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 श्री दानवीर तीर्थभक्त रायबहादुर जैन सम्राट
(1874-1973)
श्रीमंत सरसेठ हुकमचंद जैन


  • सरसेठ हुकमचन्द जैन का जन्म 1874 में इन्दौर के कासलीवाल परिवार में हुआ था। आप भारतीय उद्योग के एक अग्रणी व्यापारी थे तथा लगभग 50 वर्षों तक जैन समुदाय के प्रमुख नेता थे। आपका धार्मिक और सामाजिक सेवा में अद्वितीय स्थान है।
  • आपने जैन तीर्थ की रक्षा एवं अनेक मंदिरों के जीर्णोद्धार का कार्य बड़ी तत्परता से कराया।
  • वे अपने प्रभाव से धार्मिक एवं सामाजिक मुद्दों को बहुत आसानी से सुलझा दिया करते थे।
  • आप जैन मुनियों के परम भक्त थे, धार्मिक कार्यों में अधिक समय व्यतीत करते थे।
  • आपको सन् 1915 में रायबहादुर बनाया गया था 1919 में सर नाईट के शीर्षक के साथ सम्मानित किया गया। इंदौर के शासकों ने आपको राज्यभूषण रावराजा और राज्य रत्न के शीर्षक से सम्मानित किया था।आप गरीबों, किसानों के हमेशा मददगार रहे।
  •  सेठ साहब के दान का विशाल प्रभाव कई दिशाओं में प्रवाहित हुआ जबेरी बाग विश्रांति भवन, महाविद्यालय, बोर्डिग हाऊस, श्री सौ. कंचनवाई श्राविकाश्रम, प्रिंस यशवंतराव औषधालय भोजनशाला, प्रसूतिका गृह आदि कई प्रख्यात संस्थायें सेठ साहब के उदार दान से संचालित हुई।
  • कठिन से कठिन परिस्थिति में भी आप सागर के समान गंभीर और हंसमुख रहा करते थे। अविचल सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य निष्ठा, उदारता, निरभिमानता, धार्मिकता एवं परोपकारिता तथा मितव्ययता आपके असाधारण गुण थे। शील और संयम के लिए सेठ साहब धनिक समाज में आदर्श माने जाते थे।
  • इंदौर, कलकत्ते आदि में आपके बड़े बड़े रुई जूट, स्टील के कारखाने और बम्बई उज्जैन आदि शहरों में बड़ी-बड़ी कोठियां है आपके करोड़ों का व्यापार देश-विदेश में फैला हुआ था और हजारों आदमी उनमें काम करते थे।
  • आचार्य शांतिसागरजी महाराज से ६०वर्ष की अवस्था में आपने ब्रह्मचर्य व्रत लिया था सेठ साहब को बाल्य काल से ही धर्म शास्त्र पढ़ने व धर्मचर्चा करने की बहुत रुचि थी। धर्मात्मा पुरुषों के मिलने से आपका ह्रदय पुलकित हो जाता था। आप विद्वानों का सम्मान सदैव बनाये रखते थे। आपने स्वयं कितने ही शास्त्रों का अध्ययन किया।
  • शीलव्रत के प्रभाव से व निरंतर व्यायाम के अभ्यास से आपकी शारीरिक सम्पत्ति ६०वर्ष की अवस्था में भी नौजवनों से कही अधिक सुदृढ़ थी और आपके चेहरे पर एक प्रकार की दिव्य कांति और तेज सदैव चमकता रहता था |
  • सेठ साहब अपने जीवन .के अंतिम समयों में शरीर की समस्त मूल्यवान वस्तुओं का त्याग कर धोती दुपट्टे में रहते थे अंतिम समय शांतिपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए बीता।
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