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जैन प्रतीक चिह्न


भगवान् महावीर के २५०० वें निर्वाण वर्ष (१९७४-१९७५ ई०) में जैनधर्म के सभी आम्नायों को मानने वालों के द्वारा एक मत से एक प्रतीकात्मक चिह्न को मान्यता दी गई, यों तो अहिंसा और परोपकार की भावना से जैन कहीं भी अपनी पहचान बना लेते हैं; क्योंकि उनका जीवनोद्देश्य ही है: परस्परोपग्रहो जीवानाम्, यह चिह्न जैनों को एक अलग पहचान देता है ।

  • जैन प्रतीक चिह्न का स्वरूप जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है।
  • इसका निचला भाग अधोलोक, बीच का भाग मध्यलोक एवं ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक का प्रतीक है।
  • चन्द्राकार सिद्धशिला का सूचक है। अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान् इस सिद्धशिला पर अनादिकाल से अनन्तकाल तक के लिये विराजमान हैं।
  • सिद्धशिला के ऊपर एक बिन्दु सिद्धजीव का प्रतीक है।
  • इसके ऊपरी भाग में प्रदर्शित स्वस्तिक की चार भुजायें गतियों-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवगति का प्रतीक है।
  • स्वस्तिक के ऊपर प्रदर्शित तीन बिन्दु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को दर्शाते हैं और संदेश देते हैं कि सम्यक् रत्नत्रय के बिना प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है।
  • चिह्न के निचले भाग में प्रदर्शित हाथ अभय की सूचना देता है और लोक के सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव रखने का परस्परोपग्रहो जीवानाम् प्रतीक है।
  • हाथ के बीच में २४ आरों वाला चक्र २४ तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत जिनधर्म को दर्शाता है एवं बीच में प्रदर्शित अहिंसा जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है।
  • परस्परोपग्रहो जीवानाम् का अर्थ है-जीव एक-दूसरे का उपकार करते हैं। यह जैन प्रतीक चिह्न संसारी प्राणी की वर्तमान दशा एवं इससे मुक्त होकर सिद्धशिला तक पहुँचने का मार्ग दर्शाता है।
  • आजकल लगभग सभी जैन पत्र-पत्रिकाओं, वैवाहिक कार्ड, क्षमावाणी कार्ड, भगवान् महावीर निर्वाण दिवस, दीपावली एवं जैन समाज से जुड़े किसी भी कार्यक्रम की पत्रिकाओं में इस प्रतीक चिह्न का प्रयोग किया जाता है।
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