श्रवण द्वादशी व्रत


श्रवणद्वादशीव्रतस्तु भाद्रपदशुक्लद्वादश्यां तिथौ क्रियते। अस्य व्रतस्यावधि: द्वादशवर्षपर्यन्तमस्ति। उद्यापनान्तरं व्रतसमाप्तिर्भवति।

अर्थ- श्रवणद्वादशी व्रत भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को किया जाता है। यह व्रत बारह वर्ष तक करना पड़ता है। उद्यापन करने के उपरान्त व्रत की समाप्ति की जाती है।

विवेचन-

श्रवण द्वादशी व्रत के दिन भगवान वासुपूज्य स्वामी की पूजा, अभिषेक और स्तुति की जाती है। नित्यनैमित्तिक पूजा-पाठों के अनन्तर गाजे-बाजे के साथ भगवान वासुपूज्य स्वामी की पूजा करनी चाहिए। इस व्रत में चार बार-तीनों संध्याओं और रात में लगभग दस बजे ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लूं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय नम: स्वाहा’ इस मंत्र का जाप करना चाहिए। प्राय: इस द्वादशी तिथि को श्रवण नक्षत्र भी पड़ता है, इसी कारण इस व्रत का नाम श्रवणद्वादशी पड़ा है। क्योंकि यह द्वादशी श्रवण नक्षत्र से युक्त होती है। इस व्रत की सामान्य विधि अन्य व्रतों के समान ही है परन्तु विशेष यह है कि यदि श्रवण नक्षत्र त्रयोदशी को पड़ता हो या एकादशी में ही आ जाता हो तथा द्वादशी को श्रवण नक्षत्र का अभाव हो तो द्वादशी के व्रत के साथ श्रवण नक्षत्र के दिन भी व्रत करना चाहिए। यों तो प्राय: द्वादशी तिथि को श्रवण आ ही जाता है। ऐसा बहुत कम होता है, जब श्रवण एक दिन आगे या एक दिन पीछे पड़ता है। द्वादशी तिथि व्रत के लिए छह घटी प्रमाण होने पर ही ग्राह्य है। यदि कभी ऐसी परिस्थिति आवे कि श्रवण द्वादशी में श्रवण नक्षत्र न मिले, तो उस समय अस्तकालीन तिथि भी ग्रहण की जा सकती है। द्वादशी को प्रात:काल में श्रवण नक्षत्र का होना आवश्यक नहीं है, किसी भी समय द्वादशी और श्रवण का योग होना चाहिए। ज्योतिषशास्त्र में भाद्रपद शुक्ला द्वादशी और श्रवण नक्षत्र के योग को बहुत श्रेष्ठ बताया है। इसका कारण यह है कि श्रावण मास में पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र पड़ता है तथा भाद्रपद मास में पूर्णिमा को भाद्रपद नक्षत्र। द्वादशी श्रवण से संयुक्त होकर विशेष पुण्यकाल उत्पन्न करती है, क्योंकि श्रवण नक्षत्र मासवाली पूर्णिमा के पश्चात् प्रथम बार द्वादशी के साथ योग करता है, चन्द्रमा नीच राशि से आगे निकल जाता है और अपनी उच्च राशि की ओर बढ़ता है। द्वादशी तिथि को यों तो अनुराधा नक्षत्र श्रेष्ठ माना जाता है, परन्तु भाद्रपद मास में श्रवण ही श्रेष्ठतम बताया गया है। इस कारण श्रवण से संयुक्त द्वादशी कल्याणप्रद, पुण्यकारक और जीवन मार्ग में गति देने वाली होती है। अपनी मासान्त की पूर्णिमा के संयोग के पश्चात् श्रवण प्रथम बार जिस किसी तिथि से संयोग करता है, वही तिथि श्रेष्ठ, पुण्योत्पादक और मंगलप्रद मानी जाती है। श्रवण की यह स्थिति भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को ही आती है, अत: यह व्रत महान् पुण्य को देने वाला बताया गया है। श्रवणद्वादशी व्रत का माहात्म्य जैनियों में भी बहुत अधिक माना गया है। इस व्रत को प्राय: सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपनी सौभाग्य-वृद्धि, सन्तान प्राप्ति तथा अपनी ऐहिक मंगलकामना से करती हैं। इस व्रत की अवधि बारह वर्ष तक मानी गयी है, बारह वर्ष तक विधिपूर्वक व्रत करने के उपरांत व्रत का उद्यापन करना चाहिए। मुकुटसप्तमी, निर्दोषसप्तमी और श्रवणद्वादशी ये सब व्रत वर्ष में एक बार ही किये जाते हैं। जो तिथियाँ इनके लिए निश्चित की गई हैं, उन-उन तिथियों में ही उन्हें सम्पन्न करना चाहिए। श्रवणद्वादशी व्रत के दिन वासुपूज्य भगवान के पंचकल्याणकों का चिन्तन करना चाहिए।