मेरु पंक्ति व्रत विधि


पाँच मेरु संबंधी ८० चैत्यालयों के व्रत मेरू पंक्ति व्रत मे किये जाते हैं, इस व्रत का प्रारंभ श्रावण मास से माना जाता है। युग या वर्ष का प्रारंभ प्राचीन भारत में इसी दिन से होता है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से प्रारंभ कर लगातार २२० दिन तक यह व्रत किया जाता है।

इसकी विधि-   पहले चार उपवास सुदर्शन मेरू के भद्रशालवन के चारों मंदिर संबंधी करने चाहिए, एक उपवास १ पारणा के क्रम से इसमें ८ दिन लगेंगे। पुन: भद्रशाल वन का १ बेला अर्थात् दो उपवास करना चाहिए। पुन: पारणा करके नंदनवन के चारों मंदिर संबंधी चार उपवास, चार पारणाएं व नंदनवन का बेला तथा पारणा होती है। पुन: सौमनसवन के ४ मंदिर संबंधी ४ उपवास, पारणाएं व १ बेला १ पारणा तथैव पांडुकवन संबंधी ४ मंदिर के ४ उपवास व पारणाएं तथा बेला पारणा होती है। इस क्रम से प्रथम सुदर्शनमेरु संबंधी- उपवास पारणा बेला पारणा ४ ४ १ १ ४ ४ १ १ ४ ४ १ १ ४ ४ १ १ (१६ उपवास ४ बेला व २० पारणाएं ४४ दिन में हुई) ऐसे ही द्वितीय विजयमेरु संबंधी भी उपवास विधि समझनी चाहिए। तथैव तृतीय अचलमेरु संबंधी, चतुर्थ मंदर मेरुसंबंधी व पंचम विद्युन्माली मेरु संबंधी उपवास क्रम होता है। सभी मिलकर ८० प्रोषधोपवास, २० बेलाएं और १०० पारणाएं की जाती हैं। पंचमेरु संबंधी दिनसंख्या-४४²५·२२० होती हैं। जिन्हें उपर्युक्त विधि से व्रत करने की शक्ति नहीं है, वे यथाशक्ति इन ८० उपवास व २० बेलाओं को कभी भी करके संख्या पूरी करके व्रत के फल को प्राप्त कर सकते हैं। इस व्रत के पूजन में मेरु की स्थापना करके विधिवत् पंचामृताभिषेक व पंचमेरू पूजनादि करके प्रत्येक मेरू संबंधी जाप्य करना चाहिए। इसका फल मेरु पर्वत पर अभिषेक प्राप्त करना अर्थात् तीर्थंकर पद प्राप्त करना बताया है। यह व्रत पूर्वोक्त विधि से करने से ७ महीने १० दिन तक करना पड़ता है, इसमें तिथि वृद्धि व तिथिक्षय से कोई बाधा नहीं आती है। सुगंधित पुष्पों से जाप्य करना चाहिए।

जाप्य-   प्रथम मेरु संबंधी व्रतों के दिनों में ‘‘ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरु संबंधि षोडशजिनालयेभ्यो नम:।’’ इस मंत्र का त्रिकाल जाप्य देना चाहिए।

द्वितीय मेरू संबंधी व्रतों के दिनों में-   ॐ ह्रीं विजयमेरुसंबंधिषोडशजिनालयेभ्यो नम:।

तृतीय मेरू संबंधी व्रतों के दिनों में-   ॐ ह्रीं अचलमेरुसंबंधि षोडश जिनालयेभ्यो नम:।

चतुर्थ मेरुव्रत में  ॐ ह्रीं मंदरमेरुसंबंधिषोडशजिनालयेभ्यो नम:।

पंचममेरुव्रत में-  ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुसंबंधिषोडशजिनालयेभ्यो नम:।

विशेष-   पारणा के दिनों में एक अनाज का ही प्रयोग करना चाहिए। फलों में सेब, नारियल, नारंगी आदि भी उपयोग कर सकते हैं। पूजन में नित्यपूजन, त्रिकाल चौबीसी, पंचमेरु, विद्यमान बीस तीर्थंकर, पंचपरमेष्ठी पूजन भी करें व रात्रि जागरण भी करना चाहिए तथा व्रत पूर्ण होने तक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना चाहिए। यह विशेषविधि व्रततिथि निर्णय से उद्धृत की है। उद्यापन में सोलह-सोलह प्रतिमा सहित पांचमेरु की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराना चाहिए अथवा ५-५ उपकरण आदि यथाशक्ति मंदिर में भेंट करके पंचमेरु का मंडलविधान करके व्रत पूर्ण करना चाहिए।