सप्तपरमस्थान व्रत विधि


सज्जाति: सद्गार्हस्थ्यं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता।

साम्राज्यं परमार्हन्त्यं परिनिर्वाणमित्यपि।।

सज्जाति, सद्गार्हस्थ्य, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, आर्हन्त्य और निर्वाण ये सात परम-सर्वोत्तम स्थान माने गये हैं। माता-पिता के वंश परम्परा की शुद्धि सज्जाति है। श्रावकाचार क्रियायुक्त श्रावक सद्गृहस्थ है। रत्नत्रय की पूर्ति हेतु जैनेश्वरी दीक्षा लेना पारिव्राज्य स्थान है। पंडितमरण से समाधिपूर्वक मरण कर देवेन्द्र होना सुरेन्द्रत्व परम स्थान है। वहाँ से च्युत होकर चक्रवर्ती के वैभव को प्राप्त करना साम्राज्य स्थान है। तीर्थंकर पद को प्राप्त करना आर्हन्त्य स्थान है। अनंतर संपूर्ण कर्मों से छूटकर सिद्धपद प्राप्त कर लेना निर्वाण परम स्थान है। यह व्रत श्रावण सुदी प्रतिपदा से श्रावण सुदी सप्तमी तक किया जाता है। व्रत के दिन अभिषेक, जाप्य, कथा श्रवण, दान आदि कार्यों को करना चाहिए। सातों दिन एक ही वस्तु का सेवन किया जाता है। विधिवत् व्रत करने के उपरांत उद्यापन किया जाता है। इस व्रत का फल उत्तम जाति, ऐश्वर्य, गार्हस्थ्य, उत्तम तप, इन्द्र पद, चक्रवर्ती पद, अर्हंत पद की प्राप्ति होती है। संसार में निर्वाण ही श्रेष्ठ पद है। इस व्रत से यह सातवाँ परमपद भी प्राप्त हो जाता है। यह व्रत लौकिक अभ्युदय के साथ-साथ निर्वाण पद को भी देने वाला है।

प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक निम्नलिखित जाप्य क्रम से करना चाहिए।

१. ॐ ह्रीं अर्हं सज्जातिपरमस्थानप्राप्तये श्री ऋषभजिनेन्द्राय नम:।

२. ॐ ह्रीं अर्हं सद्गृहस्थपरमस्थानप्राप्तये श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नम:।

३. ॐ ह्रीं अर्हं पारिव्राज्यपरमस्थानप्राप्तये श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय नम:।

४. ॐ ह्रीं अर्हं सुरेन्द्रपरमस्थानप्राप्तये श्री पार्स्वनाथजिनेन्द्राय नम:।

५. ॐ ह्रीं अर्हं साम्राज्यपरमस्थानप्राप्तये श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय नम:।

६. ॐ ह्रीं अर्हं आर्हन्त्यपरमस्थानप्राप्तये श्री शांतिनाथजिनेन्द्राय नम:।

७. ॐ ह्रीं अर्हं निर्वाणपरमस्थानप्राप्तये श्री महावीरजिनेन्द्राय नम:।

व्रत के लिए उत्तम तो उपवास ही है, यदि शक्ति न हो तो एक वस्तु का भोजन करना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक-पूजन करके सप्तपरमस्थान पूजन करना चाहिए। रात्रि में जागरण आदि करते हुए धर्मध्यान में सारा समय व्यतीत करना चाहिए।

कथा

जम्बूद्वीप के अन्तर्गत इसी भरतक्षेत्र में कांभोज नाम का एक देश है। उसमें भूमितिलक नगर है। वहाँ पर देवपाल राजा राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। यहाँ के राजश्रेष्ठी धनदत्त थे और उनकी सेठानी का नाम धनश्री था। एक समय जिनमंदिर में पूजन करके सेठ दम्पती ज्ञानसागर मुनि के पास पहुँचे, उन्हें नमोस्तु-वंदना आदि करके धर्मोपदेश सुना। पुन: बोले-हे भगवन््! मुझे संसार समुद्र से पार होने के लिए कोई एक व्रत दीजिए। मुनिराज ने सप्तपरमस्थान व्रत की विधि समझाकर व्रत दिया। पुन: वे बोले-हे गुरुदेव! पूर्व में यह किसने किया है? मुनिराज ने इस पर एक कथा सुनाई। इसी भरतक्षेत्र के अन्तर्गत नेपाल देश में ललितपुर नामक एक नगर है। वहाँ पर भूपाल नामक राजा की रानी का नाम विशाला था। संतान न होने से ये हमेशा खिन्न रहा करते थे। एक समय देशभूषण महामुनि के दर्शन करके धर्मोपदेश सुना। पुन: प्रश्न किया-हे भगवन्! हमारे पुत्र संतान होगी या नहीं? महामुनि ने कहा-तुम्हारे महापुण्यशाली एक पुत्र होने वाला है। राजा ने कहा-भगवन्! उसने पूर्व में क्या पुण्य किये हैं? मुनिनाथ ने कहा-सुनो…… हस्तिनापुर नगर में रुद्रदत्त नाम का एक धर्मात्मा सेठ रहता था। उसकी भार्या का नाम रुद्रदत्ता था। इनके सोलह पुत्र थे। सेठ ने पुत्रों का विवाह करके प्रत्येक को १८-१८ करोड़ द्रव्य दिया और अपनी पत्नी को दान-पूजन आदि के लिए ८ करोड़ द्रव्य दे दिया। आप स्वयं ३२ करोड़ द्रव्य से जिनमंदिर, जिनप्रतिमाएं बनवाकर प्रतिष्ठा करवार्इं, तीर्थयात्रा, ग्रंथलेखन, नित्य पूजन और जीर्णोद्धार आदि में सब द्रव्य खर्च करके आप जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अंत में मरणकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। इधर इनके सोलह पुत्रों में से सातवाँ पुत्र नागसेन था। उसने अपने धन को सप्तव्यसनों में लगाकर दरिद्रावस्था प्राप्त कर ली। पुन: मर्वâट वैराग्य से दीक्षित हो गया। फिर भी संयम से भ्रष्ट होकर संघ विरोधी, कलहप्रिय, स्वेच्छाचारी हो गया। आर्त-रौद्रध्यान से मरकर चौथे नरक में चला गया, वहाँ से आकर कुत्ता हुआ, जिसके सारे शरीर में कीड़े पड़ गये और बहुत ही दुर्गन्धि आती थी। कदाचित् पाप के कुछ मन्द होने से हस्तिनापुर में व्यास नाम के मिथ्यातापसी की विमलगंगा पत्नी से जन्म लेकर मनोहर नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी शहर के कुबेरकान्त सेठ और कनकमाला सेठानी के धनदेव नाम का एक पुत्र था। इन दोनों में मित्रता हो गई। दोनों एक गुरु के पास जैन शास्त्रों का अभ्यास करने लगे। एक दिन नगर के नन्दनवन में ज्ञानसागर नामक दिगम्बर मुनि आये हुए थे। इनके पास पहुँचकर दोनों यथोचित वंदना भक्ति करके वहाँ उपदेश सुनने लगे। मुनिराज सप्तपरमस्थान का महत्व और उसके व्रत की विधि समझा रहे थे। उस समय वहाँ पर बहुतों ने यह व्रत ग्रहण किया। तापसी पुत्र मनोहर ने भी यह व्रत ले लिया और उसका विधिवत् पालन किया। इस व्रत के फल से वही जीव तुम्हारी भार्या के गर्भ में आने वाला है। कुछ दिन बाद विशालारानी ने पुत्र रत्न को जन्म दिया, उसका ‘श्रीपाल’ नामकरण हुआ। श्रीपाल ने अपने जीवन में पुनरपि इसी व्रत का पालन किया। आगे व्रत के माहात्म्य से सप्तपरमस्थान के ऐश्वर्य को प्राप्त करते हुए अन्त में निर्वाण पद को प्राप्त कर लिया।