प्रशंसा की चाह
मनुष्य का मन प्रशंसा की चाह करता है। प्रशंसा मनुष्य के मन की कमजोरी है। प्रशंसा की चाह इंसान को लक्ष्य से भटका देती है। प्रशंसा से मनुष्य प्रमादी हो जाता है। प्रशंसा की चाह रखने वाले लोग कभी मंजिल को उपलब्ध नहीं होते। इसलिये प्रशंसा के जाल में न फंसकर हमें अपने लक्ष्य की ओर गतिशील रहना चाहिये।
जिसे अपने कर्म और भाग्य पर विश्वास होता है, वह कभी प्रशंसा के मकड़जाल में नहीं फँसता। प्रशंसा को मार्ग का अवरोधक समझता है। प्रशंसा में सत्य नहीं होता, जो सत्य होता है, वह स्वयं प्रशंसा प्राप्त कर लेता है। हमें सदैव सत्य की चाह करना चाहिये, जिससे शांति प्राप्त हो सके। प्रकृति प्रशंसा नहीं परोपकार करना कर्तव्य समझती है। विकृति प्रशंसा से पुलकित होती है। मनुष्य का मन जब प्रकृति से जुड़ता है तो सत्य प्रकट होता है। जब विकृति से जुड़ता है, तो प्रशंसा के शूलों की चुभन मिलती है।
दुनियाँ प्रशंसा को फूल और निंदा को शूल समझती है, जो जीवन की सबसे बड़ी भूल है। यदि सच कहें तो प्रशंसा शूल और निंदा फूल है। प्रशंसा की उपलब्धि होने पर मनुष्य में तृष्णा जन्मती है। प्रशंसा मिलने पर प्रशंसा की प्यास बढ़ जाती है, जबकि निंदा मिलने पर पुनः निंदा की चाह कोई नहीं करता। निंदा मनुष्य को प्रशंसा से मुक्त कर जीवन बोध की शिक्षा देती है। हमें निंदा होने पर बोध से भरना चाहिये। प्रशंसा होने पर साम्य को प्राप्त करना चाहिये। जो आनन्द की चाह रखता है, उसे प्रशंसा की चाह कभी नहीं करना चाहिये।
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