तपोञ्जलि व्रत


कींनाम तपोऽञ्जलिर्व्रतम्? द्वादशमासेषु निशिजलपानं न कत्र्तव्यमुपवासाश्चतुर्विंशतय: कार्या:, अष्टम्यां चतुर्दश्यां नैव नियम: अष्टम्यामेव चतुद्र्दश्यामेवेति।

अर्थ-

तपोऽञ्जलि व्रत की क्या विधि है? कैसे किया जाता है? आचार्य कहते हैं कि बारह महीनों तक अर्थात् एक वर्ष पर्यन्त रात को पानी नहीं पीना और एक वर्ष में चौबीस उपवास करना तपोऽञ्जलि व्रत है। उपवास करने का नियम अष्टमी और चतुर्दशी को ही नहीं है, प्रत्येक महीने में दो उपवास कभी भी किये जा सकते हैं।

विवेचन-

आचार्य ने तपोऽञ्जलि व्रत का अर्थ यह किया है कि रात को जल नहीं पीना, ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना, धर्मध्यानपूर्वक वर्ष को बिताना। यह व्रत श्रावण मास की कृष्णा प्रतिपदा से किया जाता है। इसका प्रमाण एक वर्ष है। व्रत करने वाला दिगम्बर जैन मुनि या दिगम्बर जैन प्रतिमा के समक्ष बैठकर व्रत को विधिपूर्वक ग्रहण करता है। दो घटी सूर्य अस्त होने के पूर्व से लेकर दो घटी सूर्योदय के बाद तक जलपान का त्याग करता है। जलपान का अर्थ यहाँ हलका भोजन नहीं है बल्कि जल पीने का त्याग करना अभिप्रेत है। इस व्रत का धारी श्रावक रात को जल तो पीता ही नहीं, किन्तु ब्रह्मचर्य का भी पालन करता है। यद्यपि कहीं-कहीं स्वदारसन्तोष व्रत रखने का विधान किया है, पर उचित तो यही प्रतीत होता है कि एक वर्ष ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर आत्मिक शक्ति का विकास किया जाये। ब्रह्मचर्य से रहने पर शरीर और मन दोनों स्वस्थ होते हैं।
वर्षा ऋतु से व्रतारम्भ करने का अभिप्राय भी यही है कि इस ऋतु में पेट की अग्नि मंद हो जाती है, अत: ब्रह्मचर्य से रहने पर शक्ति का विकास होता है। ब्रह्मचर्य के अभाव में वर्षा ऋतु में नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं, जिससे मनुष्य आत्मकल्याण से वंचित हो जाता है। इस ऋतु में रात को जल न पीना भी बहुत लाभप्रद है। नाना प्रकार के सूक्ष्म और बादर जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति इस ऋतु में होती है, जिससे रात में पीने वाले जल के साथ वे पेट में चले जाते हैं। भयंकर व्याधियाँ भी वर्षा ऋतु की रात में जल पीने से हो जाती हैं। तपोऽञ्जलि व्रत में प्रत्येक मास में दो उपवास स्वेच्छा से किसी भी तिथि को करने चाहिए।
प्रत्येक महीने की शुक्लपक्ष की अष्टमी और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का नियम इस व्रत के लिए बताया गया है; परन्तु यह कोई आवश्यक नहीं कि यह व्रत इन दोनों दिनों में होना ही चाहिए। प्रत्येक पक्ष में एक उपवास करना आवश्यक है, एक ही पक्ष में दो उपवास नहीं करने चाहिए। जो लोग अष्टमी और चतुर्दशी का उपवास करना चाहते हैं, उनको भी इस व्रत के लिए कृष्ण पक्ष में अष्टमी का और शुक्लपक्ष में चतुर्दशी का अथवा शुक्लपक्ष में अष्टमी का और कृष्णपक्ष में चतुर्दशी का उपवास करना चाहिए। लगातार एक ही पक्ष में दो उपवास करने का निषेध है। कोई भी व्यक्ति एक ही पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास नहीं कर सकता है। उपवास के लिए जिस प्रकार पक्ष का पृथक् होना आवश्यक है, उसी प्रकार तिथि का भी।एक महीने में उपवास की तिथियाँ एक नहीं हो सकती। जैसे कोई व्यक्ति कृष्ण पञ्चमी का उपवास करे, तो पुन: शुक्ल पक्ष में वह पञ्चमी का उपवास नहीं कर सकता है। कृष्णपक्ष में पञ्चमी के उपवास के पश्चात् शुक्लपक्ष में उसे तिथि-परिवर्तन करना ही पड़ेगा। अत: शुक्ल पक्ष में पञ्चमी को छोड़ किसी भी अन्य तिथि को उपवास कर सकता है। इस व्रत में प्रतिदिन ‘ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:’ मंत्र का १०८ बार जाप करना चाहिए।