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भोग में आकर्षण


आकर्षण का परिणाम दुःख है। चित्त में आकर्षित होने की विकृति है। आकर्षण के द्वार हमारी इन्दियाँ हैं। इन्द्रियों की खिड़कियों से मन झाँकता है। जिस वस्तु को भी चित्त देखता है, उसके प्रति आकर्षित हो जाता है। चित्त का वस्तु के प्रति आकर्षित होना राग है। वस्तु किसी को आकर्षित नहीं करती, राग के कारण वस्तु में आकर्षण दिखाई देता है। वस्तु का स्वभाव आकर्षण या विकर्षण से अच्छा या बुरा नहीं होता। मन ही राग के कारण वस्तु में अच्छे या बुरे की कल्पना करता है। हमारी यह झूठी कल्पनायें सुख या दुःख के रूप में साकार होती हैं।

आकर्षित होना चित्त का स्वभाव है। यदि चित्त देह को देखेगा, रूप को देखेगा । पदार्थ को देखेगा। झील, नदी, समुद्र को देखेगा तो उसी के प्रति आकर्षित हो जायेगा। इन वस्तुओं में रमने, पाने, निकट होने के लिये मचल उठेगा। यदि चित्त को इन वस्तुओं से रोककर परमात्मा की भक्ति, आराधना में लगा दिया जाये, तो निश्चित ही चित्त परमात्मा में आकर्षित होगा। चित्त को आकर्षित होने के लिये आधार चाहिये। जिंद खाली नहीं बैठता, कुछ न कुछ कार्य चाहिये। अच्छा कार्य दो तो अच्छा करेगा। बुरा कार्य दो, तो बुरा कार्य करेगा। इसी प्रकार मन का स्वभाव है। उसे परमात्म भक्ति में लगाओगे, तो धीरे-धीरे परमात्मा के प्रति आकर्षित होगा। यदि पदार्थ में लगाओगे, तो पदार्थ में आकर्षित होगा। मोहनीय कर्म जब तक जिंदा है, मन का आकर्षित होना तब तक चलता रहेगा। मोहनीय कर्म को मारने के लिये चित्त को भक्ति आराधना में आकर्षित कराना होगा।

जीवन थोड़ा है। पदार्थ के प्रलोभन में व्यर्थ ही खो रहा है। रूप के आकर्षण में चित्त तड़प रहा है। जीवन का आनन्द देह की चिन्ता में जल रहा है। अन्तस के सौंदर्य को भी पहिचानो। आत्मा में चित्त को आकर्षित करो। भोग का परिणाम सुख नहीं दुःख है। भोग में शान्ति नहीं अशान्ति है। भोग में प्रेम नहीं आत्मा से विद्रोह है। सज्जनों की आसक्ति भक्ति में, दुर्जनों की भोग में होती है।

 


Youtube/ Jinagam Panth Jain Channel

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