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मन के मालिक बनें


मन की चंचलता आत्मा को कर्मों से बाँधती है। मन की गति को मापना किसी भी यंत्र से संभव नहीं है। मन पल-पल में स्थान बदलता है। मन को रोकना मनुष्य के लिये बड़े श्रम का काम है। जिसने अपने मन को रोकना सीख लिया, उसने अपने जीवन को खुशियों का उपहार भेंट किया है। मन को नियंत्रण में करना जितना कठिन है, उससे भी ज्यादा कठिन है मन को चंचल करने वाले निमित्तों से बचाना। जब तक इन अशुभ निमित्तों का त्याग संकल्प के सरोवर में स्नान नहीं करता, तब तक मन की चंचलता समाप्त नहीं होती। मन की निर्मलता ही सच्चे सुख की प्राप्ति का मार्ग है।

जो योगी मन को समाहित कर लेता है वह चारित्र को दृढ़ता से पालता है। जिसका मन चंचल होता है वह चारित्र की शुद्धि को प्राप्त नहीं हो पाता। वचन और काय से समृद्ध योगी जब तक मन की स्वच्छंदता पर अंकुश नहीं लगाता तब तक वह साधना के नाम पर मात्र चलनी में पानी भरने का अप्रयोजनीय श्रम करता है। स्वच्छंद मन संस्कारहीन दुष्ट अश्व की तरह होता है, जो चलता तो बहुत है किन्तु पहुँचता कभी नहीं मंजिल की उपलब्धि मन के मालिक स्वयं बनने से हो सकती है। अभी तो मन हमारा मालिक बन बैठा है, जो हमारी सुखमय जिंदगी को तबाह कर रहा है। हमें चाहिये कि हम मन के मालिक बनें, मन को अपना मालिक न बनायें। मन को मालिक बनाने का अर्थ है अपने आत्मगुण रूपी खजाने की चाबियाँ मन को सौंप देना। मन उद्दण्ड है, मन अधम है, मन पापी है, मन धोखेबाज है। मन को वश में रखना ही मालिक बनना है।


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