bhavlingisant.com

मन का परिवर्तन


मन कभी फूलों की सेज है, कभी काँटों का बिस्तर । मन कभी परमात्मा की प्रतिमा है, कभी खान का प्रस्तर। मन कभी आनन्द का सागर है कभी दुःख का सरोवर। मन कभी सत्य है, शिव है, सुन्दर है, तो कभी सत्य, शिव, सुन्दर का आलोचक और निन्दक। आदमी का मन सदैव चिंतन और मनन की पीठ पर बैठ सैर करता है। यदि चिन्तन अच्छा है, तो मन भी अच्छा होगा। यदि चिंतन खोटा है, बुरा है तो अच्छे मन की कामना बेमानी है।

मन का परिवर्तन सच्चे अर्थों में जीव का परिवर्तन है। मन में जब अच्छे विचार उठते हैं तो जीवन अच्छा बनने लगता है। मन में जब बुरे विचार पनपते हैं तो जीवन बुरा होने लगता है। अच्छे और बुरे विचारों का ज्ञान सम्यग्दृष्टि ही कर पाता है। अच्छे विचार सदैव अपने हित के साथ दूसरों का भी हित करना चाहते हैं। अपनी भलाई के साथ प्राणीमात्र का भी भला हो ऐसे विचार सम्यग्दृष्टि जीवों में दिखाई देते हैं। अज्ञानी जीवों की दो श्रेणी होती हैं। प्रथम वे जो दूसरों का सिर्फ अहित करना जानते हैं। दूसरे वे जो सिर्फ अपना भला करना जानते हैं। अच्छे जीवन के लिये हर आदमी को अपनी भलाई के साथ-साथ दूसरों की भलाई का ख्याल भी रखना चाहिये।

मन कभी अंधे की लकड़ी, कभी आँखों का चश्मा होता है। जिस प्रकार अंधे आदमी के हाथ की लकड़ी कभी यहाँ तो कभी वहाँ यानि यत्र-तत्र रखी जाती है। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवों का मन कभी यहाँ कभी वहाँ यानि यत्र-तत्र सर्वत्र घूमता है। कभी भी संतुष्ट और तृप्त नहीं होता। सम्यग्दृष्टि का मन आँखों का चश्मा है जिस प्रकार आँख की रोशनी जब कम हो जाती है, या दूरदृष्टि और निकट दृष्टि दोष से दूषित हो जाती है तो चश्मा आवश्यक हो जाता है। दोष भी चश्मे से दूर हो जाता है। नजर ठीक हो जाती है इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि का मन सदैव आत्मा के दोषों को दूर करता है। जिससे आत्मा शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है।

जिसका मन स्थिर हो जाता है, उसका जीवन भी मोक्ष सुख में स्थिरता को प्राप्त होता है। जब जीवन में संतोष आता है, तो मन स्वतः ही स्थिर होने  लगता है। मन की स्थिरता से ही जीवन में संतोष और सन्यास की घटना घटित होती है। मन की अस्थिरता से असंतोष जन्मता है। असंतोष की वृत्ति मन को चंचल करती है। चंचल मन सत्य, शांति और आनंद से दूर करता है।


Youtube/ Jinagam Panth Jain Channel

Scroll to Top