निर्दोष आलोचना से समाधि
दूसरों को तिरस्कृत करने के लिये आलोचना करना महापाप हैं। यूँ तो मनुष्य कदम-कदम पर पाप के कृत्य करता है। कभी हिंसा, तो कभी झूठ। कभी चोरी तो कभी कुशील सेवन। कभी परिग्रह के लिये बिना विचारे दौड़-धूप। इन सभी पापों को जीव एक-दिन में कहीं न कहीं करता जरूर है। इन पाँच पापों से बच पाना अत्यंत कठिन है। फिर भी धन्य हैं वे प्राणी जिन्होंने इन पाँच पापों का त्याग कर सत्य से अनुराग किया। जीवात्मा का सत्य के लिये प्रयास करना ही धर्म है।
धर्म की प्राप्ति और रक्षा के लिये प्रत्येक मनुष्य को आलोचना की हेयोपादेयता समझना आवश्यक है। जब तब आलोचना की हेयोपादेयता का विवेक जाग्रत नहीं होता, तब तक मनुष्य निरंतर पापकर्म का ही सजृन करता है। आलोचना कथंचित हेय है, छोड़ने योग्य है अर्थात् दूसरों को नीचा दिखाने के लिये खोटी भावनाओं से उसके गुणों को छिपाकर झूठे ही आलोचना करने लग जाना, इस धरती पर महापाप है। इसमें पाँचों पापों का आगमन हो जाता है। ऐसी आलोचना सज्जनों के लिये छोड़ने योग्य है, तथा आलोचना कथंचित उपादेय है ग्रहण करने योग्य है अर्थात् अपने दोषों को भली-भाँति जान कर उन दोषों का प्रत्याख्यान करने के लिये गुरु के निकट जाकर जो दोषों का व्याख्यान किया जाता है। ऐसी ही आलोचना सज्जनों को ग्रहण करने योग्य है।
अपने दोषों की आलोचना कर प्रत्याख्यान करने से आत्मा में ऊर्जा का संचार होता है। ऐसी पवित्र आत्मा से निकलती हुई वर्गणायें प्रेम और शांति का पैगाम लाती हैं। आत्मा में परमात्मा अनभति का स्फरण होता है। समाधि का साधन निर्दोष आलोचना है। अतः आलोचना दूसरों की नहीं स्वयं की करो।