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महाराणा प्रताप और जैन धर्म


 

  • मेवाड़ प्रारम्भ से ही जैन धर्म की गतिविधियों का प्रमुख स्थान रहा है। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (१५४०-१५९७) के समय में भी मेवाड़ में जैनधर्म का व्यापक प्रभाव था।
  • इतिहास प्रसिद्ध दानवीर भामाशाह जैन प्रताप के बालसखा थे। दानवीर भामाशाह का सम्पूर्ण जीवन जैनधर्म के उच्च आदर्शों से अनुप्राणित था।
  • प्रताप के मन में जैनधर्म और उसकी मान्यताओं के प्रति भी आस्था थी। प्रताप के जीवन के प्रसंग जैनधर्म के प्रति उनके प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं। वे जैन मुनियों का बहुत आदर करते थे ।
  • प्रताप ने एक पत्र में लिखा था कि जैन मुनियों के उपदेश से अकबर ने जीव हिंसा पर प्रतिबंध लगाया। अहिंसा धर्म का ऐसा उद्योत सर्वत्र होना चाहिए।
  • प्रताप के समय में ही उनके प्रधानमंत्री दानवीर भामाशाह ने केशरिया जैन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। प्रताप के पुत्र व उत्तराधिकारी राणा अमरसिंह ने जैन मुनि के उपदेश से पर्युषण पर्व के दिनों में हिंसा नहीं करने का पट्टा जारी किया।
  • अनेक इतिहासकारों की प्रसिद्ध पुस्तकों में महाराणा प्रताप को पूर्ण शाकाहारी बताया है। स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए लम्बे समय तक जंगलों में रहे, वहाँ रहकर उन्होंने घास के बीज एवं वन्य अनाज की रोटियाँ खाईं।
  • शक्ति और शौर्य के धनी प्रताप को इतिहासकारों ने धर्मानुरागी बताया है। बाल्यावस्था से प्रताप को जैनधर्म का सामीप्य और सान्निध्य मिला। प्रताप के जीवन की अनेक विशिष्टताएँ जैनधर्म के सिद्धान्तों की फलश्रुति है।
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