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धर्म क्या है?


वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। वस्तु स्वभाव की पहिचान के अभाव में धर्म की प्राप्ति नहीं होती। धर्म के नाम पर परंपराओं का निर्वाह अनादि से अज्ञान वश किया जाता रहा, किन्तु परंपराओं का निर्वाह धर्म नहीं-धोखा है। धर्म, परंपराओं को ध्वस्त कर अपनी यथार्थ चमक को बिखेरता है। परम्परा जीवन को गर्त की दिशा में ले जाती हैं। इसलिये परम्पराओं की मुक्ति पर धर्म का उदय होता है।, जो वस्तु स्वभाव का परिचायक है।

दुःखों से भयभीत जीव जब धर्मस्थलों में धर्म का पालन करता है, तो अक्सर धर्म का स्वरूप न जानकर परम्पराओं का पोषक बन जाता है और अपने को धर्मात्मा मानने लगता है। धर्म तो वस्तु स्वभाव है, जब तक वस्तु स्वभाव समझ में नहीं आता, तब तक जीव कितना भी धर्म परम्पराओं का निर्वाह करे, उसे धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। धर्म की उपलब्धि के अभाव में दुःखों से मुक्ति की बात हास्यास्पद है।

वस्तुस्वभाव रूप धर्म की साधक परम्परा ही निर्वाह के योग्य है। वस्तु स्वभाव रूप धर्म को समझ लेने के बाद साधक परम्परा भी धर्म नाम को प्राप्त होती है। कारण में कार्य का उपचार करके इस परम्परा का पालन भी आत्मार्थी पुरुष को करना पड़ता है। संसार सागर में भटके हुये जीव को आत्मसुख की भावना करनी चाहिये। आत्म सुख की प्राप्ति के लिये आत्मधर्म का पालन करना, तदनुरूप पुरुषार्थ करना आवश्यक होता है।

धर्म के नाम पर घृणा का होना अधर्मी होने का परिचय है। जब तक जीव को भेदविज्ञान नहीं हुआ तब तक घृणा को छोड़ नहीं सकता। भेदविज्ञान से समष्टि के प्रति प्रेमभाव उपजता है। भेदविज्ञान के अभाव में प्रेम का होना अशुभ राग है। भेदविज्ञानपूर्वक समष्टि के प्रति जो प्रेम का भाव उत्पन्न होता है, उसमें समस्त जीवों के कल्याण का शभ भाव ही निहित होता है। अतः जीवन में सर्वजीवों के कल्याण का भाव रखने वाला भेदविज्ञानी जीव धर्मध्यान को प्राप्त हुआ कर्तव्य का पालन करनेवाला धर्मात्मा पुरुष कहलाता है।


Youtube/ Jinagam Panth Jain Channel

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