। इसके बाद दोनों श्रमणजनों ने गुरु आज्ञा से अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षायोग किया। वर्षायोग में इन दोनों ही आचार्यों ने रागद्वेष-मोह से रहित हो जिनवाणी का प्रचार-प्रसार किया और षट्खण्डागम की रचना की।

षट्खण्डागम-

छ: भागों में विभाजित यह ग्रंथ (१) जीवस्थान (२) खुद्दाबन्ध (३) बंध स्वामित्व (४) वेदना (५) कर्मणा के अतिरिक्त आचार्य भूतबलि ने महाबंध नाम के छठवें खण्ड में प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध, प्रदेश बंधरूप चार प्रकार के बंध का विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रंथ के पूर्ण होने पर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को इसकी भक्तिपूर्वक पूजा अर्चना की गई। उसी समय से श्रुत पंचमी पर्व प्रचलित हुआ। इस ग्रंथ की महत्ता इसलिए भी है कि इसका सीधा संबंध द्वादशांग वाणी से है।


आचार्य आर्य मंक्षु

पहली-दूसरी शताब्दी (७३-१२३) अपवाइज्जमाण 


आचार्य नाग हस्ती

पहली-दूसरी शताब्दी ९३-१६२ पवाइज्जंत 


आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी/ वट्टकेर स्वामी

भारतीय जैन श्रमण परम्परा में मुनि कुन्दकुन्दाचार्य का नाम भगवान महावीर तथा गौतम गणधर के बाद श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। उन्होंने आध्यात्मिक योगशक्ति का विकास कर अध्यात्म विद्या की अविछिन्न धारा को जन्म दिया, जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति आत्मानन्द की जनक थी। आत्म विकास की इस खोज ने जो अध्यात्म की आधारशिला है और इसी के कारण भारतीय श्रमण परम्परा का यश लोक में विश्रुत हुआ। आचार्य कुन्दकुन्द को भगवान महावीर की आचार्य परम्परा एक विशिष्ट स्थान उनकी चिन्तन धारा से प्राप्त है। विशुद्ध रत्नत्रय के पालक, क्षमागुण से युक्त, कठोर साधक सभी प्रकार की कल्मष भावनाओं से रहित, श्रमणकुलकमलदिवाकर आचार्य कुन्दकुन्द को मंगलाचरण में भगवान महावीर तथा गौतम गणधर के बाद मंगलं कुन्दकुन्दाद्यों के साथ उनके नाम को मंगलकारक  माना जाता है। आचार्यश्री के लिए आगम ग्रंथों, शिलालेखों आदि में इतना अधिक लिखा गया है जिसमें उनकी महानता का सहज अनुमान हो जाता है।

आपका समय काल विद्वानों ने  पहली-दूसरी शताब्दी (१२७-१७२) निश्चित किया गया है| 

आपके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ मूलाचार, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, अष्ट पाहुड, रयणसार, बारस अणुवेक्खा, दस भक्ति एवं कुरल काव्य आदि| 


आचार्य समन्तभद्र स्वामी

क्षत्रिय कुल उत्पन्न राजपुत्र आचार्य समन्तभद्र का जन्म दक्षिण भारत के उरगपुर के राजपरिवार मेंं हुआ था। उनके जन्म का नाम शान्तिवर्मा था। यह अपने समय के प्रसिद्ध तार्विक विद्वान्, कवि, वाग्मित्वादि शक्तियों के स्वामी थे। जैनधर्म में अटूट आस्था के कारण जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर इन्होंने श्रमण मार्ग चुना। तेरह प्रकार के चारित्र, अट्ठाईस मूलगुणों और उत्तरगुणों का परिपालन करने वाले यह महान तपस्वी साधक थे। आपका समय काल विद्वानों ने दूसरी शताब्दी (१२०-१८३) निश्चित किया गया है| 

कर्मोदय वश उन्हें भस्मकव्याधि का रोग हो गया, रोग की तीव्रता से बढ़ने पर उन्होंने अपने गुरु से समाधिमरण की आज्ञा चाही। निमित्तज्ञानी गुरु उनकी चर्या से परिचित थे, उन्होंने उन्हें दीक्षा छेदन कर रोग उपचार की आज्ञा दी। रोग के काल में आप पुजारी के वेशधर शिव मंदिर में रुखे और वहाँ भोग में आयी हुयी विशाल खाद्य सामिग्री खाकर अपना जीवन यापन करने लगे, किन्तु इस पर भी आपने अपनी आस्था को सच्चे देव-शास्त्र-गुरु से चलायमान नहीं किया, जब राजा को इस बात का संदेह हुआ तो उसने आपसे शिव पिण्डी को नमस्कार करने को कहा, आपने स्वयंभूस्तोत्र की रचना कर ज्योंही नमस्कार किया, त्योंही शिव पिण्डी फट गयी एवं उसमें से २४ वें जैन तीर्थंकर चंदाप्रभु की प्रतिमा प्रगट हो गयी| काल दोष से वहाँ पुनः अन्य संप्रदाय का अधिकार हो चूका है, वर्तमान में यह जगह ‘फटे महादेव’ के नाम से जानी जाती है|  यह सम्पूर्ण कथन सभी जैन धर्मानुयाई भलीभांति जानते हैं।

हम यहाँ उनकी रचनाओं का संक्षेप में वर्णन कर रहे हैं। उनकी तत्वार्थ सूत्र की टीका ग्रंथहस्तीमहाभाष्य अनुपलब्ध रचना है, इसके बारे में ज्ञात हुआ है कि यह आस्ट्रिया के वियाना के किसी संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त बृहद स्वयंभूस्तोत्र, स्तुति विद्या, देवागम (आत्ममीमांसा), युक्त्यनुशासन, जिनशतक, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, जीव सिद्धि, तत्वानुशासन, प्रकृत व्याकरण, प्रमाण पदार्थ तथा कर्मप्राभृत टीका आदि महानतम रचनाएं हैं।


आचार्य यतिवृषभ

आचार्य आर्यमंक्षु व आचार्य नागहस्ति दोनों ही समकालीन और आचार्य परम्परा से प्राप्त कसायपाहुड़ के ज्ञाता थे। आचार्य यतिवृषभ ने दोनों गुरुओं के समीप गुणधराचार्य के कसायपाहुड़ का अध्ययन किया और उनके रहस्यों को जाना। उन सूत्र गाथाओं के आधार पर आचार्य यतिवृषभ ने छः हजार चूर्णिसूत्रों की रचना की। आचार्य वीरसेन ने उन्हें वृत्तिसूत्र का कर्ता बताया है। इनकी दूसरी रचना तिलोयपण्णत्ति है।


आचार्य कार्तिकेय स्वामी

आपका समय काल विद्वानों ने दूसरी शताब्दी ( मध्यपाद ) निश्चित किया गया है|

आपके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ कार्तिकेयानुप्रेक्षा है|


आचार्य सिंहनन्दि

आपका समय काल विद्वानों ने दूसरी शताब्दी ( मध्यपाद ) निश्चित किया गया है|

आप राजनीति एवं आगम शास्त्र के विशेष ज्ञाता थे| 


आचार्य शिवार्य स्वामी

आपका समय काल विद्वानों ने तीसरी शताब्दी ( प्रथम चरण ) निश्चित किया गया है|

आपके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ भगवती आराधना ( मूलाराधना ) है| जो समाधी का वर्णन करने वाला एक अनूठा ग्रन्थ है| 


आचार्य उमास्वामी (गृद्धपिच्छाचार्य)

मूलसंघ की पट्टावली में आचार्य उमास्वामी नन्दिसंघ के पट्ट पर करीब ४० वर्ष आसीन रहे। उस समय गृद्धपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला दूसरा कोई विद्वान् नहीं था। श्रवणबेलगोल, नगरताल्लुक आदि के अनेक शिलालेखों में गृद्धापिच्छाचार्य उमास्वामी का उल्लेख मिलता है। बाद के अनेक आचार्यों ने उनका अपनी रचनाओं में श्रद्धापूर्वक उल्लेख किया है। आपका समय काल विद्वानों ने द्वितीय-तृतीय शताब्दी निश्चित किया गया है| 

उमास्वामी की रचनाओं में उनकी एक ही रचना तत्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र एक कालजयी रचना है। जैनागम के चार अनुयोगों में से करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग का सम्पूर्ण सार उसमें निहित है। गूढ़ अर्थों को संस्कृत के सूत्रों में लिखे गए इस ग्रंथ के महत्व का अनुमान इस पर लिखी गई टीकाओं और टीका पर पुन: की गई टीकाओं से सहज में हो जाता है। दस अध्यायों में विभाजित इस ग्रंथ में क्रमश: ३३, ५३, ३९, ४२, ४२, २७, ३९, २६, ४७, ९ कुल ३५७ सूत्र हैं। इन सूत्रों के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का उपाय से प्रारंभ कर ज्ञान, ज्ञान के भेद, जीव के भाव, भाव के भेद, जीव की उत्पत्ति के भेद, उनके उत्पन्न होने के स्थान, अजीव तत्व का कथन, उसके भेद, अशुभ आश्रव, शुभ आश्रव, बंध, निर्जरा और अंतिम अध्याय में मोक्ष तत्व का कथन विस्तार से समाहित है।

तत्त्वार्थ सूत्र पर उपलब्ध-अनुपलब्ध टीकाएँ-

गन्ध हस्ती महाभाष्य (आचार्य समन्तभद्र अनुपलब्ध) सर्वार्थसिद्धि (आचार्य पूज्यपाद) तत्त्वार्थ राजवर्तिक (आचार्य अकलंकदेव) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार (आचार्य विद्यानंदि) तत्वार्थवृत्तिभास्करी टीका (आचार्य भास्कारनंदि) तत्त्वार्थवृत्ति (आचार्य श्रुतसागर प्रथम), तत्वार्थसुखबोधनी टीका (आचार्य अमृतचन्द्र) अर्थ प्रकाशिका (पं. सदासुखदास) पं. माणिकचंद्र जी कौन्देय की हिन्दी टीका। इन टीकाओं से ग्रंथ का महत्व सहज समझ में आ जाता है।


आचार्य उच्चारण

आपका समय काल विद्वानों ने द्वितीय-तीसरी शताब्दी  निश्चित किया गया है|

आचार्य यतिवृषभ स्वामी के चूर्णिसूत्रों पर व्याख्यान कर आपने यश का अर्जन किया है| 


आचार्य शामकुण्ड

आपका समय काल विद्वानों ने तीसरी शताब्दी निश्चित किया गया है|


आचार्य विमलसूरि

आपका समय काल विद्वानों ने चौथी शताब्दी ( पूर्व पाद ) निश्चित किया गया है|

आपके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ पउमचरियं एवं हरिवंशचरियं हैं|


आचार्य श्रीदत्त

आपका समय काल विद्वानों ने चौथी शताब्दी ( मध्य पाद ) निश्चित किया गया है|

आपके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ जल्पनिर्णय है|


आचार्य यशोभद्र

आपका समय काल विद्वानों ने पांचवीं शताब्दी निश्चित किया गया है|

आप उच्च कोटि के विद्वान थे| 


आचार्य चिरंतन

आपका समय काल विद्वानों ने पांचवीं-छटवीं शताब्दी निश्चित किया गया है|

आप व्याख्यानाचार्य के रूप में अपना यशस्वी साधना का काल व्यतीत किया था|


आचार्य वप्पदेव

आपका समय काल विद्वानों ने पांचवीं-छटवीं शताब्दी निश्चित किया गया है|

आप सिद्धांत के मर्मज्ञ थे| 


आचार्य सिद्धसेन

इनकी गणना दर्शन प्रभावक आचार्यों में की जाती है। यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान् वादी और कवि थे, तर्कशास्त्र में निपुण और उसके ज्ञाता थे। पूर्ववर्ती आचार्य विद्यानन्द ने इन्हें श्रेष्ठवादियों का विजेता और जल्पनिर्णय ग्रंथ का कर्ता बताया है। इनका उल्लेख आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में किया है। आपका समय काल विद्वानों ने छटवीं शताब्दी (५६८) निश्चित किया गया है| आपके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ सन्मतिसूत्र एवं कल्याणमन्दिर है|


आचार्य वज्रनन्दि

आपका समय काल विद्वानों ने छठवीं शताब्दी ( पूर्व पाद ) निश्चित किया गया है|

आपके द्वारा रचित प्रमुख रचना नवस्तोत्र है|


आचार्य देवनंदि (पूज्यपाद)

भारतीय जैन परम्परा मेें जो लब्ध प्रतिष्ठ ग्रंथकार हुए हैं। उनमें आचार्य पूज्यपाद देवनंदि का नाम विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। आचार्य समन्तभद्र तथा आचार्य सिद्धसेन के बाद आचार्य पूज्यपाद स्वामी को ही यह महत्व प्राप्त है। साहित्यजगत के प्रकाशमान सूर्य आचार्य देवनन्दि अपने समय के महातपस्वी श्रमण रत्न थे। इनका दीक्षानाम देवनंदि था। अपनी बुद्धि प्रखरता से यह जिनेन्द्र बुद्धि कहलाए और देवों द्वारा इनकी चरण पूजा से यह पूज्यपाद नाम से जगत प्रसिद्ध हुए। ऐसा कथन श्रवणबेलगोल के शिलालेख में अंकित है। 

आचार्य पूज्यपाद की रचनाएं-इनकी प्रमुख रचनाओं में सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश, दशभक्ति, जैनेन्द्रव्याकरण, वैद्यकशास्त्र, छन्दग्रंथ, शान्त्यष्टक, सिद्धप्रिय स्तोत्र, सारसंग्रह और जैनाभिषेक आदि हैं। 

जीवन घटनाओं में प्रमुख हैं- कर्मोदय के कारण आपकी नयन ज्योति का चला जाना तथा शान्त्यष्टक के निर्माण और पाठ से पुन: नयन ज्योति का आना, देवताओं के द्वारा चरणों का पूजा जाना, औषधिऋद्धि की उपलब्धि, पादस्पृष्ट जल से लोहे का स्वर्ण में बदल जाना, ऐसी अनेक घटनाओं का कथन इनके विषय में ग्रंथों से प्राप्त होता है।

शान्ति भक्ति ( शान्त्यष्टक )- आपके द्वारा रचित शांति भक्ति विशेष रूप से प्रभावशाली रही है, आपके द्वारा रचित इस भक्ति के माध्यम से अनेकों श्रद्धावान जीवों के असाध्य रोग शमित हुये हैं| २१ वीं सदी के महान आचार्य भगवन, भवलिंगीं संत श्री विमर्श सागर जी महामुनिराज को आपकी यह भक्ति सिद्ध क्षेत्र आहार जी में श्री शांतिनाथ भगवान के पादमूल में सिद्ध हुयी थी, जिसके प्रभाव से उन्होंने एक ब्रह्मचारिणी दीदी को निरोगी किया था| 


आचार्य जोइंदु

आपका समय काल विद्वानों ने छठवीं शताब्दी ( उत्तरार्द्ध ) निश्चित किया गया है|

आपके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ परमात्म प्रकाश, श्रावकाचार, योगसार, आध्यात्म संदोह, सुभाषित तंत्र, तत्त्वार्थ टीका आदि हैं|


आचार्य पात्रकेसरी

अहिच्छत्र निवासी यह एक ब्राह्मण विद्वान् थे। वेदांत में निपुण वहाँ के राजा के राजकाल में सहयोगी थे। कभी-कभी कौतूहलवश पाश्र्वनाथ मंदिर में भगवान की प्रशान्तमुद्रा का दर्शन करने जाते रहते थे। एक बार चारित्रभूषण नामक मुनिराज को मंदिर में देवागम स्तोत्र का पाठ करते सुना। स्तोत्र से प्रभावित हो मुनिराज से पुन: पाठ करने को कहा और उसे सुनकर कठस्थ याद कर लिया। घर आकर उनके अर्थों को समझकर जीवादिक पदार्थों का जो स्वरूप उसमें वर्णित था वह उन्हें सत्य लगा। वस्तुस्वरूप समझने पर संसार से उदासीनता बढ़ गई और दिगम्बर मुद्रा धारण कर वीतराग श्रमण बन गए। इनकी रचनाओं में ‘त्रिलक्षणक दर्शन’ तथा ‘जिनेन्द्र गुण संस्तुति’ अपर नाम मात्र केसरी स्तोत्र है। आपका समय काल विद्वानों ने छठवीं-सातवीं शताब्दी निश्चित किया गया है|


आचार्य ऋषिपुत्र

आपका समय काल विद्वानों ने छठवीं-सातवीं शताब्दी निश्चित किया गया है|

आपने निमित्त शास्त्र की रचना की| 


आचार्य मानतुंग स्वामी

सातवीं सदी के यह महाप्रभावी आचार्य थे। भक्तामर स्तोत्र संस्कृत के बसंततिलका छंद में ४८ काव्यों की इनकी कालजयी रचना है। प्राकृत भाषा में भयहर स्तोत्र २९ पद्यों में लिखी गई रचना है। इनको दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाओं में समान मान्यता प्राप्त है।


आचार्य शान्तिषेण

आपका समय काल विद्वानों ने छठवीं-सातवीं शताब्दी निश्चित किया गया है|

आप श्रेष्ठ कवि एवं दार्शनिक के रूप में प्रसिद्ध हुये| 


आचार्य अकलंक देव

मान्यखेट के राजा शुभतंग के मंत्री पुरुषोत्तम के पुत्र अकलंक व निकलंक जैन जगत में ऐसे नाम हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत भू पर उस कल में बौद्ध धर्म राजधर्म के रूप में स्थापित हो चुका था। बौद्र्ध संघ में रहकर इन दोनों भाईयों ने बौद्ध धर्म के अध्ययन का विचार किया और अपना धर्म छिपाकर बौद्ध मठ में जाकर विद्याध्ययन करने लगे। वहाँ घटित घटना और निकलंक का बलिदान आज भी श्रद्धा से स्मरण किया जाता है तथा सदा स्मरण किया जाता रहेगा। अकलंक देव ने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर जिनशासन की प्रभावना की। बौद्ध विद्वानों से अनेक बार उनके शास्त्रार्थ हुए। कलिंग देश के रत्नसंचयपुर के शास्त्रार्थ की चर्चा अनेक ग्रंथों में वर्णित है। अनेक शिलालेखों तथा ग्रन्थोल्लेखों में अकलंक देव का वर्णन मिलता है। किसी विद्वान में उनसे शास्त्रार्थ की क्षमता उस काल में नहीं थी। उस काल में उनके समान वादीश्वर और वाग्मी विद्वान दूसरा नहीं था। पूर्वाचार्यों की कितनी ही रचनाओं की टीका उनके द्वारा दी गई है। उनके ग्रंथों में प्रमुख हैं। (१) तत्वार्थावार्तिक सभाष्य-यह तत्वार्थसूत्र पर वार्तिक शैली पर लिखा गया प्रथम ग्रंथ (२) अष्टशती-आचार्य समन्तभद्र कृत आप्तामीमांसा (देवागम स्तोत्र) की टीका (३) लघीयस्त्रयसविवृत्ति-प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश, प्रवचन प्रवेश, तीन प्रकरणों पर लिखा गया ग्रंथ है (४) न्याय विनिश्चय सवृत्ति (५) सिद्धि विनिश्चय (६) प्रमाण संग्रह स्वोपज्ञ। न्याय, दर्शन, सिद्धान्त, प्रमाण, नय आदि विषयों पर लिखी गई इनकी विद्वत्ता प्रमाणित होती है। इनका काल सातवीं सदी ( 620-680)  प्रारंभ माना गया है।


आचार्य रविषेण

पदमपुराण (रामचन्द्र-सीता कथानक) के रचनाकार आचार्य रविषेण सेनसंघ के विद्वान श्रमण थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का चरित्र इस रचना में बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रंथ में १२३ पर्व व श्लोक संख्या बीस हजार है।

आपका समय काल विद्वानों ने सातवीं शताब्दी (६७७) निश्चित किया गया है|


आचार्य कुमारसेन गुरु

आपका समय काल विद्वानों ने सातवीं शताब्दी (६९६) निश्चित किया गया है|

आपको काष्ठा संघ का संस्थापक माना गया है| 


आचार्य बृहत प्रभाचन्द्र

आपका समय काल विद्वानों ने सातवीं शताब्दी (उत्तरार्द्ध) निश्चित किया गया है|


आचार्य सिंहनन्दि

आपका समय काल विद्वानों ने सातवीं-आठवीं शताब्दी निश्चित किया है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना वरांग चरित्र है| 


आचार्य सुमतिदेव

आपका समय काल विद्वानों ने सातवीं-आठवीं शताब्दी निश्चित किया है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना सन्मति तर्क टीका एवं सुमति सप्तक है| 


आचार्य वादीभसिंह

इन्होंने अपनी रचना गद्य चित्तामणि में अपने गुरु पुष्पसेन की चर्चा वन्दना करते हुए लिखा है कि उन्होंने मुझ जैसे मूढ़ बुद्धि को एक श्रेष्ठ मुनि बना दिया। इनकी रचना क्षत्र चूड़ामणि उच्चकोटि का नीतिकाव्य है। स्याद्वाद सिद्धि और गद्य चिन्तामणि इनकी अन्य दो कृतियाँ और हैं।

आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|


आचार्य विद्यानन्दि

आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना आप्त परीक्षा, स्वोपज्ञवरत्ति, प्रमाण परीक्षा, पत्र-परीक्षा, सत्यानुशासन परीक्षा, श्रीपुर पार्श्वनाथ स्त्रोत, विद्यानंद महोदय आदि हैं| 


आचार्य कुमार नन्दि

आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना ‘वाद न्याय विचक्षण’ है| 


आचार्य महासेन ‘ द्वितीय ‘

आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना सुलोचना कथा रही| 


आचार्य श्रीधर

आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना गणितसार, ज्योतिर्ज्ञानविधि, जातकतिलक, बीज गणित आदि हैं| 


आचार्य जिनसेन ‘प्रथम’

हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन सेन संघ (अपर नाम पुन्नाट संघ) के महाप्रभावी आचार्य थे। अपनी रचना हरिवंश पुराण में हरिवंश की एक शाखा यादव कुल और उसमें जन्मे दो शलाका पुरुषों का चरित्र वर्णित है। २२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ तथा नारायण श्री कृष्ण का उन्होंने सुन्दर कथन किया है। इन्होंने अपनी रचना में पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों और विद्वानों को स्मरण किया है। इनमें प्रमुख हैं-आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दि, वङ्कासूरि, महासेन, रविषेण, जयसिंह नन्दि, शान्तिषेण, कुमारसेन, जयसेन आदि प्रमुख हैं। इसी ग्रंथ के अंतिम ६६वें सर्ग में, तिलोयपण्णत्ति, धवला जयधवला की श्रुतावतार परम्परा भी वर्णित है। आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|


आचार्य महावीर

गणितसार के रचियता महावीराचार्य विद्वानों में प्रथम गणितज्ञ थे। गणित के लिए उनका कथन है कि लोक में जितने भी लौकिक, वैदिक और सामयिक कार्य हैं उन सबमें गणित संख्यान का उपयोग है, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, नाट्यशास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेदिकशास्त्र, वास्तुविद्या छंद, तर्क  व्याकरण, आदि सभी में गणित उपयोगी है। इस ग्रंथ में एक, दश, शत सहस्र से लेकर क्षोभ, महाक्षोभ तक की संख्या का उल्लेख है। अंकों के लिए शब्दों का प्रयोग किया है जैसे तीन के लिए रतन, ६ के लिए द्रव्य, सात के लिए तत्व। लघुत्तम समापवर्तक के विषय में महावीराचार्य विद्वानों में प्रथम विद्वान थे। रेखा गणित, बीज गणित और पाटी गणित की दृष्टि से यह ग्रंथ महत्वपूर्ण है। डॉ. अवधेश नारायण सिंह ने इसे ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, भास्कर व अन्य हिन्दू गणितज्ञों के ग्रंथों से बहुत सी बातों में उनसे पूर्णत: आगे बताया गया है। आपका समय काल नवमीं शताब्दी रहा है|


आचार्य वीरसेन

आर्यनदी के शिष्य आचार्य वीरसेन सिद्धान्त के तलस्पर्शी विद्वान पाण्डित्य के धनी, गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रों में निपुण सिद्धान्त एवं छन्द के अभूतपूर्व ज्ञाता थे। अनेक आचार्यों ने उनकी प्रतिमा की प्रशस्ति लिखी थी। षट्खण्डागम पर लिखी उनकी टीकाओें धवला, जयधवला उनके कृतित्व और ज्ञान का प्रमाण हैं। इनका काल नवमीं सदी का माना जाता है।


आचार्य गुणभद्र स्वामी

आचार्य जिनसेन के गुरुभाई दशरथ गुरु के शिष्य तथा सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी विद्वान थे। आचार्य जिनसेन के स्वर्गवास के बाद उनके अपूर्ण आदिपुराण को १६२० श्लोकों की रचना कर उसे पूर्ण किया। उत्तरपुराण नामक इस ग्रंथ में भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान महावीर तक २३ तीर्थंकरों, ११ चक्रवती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नव बलभद्र सहित जीवधंर स्वामी आदि विशिष्ट महापुरुषों के कथानक दिए हैं। द्वितीय रचना आत्मानुशासन में २६६ श्लोकों में आत्मा के अनुशासन का सुन्दर विवेचन है। जिनदत्त चारित्र भी इनकी ही रचना बताई जाती है। आपका समय काल नवमीं शताब्दी रहा है|


आचार्य जिनसेन (द्वितीय)

धवला जयधवला के कृतिकार आचार्य वीरसेन के शिष्य आचार्य जिनसेन विशाल बुद्धि के धारक कवि, विद्वान और वाग्मी थे। आचार्य गुणभद्र ने इनके प्रति लिखा है कि जिस प्रकार हिमालय से गंगा, सर्वज्ञ के श्रीमुख से दिव्यध्वनि और पूर्व दिशा से भास्कर उदय होता है, उसी प्रकार वीरसेन से जिनसेन उदय को प्राप्त हुए। इनकी रचनाएँ ‘पाश्र्वाभ्युदयकाव्य’ अद्वितीय समस्यापूर्तिक काव्य है। ६३ शलाका पुरुषों पर लिखित ‘आदिपुराण’ जिसे महापुराण के आधार पर लिखना प्रारंभ किया था वह इनके स्वर्गवास के कारण अधूरा रह गया, जिसे इनके शिष्य गुणभद्र स्वामी ने पूर्ण किया। आदिपुराण उच्चकोटि का संस्कृत महाकाव्य है। इनके गुरु द्वारा कषाय प्राभृत के प्रथमस्कंध की जयधवला टीका जो बीस हजार श्लोक प्रमाण थी उसके शेष भाग पर चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आचार्य जिनसेन का काल नवमी सदी का माना जाता है।


उग्रादित्याचार्य

श्री नन्दीमुनि के शिष्य उग्रादित्याचार्य महानतम् विद्वान् मुनिराज थे। इनकी २५ अधिकार में पूर्ण पाँच हजार श्लोक प्रमाण वैद्यक कृति ‘कल्याणकारक’ वैद्यक की महानतम कृति है।


आचार्य अभयनन्दि

व्याकरण शास्त्र के निष्णात विद्वान जिनेन्द्र व्याकरण की टीका ‘महावृत्ति’ के रचनाकार हैं। यह जिनेन्द्र व्याकरण में ही नहीं पाणिनीय व्याकरण और पंतजलि महाभाष्य में भी अप्रत्याहत गति रखते थे।


आचार्य देवसेन

आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९३३-९५५) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना दर्शनसार, भावसंग्रह, आलापपद्धति, लघुनयचक्र, आराधनासार, तत्त्वसार आदि हैं| 


आचार्य कनकनन्दि

आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९३९) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना विस्तरसत्त्व त्रिभंगी है|  


आचार्य हरिषेण

आपका समय काल दसवीं शताब्दी (मध्यपाद) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना बृहत कथाकोष है|  


आचार्य वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती

आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९५०-९९९) रहा है|

आचार्य वीरनन्दि आचार्य अभयनन्दि के प्रथम शिष्य थे। आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना चंद्र प्रभचरित है, १८ सर्गों में विभक्त यह रचना १६९१ श्लोक में पूर्ण हुई है।


आचार्य सोमदेव

लोक प्रसिद्ध देवसंघ की परम्परा में नेमिदेवाचार्य के शिष्य आचार्य सोमदेव एक महान नीतिज्ञ आचार्य थे। राजा यशोधर के चरित्र पर लिखा महाकाव्य ‘यशस्तिकाचम्पू’ श्रावकधर्म परिपालन की एक महान रचना है। ‘नीतिवाक्यामृत’ राजनीति पर लिखा एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह संस्कृत साहित्य का एक अनुपम रत्न है। इनकी तीसरी रचना ‘अध्यात्मतरंगिणी’ या ध्यानविधि है। आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९५९) रहा है|


आचार्य माधवचंद्र त्रैविध

आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९७५-१०००) रहा है|

त्रिलोकसार टीका आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना है|  


आचार्य महासेन

प्रद्युम्न चरित्र के रचयिता तथा सिंधुराज के महामात्य पर्पट द्वारा पूजित आचार्य महासेन आचार्य सेनसूरि के शिष्य थे। सिद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कवि महासेन की यह रचना एक सुन्दर काव्य ग्रंथ है। आपका समय काल दसवीं शताब्दी रहा है|


आचार्य अनन्तवीर्य

सिद्धि विनिश्चय टीका के कर्ता आचार्य अनन्तवीर्य अकलंक वाङ्मय के महानतम विद्वान थे। इसके साथ प्रमाण संग्रह भाष्य एवं प्रमाण संग्रहालंकार भी आपकी रचनायें हैं| आपका समय काल दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी (९७५-१०२५) रहा है|


आचार्य विद्यानन्द

अनेकों ग्रंथों के टीकाकार व स्वग्रन्धों के रचनाकार आचार्य विद्यानंद नवमी सदी के महानतम आचार्य थे। आचार्य उमास्वामी कृत ‘तत्वार्थसूत्र’ आचार्य समंतभद्र कृत ‘देवागम’ तथा युक्त्यानुशासन पर इनकी टीकाएं तत्वार्थ श्लोकवार्तिक ‘अष्टसहस्री’ व युक्त्यानुशासनलंकार के बाद इनकी मौलिक रचनाएँ ‘विद्यानन्दमहोदय’ (अनुपलब्ध) ‘आप्तपरीक्षा’ प्रमाण परीक्षा’ ‘पत्र परीक्षा’ सत्य शासन परीक्षा, श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र हैं।


आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती

गंगवंशीय राजा राचमल्ल के प्रधानमंत्री और सेनापति चामुण्डराय के गुरु विश्व प्रसिद्ध गोम्मटेश्वर (भगवान बाहुबली) की मूर्ति निर्माण के प्रेरणाश्रोत आचार्य नेमीचन्द महान सिद्धान्तिक विषय के ज्ञाता आचार्य थे। इनकी विद्वता उनकी कृतियों गोम्मटसार (जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड) लब्धिसार, क्षपणासार व त्रिलोकसार से परिलक्षित होती है। उनके गोम्मटसार ग्रंथ पर ६ टीकाएं बाद में आचार्यों और विद्वानों ने की हैं। आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९८१) रहा है|


आचार्य अमितगति (प्रथम)

दशवीं सदी के आचार्यों में योगसार के रचनाकार आचार्य अमितगति अद्वितीय विद्वान श्रमणराज थे। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, मोक्ष के साथ-साथ चारित्र और चूलिकाधार के विवेचन के साथ इनकी रचना योगसार एक बोधगम्य ग्रंथ है।


आचार्य अमितगति (द्वितीय)

माथुर संघ आचार्य नेमिषेण के प्रशिष्य और माधवसेन के शिष्य अमितगति द्वितीय दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी (९९३-१०१६) के विद्वान् एवं महानतम आचार्य थे। इनकी रचनाओं से इनके ज्ञान का अनुमान सहज हो जाता है। सुभाषितरत्न सन्दोह, धर्म परीक्षा, उपासकाचार (अमितगति श्रावकाचार) पंच संग्रह, आराधना, तत्त्व भावना, रूपांतर, मूलाराधना  तथा भावना द्वात्रिंशतिका इनकी रचनाएँ हैं।


आचार्य अमृतचन्द्र

भगवान महावीर की आचार्य परम्परा में दशवीं सदी के उत्तरार्ध के आचार्यों में आचार्य अमृतचन्द्र का नाम सूर्य किरणों के समान सदैव प्रकाशवान रहेगा। आचार्य कुन्दकुन्द की तीन महानतम कृतियों ‘समयसार’ ‘प्रवचनसार’ व पंचास्तिकाय के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र ‘पुरुषार्थ सिद्धयुपाय’ (जिनवचन रहस्यकोष) व तत्त्वार्थसार के रचनाकार हैं।


आचार्य इन्द्रनन्दी (प्रथम)

दीक्षा गुरु बप्पनन्दी, मंत्रशास्त्र गुरु गुणनन्दी और सिद्धान्त शास्त्र के गुरु अभयनन्दी के शिष्य इन्द्रनन्दी ‘ज्वालिनीकल्प’ मंत्र शास्त्र के रचनाकार हैं। इनका समय दसवीं सदी का अंतिम चरण या ग्यारहवीं सदी के पूर्वार्ध का अनुमानित है।


आचार्य इन्द्रनन्दि (द्वितीय)

आपका समय काल दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|

छेद पिंड आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना है| 


आचार्य पद्मनन्दि (द्वितीय)

आपका समय काल दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी (९७७-१०४३) रहा है|

पद्मनन्दि पंचविशंतिका आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना है|  


अनन्तकीर्ति

लघु सर्वज्ञसिद्धि तथा वृहत्सर्वज्ञ सिद्धि ग्रन्थों के रचनाकार आचार्य अनन्तकीर्ति की गुरु परम्परा का उल्लेख प्राप्त नहीं है किन्तु बाद में आचार्यों ने उनका श्रद्धा से उल्लेख किया है।


आचार्य विशेषवादि

आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्व रहा है|

विशेषत्रय आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना संभवतः है|  


आचार्य माणिक्यनन्दी

जैन न्याय के आद्यसूत्र ग्रंथ ‘परीक्षा-मुख’ के रचनाकार आचार्य माणिक्यनन्दी महाराज भोज के समकालीन एवं जैन न्याय के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य थे। इस रचना से पूर्व सांख्य आदिक अन्य दार्शनिकों की रचनाएं तो थीं किन्तु जैनदर्शन में न्याय विषयक कोई रचना नहीं थी। इस ग्रंथ के महत्व का अनुमान बाद में हुई इसकी टीका ‘प्रमेय कमल मार्तण्ड’ तथा ‘प्रमेय रत्नमाला’ से सहज हो जाता है। आचार्य माणिक्यनन्दी के शिष्य ‘नयनन्दी’ सुंदसण चरिउ के कर्ता थे। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१००३-१०६८) रहा है|


आचार्य शुभचन्द्र

ज्ञानार्णव के रचनाकार आचार्य शुभचन्द्र ने उक्त ग्रंथ में अपनी गुरु परम्परा तो नहीं दी है किन्तु आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक देव, जिनसेनाचार्य का स्मरण श्रद्धा से किया है। ज्ञानार्णव ग्रंथ में बारह भावना, पंच महाव्रत ध्यान आदि का विस्तृत कथन है। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१००३-१०६८) रहा है|


आचार्य वादिराज

पार्श्वनाथ चरित्र, यशोधर चरित्र, एकीभाव स्तोत्र, न्याय विनिश्चय विवरण, प्रमाण निर्णय, अध्यात्माष्टक, त्रैलोक्यदीपिका के रचनाकार महानवादी, विजेता और कवि थे। चौलुक्य नरेश जयसिंह देव पूजित महानतम आचार्य थे। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१०१०-१०६५) रहा है|


आचार्य शकटायन

आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१०२५ से पूर्व) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना शाकटायन शब्दानुसाशन ( अमोयवृत्ति सहित ) आदि हैं |


आचार्य नेमिचन्द्र मुनि

आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१०६८) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना लघु द्रव्य संग्रह, बृहद द्रव्य संग्रह हैं |


आचार्य नरेन्द्रसेन

आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की प्रगटीकरण टीका सिद्धान्त सार संग्रह व प्रतिष्ठा प्रदीप के रचनाकार आचार्य नरेन्द्रसेन आचार्य गुणसेन के शिष्य थे। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|


आचार्य प्रभाचन्द्र

पार्श्वनाथ चरित्र, यशोधर चरित्र, एकीभाव स्तोत्र, न्याय विनिश्चय विवरण, प्रमाण निर्णय, अध्यात्माष्टक, त्रैलोक्यदीपिका के रचनाकार महानवादी, विजेता और कवि थे। चौलुक्य नरेश जयसिंह देव पूजित महानतम आचार्य थे। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१०१०-१०६५) रहा है|


आचार्य वादिराज

आचार्य माणिक्यनन्दी के शिष्य आचार्य प्रभाचन्द्र दर्शन एवं सिद्धान्त के पारगंत विद्वान् थे। धारा नगरी के अधिपति सम्राट् भोज के द्वारा बहुमान प्राप्त आचार्य प्रभाचन्द्र ने अनेक ग्रंथों की टीकाएँ की और कई दार्शनिक ग्रंथों की रचना की। इनकी रचनाओं में प्रमुख हैं, तत्वार्थ वृत्ति (सर्वार्थसिद्धि के विषय पदों का टिप्पण), प्रवचनसरोजभास्कर (प्रवचनसार टीका), प्रमेय कमल मार्तण्ड (परीक्षा मुख व्याख्या), न्याय कुमुदचन्द (लद्यीयस्त्रय व्याख्या), पंचास्तिकाय प्रदीप (पंचास्तिकाय टीका), शब्दाम्भोज भास्कर, महापुराण टिप्पण, गद्यकथा कोश (आराधना कथा प्रबंध), क्रिया कलाप टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका तथा समाधितंत्र टीका, दर्शन तथा सिद्धान्त ग्रंथों की यह शृंखला उनके जैन दर्शन के तलस्पर्शी ज्ञान का प्रतीक है। इनका समय काल ११वीं सदी माना जाता है।


आचार्य पद्मनन्दि (प्रथम)

२४२७ गाथा प्रमाण जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के रचनाकार आचार्य पद्मनन्दि बलनंदि के शिष्य थे। यह ग्रंथ लौकिक, अलौकिक, गणित, क्षेत्रादि, पैमाइश और प्रमाणादि कथनों के साथ जम्बूद्वीप के सभी क्षेत्र, पर्वत, नदियों और समुद्रों का वर्णन करता है। धर्म, अधर्म के विवेक को निर्देशन करने वाली इनकी दूसरी रचना धम्म रसायण है। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|


आचार्य जयसेन ( प्रथम )

आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना धर्मरत्नाकर है|  


आचार्य मल्लिषेण

यह मंत्र-तंत्र के महान विद्वान् थे, धारवाड़ जिले की गदक तहसील के मूलगुन्द नगर के अनेक जिनालयों में इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, ऐसा उल्लेख वहाँ के शिलालेखोें से प्राप्त होता है। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-महापुराण (इसकी कनड़ी प्रति कोल्हापुर भट्टारक मठ में है) नागकुमार काव्य, भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती कल्प (दोनों ही संस्कृत टीकाओं के साथ प्रकाशित) ज्वालामालिनीकल्प, स्व. सेठ माणिकचन्द्र जी के ग्रंथ भण्डार में उपलब्ध, कामचण्डाली कल्प, जैन सरस्वती भवन व्यावर में उपलब्ध, सज्जन चित्त वल्लभ हिन्दी पद्यानुवाद व हिन्दी टीका सहित प्रकाशित है। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|


आचार्य दुर्ग देवाचार्य

आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना रिष्ट समुच्चय, अर्द्धकाण्ड, मरणकंडिका, मंत्र महोदधि आदि हैं|


आचार्य मुनिपद्मकीर्ति

आपका समय काल लगभग शक संवत ९९९ रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना पासणाह चरिउ है|  


आचार्य रामदेव

नागसेन के शिष्य तथा तत्वानुशासन के रचयिता आचार्य रामदेव अध्यात्म के ज्ञाता विद्वान थे। २५८ संस्कृत पद्यों में लिखित ग्रंथ भाषा और विषय में अति महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (उत्तरार्द्ध ) रहा है|


मुनि श्रीचन्द्र

आचार्य शिवकोटि की भगवती आराधना, महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण पर टिप्पण, आचार्य रविषेण के पदम चारित को टीका एवं पुराणसार के रचनाकार मुनि श्रीचन्द्र ११वीं सदी के प्रारंभ काल के श्रमण थे। इनका अधिकांश समय धारा नगरी में व्यतीत हुआ, वही इनकी यह जिनवाणी आराधनापूर्ण हुई। 


आचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिक

श्रीनन्दी के शिष्य नयननन्दी के शिष्य नेमिचन्द तथा नेमिचन्द के शिष्य वसुनन्दी अपने समय के विख्यात मुनिराज थे। वसुनन्दी श्रावकाचार, उपासकाध्ययन, आप्तमीमांसावृत्ति, जिनशतक टीका, मूलाचार वृत्ति और प्रतिष्ठाचार संग्रह इनकी रचनाएं हैं। सागार धर्मामृत में पं. आशाधर जी ने इनका आदरपूर्वक स्मरण किया है। आपका समय काल ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी रहा है|


आचार्य माइल्लधवल

द्रव्य स्वभाव नयचक्र के रचयिता माइल्लधवल आचार्य देवसेन के शिष्य थे। इनका काल बारहवीं सदी का अंतिम समय बताया गया है।


आचार्य कुमुदचन्द्र

कल्याणमंदिर स्तोत्र के रचयिता आचार्य कुमुदचन्द्र का श्वेताम्बर मुनि वादिसूरिदेव से गुजरात के शासक जयसिंह सिद्धराज की सभा में वि.सं. ११८१ में वाद हुआ था। यह बारहवीं सदी के आचार्य थे।


आचार्य श्रीचन्द्र

कथा कोष तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार के रचनाकार आचार्य श्रीचन्द आचार्य वीरचन्द्र के शिष्य थे। इनका काल भी बारहवीं सदी बताया है।


आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव

आपका समय काल बारहवीं शताब्दी (११०३) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र एवं नियमसार टीका है|  


आचार्य नयसेन

आपका समय काल बारहवीं शताब्दी (११२१) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना धर्मामृत है|  


आचार्य हस्तिमल्ल

आपका समय काल बारहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचनायें विक्रांत गौरव, मैथिलीकल्याण, अंजना-पवनंजय, सुभद्रा नाटिका, आदिपुराण हैं |  


आचार्य गणधर कीर्ति

आपका समय काल बारहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना अध्यात्म तरंगिणी टीका है |  


आचार्य अनन्तवीर्य

परीक्षामुख की टीका ‘परिक्षामुख पंजिका’ न्यायशास्त्र की सहज, सरल और ग्राह्य रचना है, उन्होंने आचार्य प्रभाचन्द्र की रचना को अपनी रचना में उदार चन्द्रिका की उपमा दी है और अपनी रचना को खद्योत (जुगनू) के समान बताया है। 


आचार्य ब्रह्म देव

आपका समय काल बारहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचनायें टीका- परमार्थप्रकाश बृहद द्रव्य संग्रह, तत्त्वदीपक, ज्ञानदीपक, प्रतिष्ठा तिलक, विवाह पटल कथाकोष हैं|


आचार्य नरेन्द्रसेन

आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की प्रगटीकरण टीका सिद्धान्त सार संग्रह व प्रतिष्ठा प्रदीप के रचनाकार आचार्य नरेन्द्रसेन आचार्य गुणसेन के शिष्य थे।


आचार्य गिरिकीर्ति

गोम्मटसार पंजिका के रचनाकार आचार्य गिरिकीर्ति आचार्य चन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। प्रस्तुत ग्रंथ में गोम्मटसार के सैद्धान्तिक विषय पर सुन्दर व्याख्या की गई है।


आचार्य पार्श्वदेव

आपका समय काल बारहवीं शताब्दी (अंतिम पाद) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना संगीत समयसार है |  


आचार्य रविचंद्र

आपका समय काल बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना आराधनासार समुच्चय है |  


आचार्य माघनन्दि

आपका समय काल बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी (११९३-१२६०) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना शास्त्रसार समुच्चय है |


आचार्य अभयचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती

आपका समय काल तेरहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना कर्म प्रकृति है |  


आचार्य भीमसेन त्रेविद्य

आपका समय काल तेरहवीं शताब्दी (मध्यपाद) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचनायें कातंत्ररूपमाला, न्यायसूर्यावली, भुक्ति-मुक्ति विचार दीपिका, विश्वतत्त्व प्रकाश सटीक, टीका शकटायन व्याकरण हैं|


आचार्य श्रुति मुनि

आपका समय काल तेरहवीं शताब्दी (उत्तरार्ध) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना परमागम सार, आस्रव त्रिभंगी, भाव त्रिभंगी है |  


भट्टारक शुभचंद्र

आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी (१५१६-१५५६) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचनायें चरित्र- चन्द्रप्रभाकरकंडु, चंदना, जीवंधर, श्रेणिक| टीका- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पार्श्वनाथ काव्य पंजिका| पूजा- चंदन षष्ठी व्रत, गणधर वलय, तीस चौबीसी, पंचकल्याणक, तेरहद्वीप, पुष्पाञ्जलि व्रत, सार्ध्दद्धय द्वीप, सिद्धचक्र, कर्मदहन| अन्य रचनायें- पांडव पुराण, सज्जन चित्त वल्लभ, प्राकृत लक्षण, अध्यात्म तरंगिणी, अम्बिककल्प, अष्टान्हिक कथा, चरित्र शुद्धि विधान, पल्ली व्रतोद्यापन हैं |  


आचार्य रत्नकीर्ति

आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना भद्रबाहु चरित्र है |  


आचार्य वर्द्धमान (द्वितीय)

आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी (१५४२) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना दशभक्त्यादि महाशास्त्र है |  


आचार्य नेमिचंद्र

आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी (मध्यपाद) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना जीवतत्त्व प्रदीपिका ( गोम्मटसार संस्कृत टीका ) है | 


आचार्य सुमतकीर्ति

आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी उत्तरार्द्ध रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना टीका- कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह है|  


आचार्य श्री भूषण

आपका समय काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना पद्मपुराण, हरिवंश पुराण है |  


आचार्य सोमसेन

आपका समय काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी (१५९९-१६१९) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना रामपुराण, शब्द रत्न प्रदीप, धर्मरसिक है| 


आचार्य धर्मकीर्ति

आपका समय काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना पद्मपुराण, हरिवंश पुराण है |  


आचार्य ब्रह्मज्ञानसागर

आपका समय काल सत्रहवीं शताब्दी (पूर्वपाद) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना अक्षरबावनी है |  


आचार्य गंगादास

आपका समय काल सत्रहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना पूजा- क्षेत्रपाल एवं सम्मेदाचल है|  


आचार्य देवेन्द्रकीर्ति

आपका समय काल सत्रहवीं शताब्दी रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना पूजा- कल्याणमन्दिर, विषापहार, कथाकोष है | 


आचार्य सुरेंद्र कीर्ति

आपका समय काल सत्रहवीं-अठाहरवीं शताब्दी (१६८७-१७१६) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना पद्मावती पूजा, स्तोत्र- भूपाल, कल्याण मंदिर, एकीभाव, विषापहार है |   


आचार्य सुरेंद्र भूषण

आपका समय काल अठाहरवीं शताब्दी (१७०३-१७३४) रहा है|

आपकी प्रमुख ग्रंथ रचना श्रुतपंचमी कथा है |   


आचार्य ललितकीर्ति

आपका समय काल उन्नीसवीं शताब्दी (१८२४) रहा है|

तीन खण्डों में महापुराण की टीका एवं चौबीस रचनाओं का उल्लेख है |  


 वर्तमान जैन आचार्य परंपरा 

श्री आदिसागर जी [अंकलीकर]


श्री आदिसागर जी [अंकलीकर]

आप बीसवीं शताब्दी के प्रथम आचार्य हुये, आपके द्वारा चरित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज की ऐलक दीक्षा के संस्कार हुये| पंचमकालीन अन्य श्रमणों की तरह आपका साधना काल किसी जिनालय या वसतिका में नहीं अपितु चतुर्थकालीन श्रमणों की तरह, पर्वतों की चोटी, नदियों के तट, घनघोर वनों में वृक्षों की कोठर, या पर्वतों की गुफाओं में आपने निर्लिप्त साधना को साधा।

                    पूज्य आचार्य श्री सात दिन के पश्चात एक बार आहार चर्या हेतु समीपस्थ नगर अथवा ग्राम में आया करते थे, और सात दिन के पश्चात् जो आहार होता था वो भी एक ही वस्तु का होता था। अर्थात् वो आहार में मात्र एक वस्तु ग्रहण करते थे। एवं आहार के पश्चात पुनः 7 दिन के लिये निर्जन बन गुफा आदि में जाकर अपनी आत्म साधना में संलग्न हो जाते थे। पूरे साधु जीवन में आपकी आहार चर्या का ऐसा ही क्रम चलता रहा। ऐसे महान आचार्य भगवंत के विषय में आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज कहा करते थे कि जब हमारे गांव में आचार्य श्री आदिसागर जी आहार चर्या हेतु आते थे वो बो बचपन में अपनी माँ के साथ उनको आहार कराते थे एवं आहार चर्या के बाद अपने मजबूत काँधों पर आचार्य श्री आदिसागर जी को बैठाकर वेदगंगा और दूधगंगा नदी पार कराके गाँव से बाहर  तक पहुँचाकर आते थे। आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज उनकी विरक्त निर्दोष चर्चा से खूब प्रभावित रहते थे।

वर्तमान में प्रचलित आचार्य परम्पराओं में से सबसे वृहद आचार्य परम्परा आपकी ही दृश्टिंगत होती है| १८ भाषाविज्ञ आचार्य श्री महावीरकीर्ति महामुनिराज, वात्सल्य रत्नाकर श्री विमल सागर जी महामुनिराज, तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मति सागर जी महामुनिराज, शुद्धोपयोगी संत आचार्य श्री विराग सागर जी महामुनिराज, परम पूज्य जिनागम पंथ प्रवर्तक भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी महामुनिराज- ये सभी आपकी गौरान्वित आचार्य परंपरा के नायब हीरे, आपकी ही देन है| 

आपकी लेखनी से अनेक कृतियों का उदय हुआ, जो निम्न है:

1. प्रायश्चित्त विधान- 

यह प्राकृत भाषा में लिखी गयी आपकी कृति सूरी जगत में समादृत एवं सर्वमान्य है| यह कृति आपकी लेखनी से भाद्रपद शुक्ला पंचमी वि.सं. 1972 सन् 1915 में प्रस्तुत हुई।

2. जिनधर्म रहस्य-  

यह ग्रंथ आपके द्वारा संस्कृत भाषा में सृजित हुआ और इस ग्रंथ की रचना मग़शिर शुक्ला दोज. बि. सं. 1999, सन् 1943 में हुई।

3. दिव्य देशना-  

यह कृति आपकी मूल भाषा कन्नड़ में लिखी गई। जिसका रचना काल मगशिर शुक्ला एकादशी बि.सं. 1999, सन् 1942 रहा।

4. शिवपथ- 

जिनागम पंथ की उद्घोषक पूज्य आचार्य प्रवर की यह संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध कृति श्रमण जगत के लिये अमृत्य निधि भाद्रप्रद चतुर्थी, वि.सं. 2000, सन् 1943 में सृजित हुई।

5. वचनामृत-

अरिहंत शासन के महत्वपूर्ण सूत्रों का समावेश कर पूज्य आचार्य श्री ने मराठी भाषा में यह ग्रंथ लिखा। इसका रचनाकाल माघ शुक्ल चतुर्दशी वि.सं. 2000, सन् 1943 प्राप्त है।

6. उद्बोधन- 

यह भी एक कन्नड़ भाषा में लिखी गई पूज्य आचार्य श्री की अमर कृति है। इसकी रचना फाल्गुन शुक्ला एकादशी वि.सं. 2000 सन् 1943 में हुई।

7. अंतिम दिव्य देशना- 

इस कृति में उस समय के मंगल उपदेश को संकलित किया गया है जो पूज्य आचार्य श्री ने अपनी मातृभाषा कन्नड़ में फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी वि.सं. 2001 सन् 1944 के दिन, समाधि के पूर्व समाज हित में प्रदान किया था।

             आचार्य श्री ने इनके अलावा और अनेक स्फुट रचनायें की थीं, जो उपलब्ध नहीं हो सकी। प.पू. आचार्य श्री एक कालजयी साधक थे जिनका अप्रतिम साधनाकाल अनेकों घोर उपसर्ग और परिषहों के बीच समत्व की डगर पर वर्धमान रहा।

             पूज्य आचार्य श्री ने आश्विन शुक्ला दसमी, विक्रम सं. 2001, सन् 1943 को अपने सुयोग्य शिष्य 18 भाषाओं के ज्ञाता, मुनि श्रेष्ठ श्री महावीर कीर्ति जी को अपना आचार्य पद प्रदान कर सल्लेखना की ओर अग्रसर हुये एवं फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी के दिन कुंजवन उदगाँव में आपने एक आदर्श समाधि मरण किया।

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चरित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज


चरित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज

श्री शांतिसागर जी महाराज ने दिगंबर परंपराओं की परंपराओं को बनाए रखने, मजबूत करने और स्थापित करने में बहुत योगदान दिया। उन्होंने दिगंबर जैन संप्रदाय के चरित्र और कुछ मान्यताओं को पुनर्जीवित किया|

उनका जन्म 1871 ई. में दक्षिण भारत के बेलगाम जिले के बेलगुल गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम श्रीमती सत्यवती (सत्यभामा) और पिता का नाम श्री भीमगोंडा था। उसका नाम सतगोंडा रखा गया। बचपन से ही वे घरेलू मामलों से अलग हो गए थे और धार्मिक समारोहों और अनुष्ठानों में सक्रिय भाग लेते थे।

सतगोंडा की शादी महज नौ साल की उम्र में छह साल की लड़की से हो गई थी लेकिन शादी के छह महीने के अंदर ही लड़की की मौत हो गई। फिर उन पर दूसरी शादी के लिए दबाव डाला गया लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूप से मना कर दिया और जीवन भर पूर्ण, स्पष्ट और पवित्र ब्रह्मचर्य का पालन किया।

शांतिसागर जी 17 साल की उम्र में दीक्षा को गोद लेना चाहते थे लेकिन उनके माता-पिता की सहमति नहीं होने के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। 32 वर्ष की आयु में  वे समदशिखरजी की महान तीर्थ यात्रा पर गए। इस तीर्थ यात्रा की स्मृति में उन्होंने जीवन भर घी और खाद्य तेल नहीं खाने का संकल्प लिया। तीर्थयात्रा से लौटने पर उन्होंने एक दिन में केवल एक बार भोजन करने का संकल्प लिया। उनके पिता भगवान अरिहंत का नाम लेते हुए नश्वर शरीर को छोड़ दिया। सतगोंडा इस समय 37 वर्ष के थे। उनकी मां भी तीन साल बाद ध्यान-मृत्यु को अपनाकर चल बसीं। इसके बाद वे कुछ वर्षों तक घर में रहे और स्थायी दीक्षा के लिए खुद को तैयार किया।

जब दिगंबर मुनिराज श्री देवपा स्वामी (देवेंद्र कीर्तिजी महाराज) उत्तर गांव आए, तो सतगोंडा ने उनसे दीक्षा के लिए अनुरोध किया। विद्वान संत ने उन्हें समझाया कि निर्ग्रन्थ दीक्षा धारक (संपत्ति रहित भिक्षुक) होना एक कठिन मार्ग है और इस दीक्षा को ईमानदारी से अपनाने से आत्मा को सांसारिक मामलों में वापस आने का कोई डर नहीं है। तत्पश्चात गुरुदेव देवपा स्वामी की सलाह एवं मार्गदर्शन के अनुसार श्री सतगोंडा ने 1915 ई. में 43 वर्ष की आयु में उत्तर गांव में दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने पहनने के लिए केवल दो कपड़े और भिक्षा मांगने और खाने के लिए भीख मांगने के बाद सब कुछ छोड़ दिया। सतगोंडा अब घर और परिवार के बंधनों से मुक्त हो गया था। वह अब अपने और दूसरों के लिए शाश्वत स्वतंत्रता की तलाश में पृथ्वी पर घूमने लगा। गिरनार पर्वत पर  श्री शांतिसागरजी महाराज ने ऐलक दीक्षा को अपनाया| 

एक बार नियमित रूप से चलते हुए, महाराज परनाल गाँव में आए, जहाँ देवेंद्र कीर्ति महाराज ने उन्हें पंच कल्याण प्रतिष्ठा महोत्सव के दीक्षा-कल्याणक के पावन दिवस पर उन्हें हजारों अनुयायियों और शिष्यों की उपस्थिति में दीक्षा का उच्च स्तर प्रदान करके मुनि शांतिसागर की उपाधि के साथ, महाराज शांतिसागर उस समय 45 वर्ष के थे। 

अपने व्रतों को बहुत सख्ती से निभाते हुए, उन्होंने दक्षिण की ओर रुख किया और उन सभी स्थानों पर धर्म का विस्तार किया, जहाँ से वे गुजरे थे। उन्होंने लोगों को कुरीतियों से दूर रहने की सलाह दी। जैन समुदाय ने उन्हें 52 वर्ष की आयु में आचार्य की उपाधि दी; और 26 साल बाद 1951 में महाराष्ट्र के गजपंथ में पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के पवित्र समारोह में आचार्य श्री शांतिसागरजी को चरित्र चक्रवर्ती का और पुरस्कार दिया गया। 

1928 में आचार्य श्री शांतिसागर जी अपने शिष्यों और अनुयायियों के साथ सम्मेद शिखर की तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े। कई शताब्दियों के बाद यह पहला अवसर था कि उत्तर भारत में आधिपत्य रहित भिक्षुओं का एक बड़ा समूह घूम रहा था और इस क्षेत्र में धार्मिक उत्साह की तीव्र लहर थी। उन्हें सभी स्थानों और मंचों में सम्मानित किया गया।

आचार्य श्री शांतिसागरजी ने जीर्ण आगम पुस्तकों को ताम्रपत्र पर फिर से लिखा और यह उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य था। आचार्यश्री ने धार्मिक उपदेश और संयमित जीवन से आम लोगों पर गहरी छाप छोड़ी थी। सांगली, फल्टन, कोल्हापुर, प्रतापगढ़, इदर, धौलपुर और अन्य राज्यों के शासक उसे देखने आते थे। यहाँ तक कि कई यूरोपीय अधिकारी भी आचार्य जी की ओर आकर्षित हुए।

उन्होंने गजपंथ क्षेत्र में भगवान जिनेंद्र की उपस्थिति में सन्न्ल्लेखाना का 12 साल का व्रत अपनाया था और तब से उन्होंने भोजन करना बंद कर दिया था। 1955 ई. में जब उनकी आंखों की रोशनी कमजोर होने लगी तो उन्होंने सल्लेखना व्रत को अपनाने की तैयारी शुरू कर दी थी। पहले आठ दिनों में, उन्होंने प्रतिदिन केवल दो बिट भोजन लिया। फिर आठ दिनों तक केवल काले अंगूरों का रस लेते थे और उसके बाद केवल पानी लेते थे। उन्होंने चार दिन के अंतराल पर तो कभी पांच और छह दिन के अंतराल पर पानी लिया। यह सिलसिला करीब दो महीने तक चलता रहा। जब वह बिल्कुल कमजोर हो गया और किसी की मदद के बिना खड़ा भी नहीं हो पा रहा था, तो उसने यम-सन्न्ल्लेखाना को अपनाया और जीवन के अंत तक पानी लेना बंद कर दिया।

इन दिनों वह महाराष्ट्र के सांगली जिले में कुंतलगिरि पवित्र स्थान पर थे। दो महीने के भीतर एक लाख से अधिक लोगों ने उनके दर्शन किए। 18 सितंबर 1955 ई. उन्होंने अपने निधन के पांच मिनट पहले ही जिनेंद्र मूर्ति को अपने हाथ से छुआ था और अपना सिर अपने पैरों की ओर ले गए थे। वह “नमः सिद्धेभ्य: -” कह रहे थे – जब उन्होंने अंतिम सांस ली तो निरपेक्ष का सम्मान किया।

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आचार्य श्री 108 शांतिसागर छाणी (उत्तर)


आचार्य श्री 108 शांतिसागर छाणी (उत्तर)

दिगंबर के रूप में दीक्षा लेना संयम का सर्वोच्च रूप है। बीसवीं शताब्दी में, जैन ऋषि परंपरा कुछ हद तक अवरुद्ध थी, खासकर उत्तर भारत में। शास्त्रों में अध्ययन करने वाले राजाओं का स्वभाव, उनका दर्शन असंभव हो गया। यह असंभव तीन महान आचार्यों द्वारा संभव किया गया, जो हैं-

आचार्य आदिसागर अंकलीकर,

आचार्य शांति सागर (चरित्र चक्रवर्ती) और

आचार्य शांति सागर छाणी।

इसमें दोनों सूर्यों का उदय आचार्य शांति सागर (चरित्र चक्रवर्ती) और आचार्य शांति सागर छाणी को समकालिक किया गया। उनके नाम में क्या संयोग है। दोनों आचार्यों ने पूरे भारत में मुनि धर्म और मुनि परंपरा का विस्तार किया है। यहां तक ​​कि व्याबर (राजस्थान) में भी चातुर्मास में दोनों का मिलन एक साथ हुआ था।

प्रशांत मूर्ति आचार्य शांति सागर जी छारानी (उत्तर) का जन्म कार्तिक वादी एकादशी विक्रम संवत 1975 (वर्ष 1979) को ग्राम छनी जिला उदयपुर (राजस्थान) में हुआ था। उनके बचपन का नाम केवलदास जैन था। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। मृत्यु के बाद, उन्होंने छाती पीटने की प्रथा, दहेज प्रथा, बलि प्रथा आदि का कड़ा विरोध किया। छनी के जमींदार ने उनके अहिंसा व्याख्यानों से प्रभावित होकर राज्य में हमेशा के लिए हिंसा पर प्रतिबंध लगा दिया था और स्वीकार कर लिया था। उन्होंने मूलाधना, आगम दर्पण, शांति शातक, शांति सुधा सागर आदि कई पुस्तकें लिखीं, जिनका प्रकाशन समाज द्वारा किया गया।

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